शनिवार, 12 सितंबर 2009

मेवाड़ उदयपुर क्षेत्र में मंदिर-निर्माण गतिविधियाँ

मेवाड़ उदयपुर क्षेत्र में मंदिर-निर्माण गतिविधियाँ

उत्तर गुप्तकाल में मेवाड़ क्षेत्र में विष्णु एवं शिव की अपेक्षा शक्ति पूजा अधिक प्रचलित थी। जगत और उनवास जैसे स्थानों पर बने मंदिर शाक्त संप्रदाय की लोकप्रियता के सशक्त उदाहरण है। इन मंदिरों में दुर्गा के महिषमर्दिनी रुप को महिभान्वित किया गया है। इसके अतिरिक्त वैष्णव संप्रदाय के लोगों के बीच विष्णु के लक्ष्मीनारायण और वराह विग्रहों की पूजा विशेष रुप से होती थी। उपरोक्त मंदिरों के अतिरिक्त शिव एवं सूर्य देवताओं के बने मंदिर अत्यंत कम प्राप्त होते हैं।


मेवाड़ प्रान्त के वैसे नगर व स्थान, जो मंदिर निर्माण गतिविधियों के लिए जाने जाते हैं, का उल्लेख किया जा रहा है --

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चित्तौड़गढ़
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कल्याणपुर
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आहड़
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उनवास
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जगत
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नागदा
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टूस
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इसवाल


चित्तौड़गढ़

मेवाड़ में सबसे प्राचीन वैष्णव एवं सौर मंदिरों का निर्माण चित्तौड़गढ़ में हुआ था। दुर्ग के राजनीतिक एवं धार्मिक इतिहास तथा भौगोलिक परिवेश ने मंदिरों के निर्माण एवं जीर्णोद्धार को प्रभावित किया है। अभिलेखीय एवं पुरातात्विक प्रमाणों द्वारा यह ज्ञात होता है कि ईसवी पूर्व द्वितीय शताब्दी से सातवीं शताब्दी तक इस क्षेत्र में वैष्णव धर्म लोकप्रिय था। इसके अलावा यहाँ शैव, शाक्त, सौर, बौद्ध व जैन धर्मों से संबद्ध भी कई प्राचीन तीर्थस्थल के प्रमाण मिलते हैं। ७वीं- ८वीं सदी के मिले कुछ दान स्तूप, जिनका आधार वर्गाकार है, के चारों ओर की ताखों में ध्यान मुद्रा में बैठे हुए बुद्ध की प्रतिमाएँ अंकित हैं। इसके अलावा भी ७वीं सदी के कई मंदिर मिलती है।

७वीं से १५वीं सदी के अंतराल में चित्तौड़ निरंतर मंदिर एवं अन्य वास्तु निर्माण जीर्णोद्धार आदि गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। इस अवधि में महाराणा कुंभा का राज्यकाल (१४३३-१४६६ ई.) इन गतिविधियों के लिए विशेष उल्लेखनीय है। भवन - निर्माण के लिए उपयोग में आने वाली सामग्री नागरी से लायी जाती थी। उपलब्ध पाषाणों की प्रचुरता ने भी इस क्षेत्र में वास्तु - निर्माण को प्रभावित किया है। यहाँ के कुछ प्रमुख मंदिरों की चर्चा इस प्रकार की जा रही है --

(क.) कालिका माता मंदिर

यह मंदिर मूलतः एक सूर्य मंदिर था। अभिलेखीय प्रमाण के आधार पर इसे ८वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल का निश्चित किया जा सकता है, जिसका समयांतर में जीर्णोद्धार किया गया । इस मंदिर में पंचरथ गर्भगृह, मंडप, आम्यन्तरीय, प्रदक्षिणा पथ और द्वार- मंडप निर्मित है। गर्भगृह की बाह्य तीनों प्रमुख ताखों में से दो में रथारुढ़ सूर्यदेव की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं, जबकि गौण ताखों में चन्द्र तथा अन्य दिक्पालों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार का सिरदल एवं चौखट का अलंकरण विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। प्रवेश- द्वार के सिरदल पर मंदिर के मुख्य देव, सूर्य देव की प्रतिमा को मध्य में उत्कीर्ण किया गया है, जो दोनों ओर से विशद रुप से अन्य देवगणों तथा गंर्धवाç से घिरे है। चौखट पर दोनों ओर गंगा तथा यमुना नदी देवियाँ अपने वाहनों पर आरुढ़ अंकित की गई है। मंदिर में अंकित कूर्मावतार, उमा- माहेश्वर तथा लकुलीश मूर्तियाँ प्रतिमा विज्ञान की प्रारंभिक अवस्था को इंगित करता है, जो बाद में १०वीं सदी में प्रौढ़ता प्राप्त कर लेते हैं।

