शनिवार, 12 सितंबर 2009

मेवाड़ उदयपुर क्षेत्र में मंदिर-निर्माण गतिविधियाँ

मेवाड़ उदयपुर क्षेत्र में मंदिर-निर्माण गतिविधियाँ

उत्तर गुप्तकाल में मेवाड़ क्षेत्र में विष्णु एवं शिव की अपेक्षा शक्ति पूजा अधिक प्रचलित थी। जगत और उनवास जैसे स्थानों पर बने मंदिर शाक्त संप्रदाय की लोकप्रियता के सशक्त उदाहरण है। इन मंदिरों में दुर्गा के महिषमर्दिनी रुप को महिभान्वित किया गया है। इसके अतिरिक्त वैष्णव संप्रदाय के लोगों के बीच विष्णु के लक्ष्मीनारायण और वराह विग्रहों की पूजा विशेष रुप से होती थी। उपरोक्त मंदिरों के अतिरिक्त शिव एवं सूर्य देवताओं के बने मंदिर अत्यंत कम प्राप्त होते हैं।


मेवाड़ प्रान्त के वैसे नगर व स्थान, जो मंदिर निर्माण गतिविधियों के लिए जाने जाते हैं, का उल्लेख किया जा रहा है --

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चित्तौड़गढ़
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कल्याणपुर
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आहड़
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उनवास
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जगत
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नागदा
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टूस
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इसवाल


चित्तौड़गढ़

मेवाड़ में सबसे प्राचीन वैष्णव एवं सौर मंदिरों का निर्माण चित्तौड़गढ़ में हुआ था। दुर्ग के राजनीतिक एवं धार्मिक इतिहास तथा भौगोलिक परिवेश ने मंदिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार को प्रभावित किया है। अभिलेखीय एवं पुरातात्विक प्रमाणों द्वारा यह ज्ञात होता है कि ईसवी पूर्व द्वितीय शताब्दी से सातवीं शताब्दी तक इस क्षेत्र में वैष्णव धर्म लोकप्रिय था। इसके अलावा यहाँ शैव, शाक्त, सौर, बौद्ध व जैन धर्मों से संबद्ध भी कई प्राचीन तीर्थस्थल के प्रमाण मिलते हैं। ७वीं- ८वीं सदी के मिले कुछ दान स्तूप, जिनका आधार वर्गाकार है, के चारों ओर की ताखों में ध्यान मुद्रा में बैठे हुए बुद्ध की प्रतिमाएँ अंकित हैं। इसके अलावा भी ७वीं सदी के कई मंदिर मिलती है।

७वीं से १५वीं सदी के अंतराल में चित्तौड़ निरंतर मंदिर एवं अन्य वास्तु निर्माण जीर्णोद्धार आदि गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। इस अवधि में महाराणा कुंभा का राज्यकाल (१४३३-१४६६ ई.) इन गतिविधियों के लिए विशेष उल्लेखनीय है। भवन - निर्माण के लिए उपयोग में आने वाली सामग्री नागरी से लायी जाती थी। उपलब्ध पाषाणों की प्रचुरता ने भी इस क्षेत्र में वास्तु - निर्माण को प्रभावित किया है। यहाँ के कुछ प्रमुख मंदिरों की चर्चा इस प्रकार की जा रही है --