मंदिर का शिखर पूर्णतः नवीन रचना है। ८वीं शताब्दी की शिखर शैली के स्थान पर गुंबदाकार नया शिखर बनाया गया है। मंडप की आम्यंतरीय भित्ति पर लगी दो अर्द्धचित्र तथा एक लकुलीश प्रतिमा बाद में लगाई गई लगती है। वस्तुतः इन शिलापट्टों का मूल स्थान मंदिर की जगती पर रहा होगा। अर्द्धचित्र पट्टों की विषयवस्तु नृत्य, संगीत एवं पान गोष्ठी है।

मूलतः मंदिर एक विशाल जगती पर बना था, जिसकी कुछ गढ़ने अभी भी शेष हैं। गर्भगृह के प्रदक्षिणापथ में प्रकाश एवं वायु संचार के लिए दो भद्रावलोकन चार स्तंभों पर बनाये गये हैं।


ख. कुंभस्वामी या कुंभश्याम मंदिर

यह मंदिर मूलतः वैष्णव मंदिर था। कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति के अनुसार, इस जीर्ण मंदिर का जीर्णोद्धार नृपति कुंभकर्ण (महाराणा कुंभा) के द्वारा करवाया गया था, अतः इसे कुंभस्वामी और कुंभश्याम जैसे नामों से जाना जाने लगा।

यह मंदिर कालिका माता मंदिर का ही समकालीन है तथा इसकी वास्तु योजना तथा शैली भी इससे मिलती- जुलती है। एक तरफ जहाँ मंदिर की वास्तु योजना, उन्नत एवं सादी पीठ, अलंकरण रहित जंघा एवं प्रदक्षिणापथ, गर्भगृह के बाह्य ताखों की देव प्रतिमाएँ तथा अंतराल के अर्द्धस्तंभों की प्रतिमाएँ ८वीं सदी की रचना प्रतीत होती है, वही अन्य अलंकरण, स्तंभों पर टिका सभा मंडप और शिखर बाद में, १५वीं शताब्दी के जीर्णोद्धार के समय निर्मित किये गये होंगे। इस प्रकार यह मंदिर विभिन्न कालों में निर्मित होने के कारण, कई वास्तु शैलियों एवं मूर्ति शिल्पों का उदाहरण संजोये हुए हैं।

श्री ढाकी के अनुसार राजा मानभंग, जिन्हें कालिका माता सूर्य मंदिर, निकटवर्टी तड़ाग तथा त्रिपुरविजय प्रासाद आदि के निर्माण का श्रेय है, ने ही इस मंदिर का भी निर्माण किया। उनके अनुसार कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति का कुंभस्वामिन आलम प्राचीन त्रिपुर विजय ही था, जिसे कुंभा ने फिर से निर्मित किया था। वर्त्तमान कुंभश्याम मंदिर का सभामंडप फिर से प्राचीन अवशेषों और नवीन पाषाणों द्वारा बनाया गया है। मूल खंडित शैव मूर्तियों के स्थान पर नई वैष्णव मूर्तियाँ स्थापित कर दी गई हैं। सुरक्षित शैव मूर्तियों को पूर्ववत् ही रखा गया है। मंदिर की पीठ पर बना अश्वधर, नरधर, ग्रास पट्टिका का पूर्णतः अभाव इसे निश्चित रुप से ८वीं शताब्दी का निश्चित करता है।

कुंभश्याम सांधान प्रकार का पूर्वाभिमुखी प्रासाद है। मंदिर का गर्भगृह त्रयंग प्रकार का है, जिसका प्रत्येक अंग एक सलिलांतर से जुड़ा है। प्रत्येक कर्ण पर दिग्पालों की प्रतिमाएँ त्रिभंग में खड़ी हुई, अत्यंत कमनीय दिखाई पड़ती है। भद्रा की रथिकाओं की तीन शाखाएँ हैं -- पत्रवल्ली, नागपाश और रुप शाखा।


(ग.) समाधीश्वर मंदिर

चित्तौड़ दुर्ग में समाधीश्वर मंदिर का स्थान महत्वपूर्ण मंदिरों में था। शिव समाधीश का चित्तौड़ के जन - जीवन में महत्वपूर्ण स्थान था। कुछ अभिलेखों के अनुसार इसे 'समिधेश्वर' तथा अपभ्रंश रुप में "समिधेसुर' के रुप में भी जाना जाता है। इस मंदिर के निर्माण कर्त्ता, अधिष्ठाता देव, रचनाकाल तथा नाम को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। सन् १४२८ ई. की एक प्रशस्ति के अनुसार महाराजा मोकल ने इसका जीर्णोद्धार किया था, अतः इसे 'मोकल का मंदिर' के रुप में भी जाना जाता है।

कुछ विद्वानों, जैसे श्री ढ़ाकी के अनुसार, यह भवन चालुक्य कुमारपाल द्वारा निर्मित कुमार विहार है। वेदी बंध के नरथर एवं कुंभक तथा जंघा पर जैन शासन देवयों एवं यक्ष- यक्षिणियों की मूर्ति के आधार पर तथा इसी मंदिर के प्रांगण से प्राप्त कुमारपाल की ११५० ई. की प्रशस्ति के आधार पर इसे जैन मंदिर माना है।

कुमारपाल की प्रशास्ति में उसके शैव उपासक होने का ही प्रमाण मिलता है। यद्यपि बाद में यशपाल के मोहपराजय नाटक के अनुसार सन् ११५९ ई. (संवत् १२१६) में उसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया था। परंतु जैन मूर्तियाँ में यक्ष, यक्षिणी, मुनींद्र आदि की उपस्थिति यह सिद्ध करना कि यह मंदिर जैन मंदिर ही था, उचित प्रतीत नहीं होता। यहाँ उपलब्ध दृश्यों का अंकन सामान्य रुप से जैन एवं हिंदू सभी मंदिरों से प्राप्त होता है। दोनों धर्मों की प्रासाद वस्तु एवं तक्षक एक ही हुआ करते थे। इस प्रकार यह 'कुमारपाल का विहार' का न होकर आद्यंत शैव प्रासाद प्रतीत होता है। यह शिव की महेश मूर्ति अर्थात वामदेव, सद्योजात, भैरव का रुप है। मूर्ति की विशालता एवं विस्पर्यात्पादकता अपूर्व है। शैली की दृष्टि से १५वीं शताब्दी के बाद की प्रतीक होती है। प्रासाद पश्चिमाभिमुखी है तथा तीनों दिशाओं में तीन मुख चतुष्कियाँ है, जो गूढ़ मंडल में खुलती है। गर्भगृह का धरातल गूढ़ मंडप से नीचा है। ऐसा प्रतीत होता है कि जीर्णोद्धार के समय यह परिवर्त्तन किया गया हो।

डा. रामनाथ तथा कई अन्य विद्वानों ने इस प्रासाद की पहचान तथा निर्माण का काल परमार शासक भोज द्वारा निर्मित त्रिभूवन नारायण से करने का प्रयास किया है। इनके अनुसार, यह मंदिर १०१८- १०५४ ई. में भोज राजा द्वारा निर्मित किया गया होगा, जिसका उल्लेख चीरवा से प्राप्त अभिलेख में है।


कल्याणपुर

यह उदयपुर के दक्षिण में ७७ किलोमीटर दूर स्थित है तथा शैवपीठ के रुप में लोकप्रिय रहा है। वर्त्तमान में मंदिर उत्यंत जीर्ण अवस्था में है। प्राप्त अभिलेखों के आधार पर इसे ७वीं शताब्दी का निश्चित किया गया है। मंदिर की मूर्तियाँ कुछ हरापन लिए हुए काले परेवा पत्थर की बनी है, वर्त्तमान में प्रताप संग्रहालय तथा एम. बी. कॉलेज, उदयपुर में संरक्षित हैं।


आहड़

आहड़ मेवाड़ क्षेत्र का मूर्तिकला की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण है। इसका प्राचीन नाम आघाटपुर, आटपुर तथा गंगोद्भेद तीर्थ है। यह ९वीं - १०वीं शताब्दी में वैष्णव संप्रदाय का एक प्रमुख केंद्र था।

आहड़ से प्राप्त एक अभिलेख , जो ९५३ ई. (संवत् १०१०) का था, से एक विष्णु के मंदिर का उल्लेख का था, से एक विष्णु के मंदिर का उल्लेख मिलता है। यहाँ एक वैष्णव भक्त द्वारा आदि वराह की प्रतिमा स्थापित करवाई गई थी। यहाँ एक सूर्य मंदिर भी था। इसका प्रमाण १४ द्रम्मों के दान का उल्लेख करने वाले एक अन्य अभिलेख से मिलता है।