(क.) कालिका माता मंदिर

यह मंदिर मूलतः एक सूर्य मंदिर था। अभिलेखीय प्रमाण के आधार पर इसे ८वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल का निश्चित किया जा सकता है, जिसका समयांतर में जीर्णोद्धार किया गया । इस मंदिर में पंचरथ गर्भगृह, मंडप, आम्यन्तरीय, प्रदक्षिणा पथ और द्वार- मंडप निर्मित है। गर्भगृह की बाह्य तीनों प्रमुख ताखों में से दो में रथारुढ़ सूर्यदेव की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं, जबकि गौण ताखों में चन्द्र तथा अन्य दिक्पालों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार का सिरदल एवं चौखट का अलंकरण विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। प्रवेश- द्वार के सिरदल पर मंदिर के मुख्य देव, सूर्य देव की प्रतिमा को मध्य में उत्कीर्ण किया गया है, जो दोनों ओर से विशद रुप से अन्य देवगणों तथा गंर्धवाç से घिरे है। चौखट पर दोनों ओर गंगा तथा यमुना नदी देवियाँ अपने वाहनों पर आरुढ़ अंकित की गई है। मंदिर में अंकित कूर्मावतार, उमा- माहेश्वर तथा लकुलीश मूर्तियाँ प्रतिमा विज्ञान की प्रारंभिक अवस्था को इंगित करता है, जो बाद में १०वीं सदी में प्रौढ़ता प्राप्त कर लेते हैं।

मंदिर का शिखर पूर्णतः नवीन रचना है। ८वीं शताब्दी की शिखर शैली के स्थान पर गुंबदाकार नया शिखर बनाया गया है। मंडप की आम्यंतरीय भित्ति पर लगी दो अर्द्धचित्र तथा एक लकुलीश प्रतिमा बाद में लगाई गई लगती है। वस्तुतः इन शिलापट्टों का मूल स्थान मंदिर की जगती पर रहा होगा। अर्द्धचित्र पट्टों की विषयवस्तु नृत्य, संगीत एवं पान गोष्ठी है।

मूलतः मंदिर एक विशाल जगती पर बना था, जिसकी कुछ गढ़ने अभी भी शेष हैं। गर्भगृह के प्रदक्षिणापथ में प्रकाश एवं वायु संचार के लिए दो भद्रावलोकन चार स्तंभों पर बनाये गये हैं।


ख. कुंभस्वामी या कुंभश्याम मंदिर

यह मंदिर मूलतः वैष्णव मंदिर था। कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति के अनुसार, इस जीर्ण मंदिर का जीर्णोद्धार नृपति कुंभकर्ण (महाराणा कुंभा) के द्वारा करवाया गया था, अतः इसे कुंभस्वामी और कुंभश्याम जैसे नामों से जाना जाने लगा।

यह मंदिर कालिका माता मंदिर का ही समकालीन है तथा इसकी वास्तु योजना तथा शैली भी इससे मिलती- जुलती है। एक तरफ जहाँ मंदिर की वास्तु योजना, उन्नत एवं सादी पीठ, अलंकरण रहित जंघा एवं प्रदक्षिणापथ, गर्भगृह के बाह्य ताखों की देव प्रतिमाएँ तथा अंतराल के अर्द्धस्तंभों की प्रतिमाएँ ८वीं सदी की रचना प्रतीत होती है, वही अन्य अलंकरण, स्तंभों पर टिका सभा मंडप और शिखर बाद में, १५वीं शताब्दी के जीर्णोद्धार के समय निर्मित किये गये होंगे। इस प्रकार यह मंदिर विभिन्न कालों में निर्मित होने के कारण, कई वास्तु शैलियों एवं मूर्ति शिल्पों का उदाहरण संजोये हुए हैं।

श्री ढाकी के अनुसार राजा मानभंग, जिन्हें कालिका माता सूर्य मंदिर, निकटवर्टी तड़ाग तथा त्रिपुरविजय प्रासाद आदि के निर्माण का श्रेय है, ने ही इस मंदिर का भी निर्माण किया। उनके अनुसार कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति का कुंभस्वामिन आलम प्राचीन त्रिपुर विजय ही था, जिसे कुंभा ने फिर से निर्मित किया था। वर्त्तमान कुंभश्याम मंदिर का सभामंडप फिर से प्राचीन अवशेषों और नवीन पाषाणों द्वारा बनाया गया है। मूल खंडित शैव मूर्तियों के स्थान पर नई वैष्णव मूर्तियाँ स्थापित कर दी गई हैं। सुरक्षित शैव मूर्तियों को पूर्ववत् ही रखा गया है। मंदिर की पीठ पर बना अश्वधर, नरधर, ग्रास पट्टिका का पूर्णतः अभाव इसे निश्चित रुप से ८वीं शताब्दी का निश्चित करता है।