एक अन्य मंदिर में विष्णु के लक्ष्मीनारायण रुप की अर्चना होती थी, जिसे अब मीराबाई मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर के बाह्य ताखों में ब्रम्हा- सावित्री, बरुड़ पर बैठे लक्ष्मी- नारायण, नंदी पर आसीन उमा- माहेश्वर आदि की प्रतिमाओं के अतिरिक्त मेवाड़ के तत्कालीन सामाजिक जीवन के दृश्यों को भी प्रस्तुत किया गया है, जो उल्लेखनीय है।


उनवास

उनवास, जो उदयपुर से ४८ कि.मी. दूर हल्दी घाटी के निकट स्थित हैं, दुर्गा मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। जन- सामान्य में यह मंदिर पिप्पलादमाता के नाम से विख्यात है। १०वीं सदी में निर्मित यह मंदिर जगत का अम्बिका मंदिर का समकालीन है तथा यह एक गुहिल शासक अल्लट के राज्यकाल में निर्मित माना जाता है। इस मंदिर की गणना मातृपूजा परंपरा के अंतर्गत बने झालरापाटन तथा जगत के मंदिर समूहों में की जाती है, जहाँ एकान्तिक रुप से शक्ति के किसी रुप की ही अर्चना की जाती थी। इसमें दुर्गा के महिषमर्दिनी स्वरुप को शांत व वरद रुप की दिव्यता को प्रस्तुत किया गया है।


मूर्तिकला की अपेक्षा वास्तुकला के अभिप्रायों के विकास के अध्ययन के लिए उनवास का उपरोक्त मंदिर अधिक महत्वपूर्ण है। मंदिर की पीढिका के अलंकरणात्मक अभिप्रायों का इस मंदिर में अभाव है।


जगत

उदयपुर से ४२ किलोमीटर दूर स्थित जगत ऐतिहासिक अंबिका मंदिर के लिए जाना जाता है। मातृदेवी की इस मंदिर ने मातृदेवताओं तथा दिक्पालों के अतिरिक्त किसी भी अन्य देव की प्रतिमा का न होना, इसे अन्य मंदिरों से अलग करती है। यहाँ से प्राप्त स्तंभ अभिलेख, अंकन शैली तथा बनावट यह स्पष्ट करती है कि इसे १०वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बनाया गया था। प्राप्त अभिलेख के अनुसार ९६१ ई. (संवत् १०१७) में वल्लकपुत्र साम्वपुर ने इसका जीर्णोद्धार किया था। इस मंदिर समुह के तीन प्रमुख अंग है-- सभामंडप, मुख्य मंदिर तथा मुख्य मंदिर की जल प्रणालिका पर बना छोटा मंदिर। सभामंडप का उपयोग देवी के उपलक्ष्य में नृत्यगीतादि सभाओं के लिए होता होगा। प्रवेश द्वार के दोनों स्तंभ भी समाप्त प्रायः है। इन स्तंभों के ऊपरी भाग पर कमल पर खड़ी अलसकन्या की प्रतिमा अंकित थी। पीठिका के उत्कीर्ण अभिप्राय अभी भी सुरक्षित है। यह अंकन शैली, जो सरल कही जा सकती है, इस दिशा में एक नयी शैली के प्रारंभ की परिचायक है। इस समय तक इन विषयों में कोई निश्चित नियम तो नहीं था, परंतु इन्हें अलंकृत करने के प्रयास ने ११वीं शताब्दी में इसके क्रमशः विकास में सहायक हुआ।

मुख्य मंदिर में एक प्रवेश- द्वार- मंडप, सभामंडप तथा गर्भगृह है। इन मंदिर को मातृदेवी दुर्गा के शांत, अभय एवं वरद रुप की एकान्तिक उपासना का उदाहरण माना जाता है, जहाँ दुर्गा के सभी रुपों में महिषमर्दिनी रुप को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है। गर्भगृह की प्रमुख पूजा प्रतिमा क्षेमकरी विग्रह की थी, जो प्रतिमा के अवशिष्ट परिकर से प्रतीत होता है।

मंदिर में महिषमर्दिनी कथा के विभिन्न दृश्यों का अंकन है। महिषासुर का अंकन भी विविध रुपों में किया गया है, लेकिन चामुण्डा तथा भैरवी के अतिरिक्त देवी का कोई भी वीभत्स रुप प्रस्तुत नहीं किया गया है। मंदिर की बाह्य भित्तियों, स्तंभों, ताखों आदि में कई रुपों में अप्सराओं का रुपांकन तथा उनकी विविध भाव- भंगिमाओं एवं मुद्राओं की प्रस्तुति की गई है। इन अप्सराओं का प्रस्तुतीकरण देवी के विविध विशेषणों के अनुरुप ही किया गया है। देवी प्रतिमा के शीर्ष पर एक शुक का अंकन देवी माहात्म्य जैसे समकालीन साहित्यिक स्रोतों से प्रेरित लगता है।