कुंभश्याम सांधान प्रकार का पूर्वाभिमुखी प्रासाद है। मंदिर का गर्भगृह त्रयंग प्रकार का है, जिसका प्रत्येक अंग एक सलिलांतर से जुड़ा है। प्रत्येक कर्ण पर दिग्पालों की प्रतिमाएँ त्रिभंग में खड़ी हुई, अत्यंत कमनीय दिखाई पड़ती है। भद्रा की रथिकाओं की तीन शाखाएँ हैं -- पत्रवल्ली, नागपाश और रुप शाखा।


(ग.) समाधीश्वर मंदिर

चित्तौड़ दुर्ग में समाधीश्वर मंदिर का स्थान महत्वपूर्ण मंदिरों में था। शिव समाधीश का चित्तौड़ के जन - जीवन में महत्वपूर्ण स्थान था। कुछ अभिलेखों के अनुसार इसे 'समिधेश्वर' तथा अपभ्रंश रुप में "समिधेसुर' के रुप में भी जाना जाता है। इस मंदिर के निर्माण कर्त्ता, अधिष्ठाता देव, रचनाकाल तथा नाम को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। सन् १४२८ ई. की एक प्रशस्ति के अनुसार महाराजा मोकल ने इसका जीर्णोद्धार किया था, अतः इसे 'मोकल का मंदिर' के रुप में भी जाना जाता है।

कुछ विद्वानों, जैसे श्री ढ़ाकी के अनुसार, यह भवन चालुक्य कुमारपाल द्वारा निर्मित कुमार विहार है। वेदी बंध के नरथर एवं कुंभक तथा जंघा पर जैन शासन देवयों एवं यक्ष- यक्षिणियों की मूर्ति के आधार पर तथा इसी मंदिर के प्रांगण से प्राप्त कुमारपाल की ११५० ई. की प्रशस्ति के आधार पर इसे जैन मंदिर माना है।

कुमारपाल की प्रशास्ति में उसके शैव उपासक होने का ही प्रमाण मिलता है। यद्यपि बाद में यशपाल के मोहपराजय नाटक के अनुसार सन् ११५९ ई. (संवत् १२१६) में उसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। परंतु जैन मूर्तियाँ में यक्ष, यक्षिणी, मुनींद्र आदि की उपस्थिति यह सिद्ध करना कि यह मंदिर जैन मंदिर ही था, उचित प्रतीत नहीं होता। यहाँ उपलब्ध दृश्यों का अंकन सामान्य रुप से जैन एवं हिंदू सभी मंदिरों से प्राप्त होता है। दोनों धर्मों की प्रासाद वस्तु एवं तक्षक एक ही हुआ करते थे। इस प्रकार यह 'कुमारपाल का विहार' का न होकर आद्यंत शैव प्रासाद प्रतीत होता है। यह शिव की महेश मूर्ति अर्थात वामदेव, सद्योजात, भैरव का रुप है। मूर्ति की विशालता एवं विस्पर्यात्पादकता अपूर्व है। शैली की दृष्टि से १५वीं शताब्दी के बाद की प्रतीक होती है। प्रासाद पश्चिमाभिमुखी है तथा तीनों दिशाओं में तीन मुख चतुष्कियाँ है, जो गूढ़ मंडल में खुलती है। गर्भगृह का धरातल गूढ़ मंडप से नीचा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जीर्णोद्धार के समय यह परिवर्त्तन किया गया हो।

डा. रामनाथ तथा कई अन्य विद्वानों ने इस प्रासाद की पहचान तथा निर्माण का काल परमार शासक भोज द्वारा निर्मित त्रिभूवन नारायण से करने का प्रयास किया है। इनके अनुसार, यह मंदिर १०१८- १०५४ ई. में भोज राजा द्वारा निर्मित किया गया होगा, जिसका उल्लेख चीरवा से प्राप्त अभिलेख में है।


कल्याणपुर

यह उदयपुर के दक्षिण में ७७ किलोमीटर दूर स्थित है तथा शैवपीठ के रुप में लोकप्रिय रहा है। वर्त्तमान में मंदिर उत्यंत जीर्ण अवस्था में है। प्राप्त अभिलेखों के आधार पर इसे ७वीं शताब्दी का निश्चित किया गया है। मंदिर की मूर्तियाँ कुछ हरापन लिए हुए काले परेवा पत्थर की बनी है, वर्त्तमान में प्रताप संग्रहालय तथा एम. बी. कॉलेज, उदयपुर में संरक्षित हैं।


आहड़

आहड़ मेवाड़ क्षेत्र का मूर्तिकला की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण है। इसका प्राचीन नाम आघाटपुर, आटपुर तथा गंगोद्भेद तीर्थ है। यह ९वीं - १०वीं शताब्दी में वैष्णव संप्रदाय का एक प्रमुख केंद्र था।

आहड़ से प्राप्त एक अभिलेख , जो ९५३ ई. (संवत् १०१०) का था, से एक विष्णु के मंदिर का उल्लेख का था, से एक विष्णु के मंदिर का उल्लेख मिलता है। यहाँ एक वैष्णव भक्त द्वारा आदि वराह की प्रतिमा स्थापित करवाई गई थी। यहाँ एक सूर्य मंदिर भी था। इसका प्रमाण १४ द्रम्मों के दान का उल्लेख करने वाले एक अन्य अभिलेख से मिलता है।

एक अन्य मंदिर में विष्णु के लक्ष्मीनारायण रुप की अर्चना होती थी, जिसे अब मीराबाई मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर के बाह्य ताखों में ब्रम्हा- सावित्री, बरुड़ पर बैठे लक्ष्मी- नारायण, नंदी पर आसीन उमा- माहेश्वर आदि की प्रतिमाओं के अतिरिक्त मेवाड़ के तत्कालीन सामाजिक जीवन के दृश्यों को भी प्रस्तुत किया गया है, जो उल्लेखनीय है।


उनवास

उनवास, जो उदयपुर से ४८ कि.मी. दूर हल्दी घाटी के निकट स्थित हैं, दुर्गा मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। जन- सामान्य में यह मंदिर पिप्पलादमाता के नाम से विख्यात है। १०वीं सदी में निर्मित यह मंदिर जगत का अम्बिका मंदिर का समकालीन है तथा यह एक गुहिल शासक अल्लट के राज्यकाल में निर्मित माना जाता है। इस मंदिर की गणना मातृपूजा परंपरा के अंतर्गत बने झालरापाटन तथा जगत के मंदिर समूहों में की जाती है, जहाँ एकान्तिक रुप से शक्ति के किसी रुप की ही अर्चना की जाती थी। इसमें दुर्गा के महिषमर्दिनी स्वरुप को शांत व वरद रुप की दिव्यता को प्रस्तुत किया गया है।


मूर्तिकला की अपेक्षा वास्तुकला के अभिप्रायों के विकास के अध्ययन के लिए उनवास का उपरोक्त मंदिर अधिक महत्वपूर्ण है। मंदिर की पीढिका के अलंकरणात्मक अभिप्रायों का इस मंदिर में अभाव है।


जगत

उदयपुर से ४२ किलोमीटर दूर स्थित जगत ऐतिहासिक अंबिका मंदिर के लिए जाना जाता है। मातृदेवी की इस मंदिर ने मातृदेवताओं तथा दिक्पालों के अतिरिक्त किसी भी अन्य देव की प्रतिमा का न होना, इसे अन्य मंदिरों से अलग करती है। यहाँ से प्राप्त स्तंभ अभिलेख, अंकन शैली तथा बनावट यह स्पष्ट करती है कि इसे १०वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बनाया गया था। प्राप्त अभिलेख के अनुसार ९६१ ई. (संवत् १०१७) में वल्लकपुत्र साम्वपुर ने इसका जीर्णोद्धार किया था। इस मंदिर समुह के तीन प्रमुख अंग है-- सभामंडप, मुख्य मंदिर तथा मुख्य मंदिर की जल प्रणालिका पर बना छोटा मंदिर। सभामंडप का उपयोग देवी के उपलक्ष्य में नृत्यगीतादि सभाओं के लिए होता होगा। प्रवेश द्वार के दोनों स्तंभ भी समाप्त प्रायः है। इन स्तंभों के ऊपरी भाग पर कमल पर खड़ी अलसकन्या की प्रतिमा अंकित थी। पीठिका के उत्कीर्ण अभिप्राय अभी भी सुरक्षित है। यह अंकन शैली, जो सरल कही जा सकती है, इस दिशा में एक नयी शैली के प्रारंभ की परिचायक है। इस समय तक इन विषयों में कोई निश्चित नियम तो नहीं था, परंतु इन्हें अलंकृत करने के प्रयास ने ११वीं शताब्दी में इसके क्रमशः विकास में सहायक हुआ।

मुख्य मंदिर में एक प्रवेश- द्वार- मंडप, सभामंडप तथा गर्भगृह है। इन मंदिर को मातृदेवी दुर्गा के शांत, अभय एवं वरद रुप की एकान्तिक उपासना का उदाहरण माना जाता है, जहाँ दुर्गा के सभी रुपों में महिषमर्दिनी रुप को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है। गर्भगृह की प्रमुख पूजा प्रतिमा क्षेमकरी विग्रह की थी, जो प्रतिमा के अवशिष्ट परिकर से प्रतीत होता है।

मंदिर में महिषमर्दिनी कथा के विभिन्न दृश्यों का अंकन है। महिषासुर का अंकन भी विविध रुपों में किया गया है, लेकिन चामुण्डा तथा भैरवी के अतिरिक्त देवी का कोई भी वीभत्स रुप प्रस्तुत नहीं किया गया है। मंदिर की बाह्य भित्तियों, स्तंभों, ताखों आदि में कई रुपों में अप्सराओं का रुपांकन तथा उनकी विविध भाव- भंगिमाओं एवं मुद्राओं की प्रस्तुति की गई है। इन अप्सराओं का प्रस्तुतीकरण देवी के विविध विशेषणों के अनुरुप ही किया गया है। देवी प्रतिमा के शीर्ष पर एक शुक का अंकन देवी माहात्म्य जैसे समकालीन साहित्यिक स्रोतों से प्रेरित लगता है।

नागदा

उदयपुर से २७ कि.मी. दूर स्थित नागदा गुहिल शासकों की प्राचीन राजधानी रह चुकी है। ६६१ ई. (संवत् ७१८) का अभिलेख इस स्थान की प्राचीनता को प्रमाणित करता है, वहीं पुरातात्विक सामग्री की शैली के आधार पर यह उतना प्राचीन प्रतीत नहीं होता। संभवत, प्राचीन स्मारक समय के साथ नष्ट हो गये होंगे। यहाँ से प्राप्त १०२६ ई. के एक अभिलेख के अनुसार, गुहिल शासन श्रीधर ने यहाँ के कुछ मंदिरों का निर्माण करवाया, वर्त्तमान सास- बहू मंदिर संभवतः इन्हीं मंदिरों में है। शैलीगत समानता के आधार पर भी ये मंदिर १०- ११ वीं शताब्दी में निर्मित प्रतीत होते हैं। कहा जाता है कि इन्हें सहस्रबाहु नामक राजा ने बनवाये थे, लेकिन चूंकि गुहिल वंश के इतिहास में इस नाम से किसी शासक की चर्चा नहीं की गई है। अतः यह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।

सास मंदिर आकार में बड़ा है। गुहिल शासकों के सूर्यवंशी होने के कारण बागदा के इस मंदिर को विष्णु को समर्पित किया गया है। गर्भगृह के पृष्ठभाग की प्रमुख ताख में एक चतुर्भुज विष्णु प्रतिमा प्रतिष्ठित है। दोनों मंदिरों के बाह्य भाग पर श्रृंगार-रत नर- नारियों का अंकन किया गया है। इस मंदिरों के दायी ओर के कोने पर एक शक्ति मंदिर निर्मित हैं, जिसमें शक्ति के विविध रुपों का अंकन किया गया है।

नागदा के पास ही एक अन्य मंदिर समूह एकलिंग या कैलाशपुरी के नाम से जाना जाता है। यहाँ के लकुलीश मंदिर से प्राप्त शिलालेख ९७१ ई. का है और यह सर्वाधिक प्राचीन है। अन्य मंदिर १२वीं शताब्दी के हैं।


टूस (मंदेसर)

टूस उदयपुर के समीप बेड़च नदी के तट पर स्थित है तथा यहाँ का सूर्य मंदिर मूर्तिकला परंपरा के अध्ययन में विशेष महत्व रखता है।

वैष्णव संप्रदाय की तुलना में सूर्य पूजा का मेवाड़ क्षेत्र में कम प्रचलन था। वैसे मंदिर , जो प्रारंभ में सूर्य पूजा के लिए बनाये गये थे, में समय के साथ धीरे- धीरे विष्णु या लक्ष्मीनारायण की पूजा होने लगी थी।

टूस का सूर्य मंदिर सौर- संप्रदाय की एकांतिक पूजा के लिए बना प्रतीत होता है, क्योंकि पूरे मंदिर में किसी अन्य देव की प्रतिमा उत्कीर्ण नहीं है। मंदिर के शिखर तथा मंडप चूने के पलस्तर से दुबारा निर्मित हुए हैं। शिखर सपाट है। सभामण्डल अष्टकोणीय गुम्बदाकार छत से ढ़की है, जिसमें कोष्टक बने है। इन कोष्टकों में हाथी के सिर पर आरुढ़ अप्सराएँ तथा मातृका मूर्तियाँ अंकित की गई है।

राजस्थान के अन्य मंदिरों की तुलना में इस मंदिर के गर्भगृह के बाह्य ताखों की सभी मूर्तियाँ आकार में बड़ी है। अंतराल की बाह्य भित्ति पर भी सूर्य की एक विचित्र प्रतिमा है, जिसे दो स्री मूर्तियों के साथ उत्कीर्ण किया गया है। इन स्रियों का अंकन सूर्यदेव की पत्नी के रुप में कम तथा अप्सरा मूर्तियों की मुद्रा में अधिक प्रतीत होता है। अप्सराओं के साहचर्य में सूर्य का अंकन मूर्तिविज्ञान की प्रचलित परंपराओं के अनुकूल न होने के कारण मूर्ति विशेष महत्व की है।


ईसवाल

ईसवाल का मंदिर उदयपुर से लगभग ५६कि.मी. की दूरी पर है। यहाँ से प्राप्त संवत् ११६१ तथा संवत् १२४२ के दो अभिलेखों के आधार पर इसका निर्माण काल ११वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निर्मित निर्धारित किया गया है। संवत् १२४२ का अभिलेख, जो संभवतः मंदिर के जीर्णोद्धार अथवा प्रतिमा स्थापन के समय लगायी गई होगी। यह इंगित करती है कि यह अभिलेख गुहिल शासक मथनसिंह का है तथा मंदिर के अधिष्ठातादेव 'वोहिगस्वामी' है।

मंदिर पूर्ण पंचायत मंदिर का उद्धरण प्रस्तुत करता है। गर्भगृह में विष्णु की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। जिसके चारों ओर चारों दिशाओं में क्रमशः गणेश, शक्ति, सूर्य तथा शिव के गौण मंदिर हैं। इन मूर्तियों में सौर पूजा के वैष्णव पूजा में समावेश के स्पष्ट चिंह दिखाई पड़ते हैं। गर्भगृह के पृष्ठभाग की प्रमुख ताख में सूर्य एवं विष्णु का संयुक्त विग्रह उत्कीर्ण है, जो विष्णु पूजा में सौर पूजा के समावेश को दर्शाता है।

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