नागदा

उदयपुर से २७ कि.मी. दूर स्थित नागदा गुहिल शासकों की प्राचीन राजधानी रह चुकी है। ६६१ ई. (संवत् ७१८) का अभिलेख इस स्थान की प्राचीनता को प्रमाणित करता है, वहीं पुरातात्विक सामग्री की शैली के आधार पर यह उतना प्राचीन प्रतीत नहीं होता। संभवत, प्राचीन स्मारक समय के साथ नष्ट हो गये होंगे। यहाँ से प्राप्त १०२६ ई. के एक अभिलेख के अनुसार, गुहिल शासन श्रीधर ने यहाँ के कुछ मंदिरों का निर्माण करवाया, वर्त्तमान सास- बहू मंदिर संभवतः इन्हीं मंदिरों में है। शैलीगत समानता के आधार पर भी ये मंदिर १०- ११ वीं शताब्दी में निर्मित प्रतीत होते हैं। कहा जाता है कि इन्हें सहस्रबाहु नामक राजा ने बनवाये थे, लेकिन चूंकि गुहिल वंश के इतिहास में इस नाम से किसी शासक की चर्चा नहीं की गई है। अतः यह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता।

सास मंदिर आकार में बड़ा है। गुहिल शासकों के सूर्यवंशी होने के कारण बागदा के इस मंदिर को विष्णु को समर्पित किया गया है। गर्भगृह के पृष्ठभाग की प्रमुख ताख में एक चतुर्भुज विष्णु प्रतिमा प्रतिष्ठित है। दोनों मंदिरों के बाह्य भाग पर श्रृंगार-रत नर- नारियों का अंकन किया गया है। इस मंदिरों के दायी ओर के कोने पर एक शक्ति मंदिर निर्मित हैं, जिसमें शक्ति के विविध रुपों का अंकन किया गया है।

नागदा के पास ही एक अन्य मंदिर समूह एकलिंग या कैलाशपुरी के नाम से जाना जाता है। यहाँ के लकुलीश मंदिर से प्राप्त शिलालेख ९७१ ई. का है और यह सर्वाधिक प्राचीन है। अन्य मंदिर १२वीं शताब्दी के हैं।


टूस (मंदेसर)

टूस उदयपुर के समीप बेड़च नदी के तट पर स्थित है तथा यहाँ का सूर्य मंदिर मूर्तिकला परंपरा के अध्ययन में विशेष महत्व रखता है।

वैष्णव संप्रदाय की तुलना में सूर्य पूजा का मेवाड़ क्षेत्र में कम प्रचलन था। वैसे मंदिर , जो प्रारंभ में सूर्य पूजा के लिए बनाये गये थे, में समय के साथ धीरे- धीरे विष्णु या लक्ष्मीनारायण की पूजा होने लगी थी।

टूस का सूर्य मंदिर सौर- संप्रदाय की एकांतिक पूजा के लिए बना प्रतीत होता है, क्योंकि पूरे मंदिर में किसी अन्य देव की प्रतिमा उत्कीर्ण नहीं है। मंदिर के शिखर तथा मंडप चूने के पलस्तर से दुबारा निर्मित हुए हैं। शिखर सपाट है। सभामण्डल अष्टकोणीय गुम्बदाकार छत से ढ़की है, जिसमें कोष्टक बने है। इन कोष्टकों में हाथी के सिर पर आरुढ़ अप्सराएँ तथा मातृका मूर्तियाँ अंकित की गई है।

राजस्थान के अन्य मंदिरों की तुलना में इस मंदिर के गर्भगृह के बाह्य ताखों की सभी मूर्तियाँ आकार में बड़ी है। अंतराल की बाह्य भित्ति पर भी सूर्य की एक विचित्र प्रतिमा है, जिसे दो स्री मूर्तियों के साथ उत्कीर्ण किया गया है। इन स्रियों का अंकन सूर्यदेव की पत्नी के रुप में कम तथा अप्सरा मूर्तियों की मुद्रा में अधिक प्रतीत होता है। अप्सराओं के साहचर्य में सूर्य का अंकन मूर्तिविज्ञान की प्रचलित परंपराओं के अनुकूल न होने के कारण मूर्ति विशेष महत्व की है।


ईसवाल

ईसवाल का मंदिर उदयपुर से लगभग ५६कि.मी. की दूरी पर है। यहाँ से प्राप्त संवत् ११६१ तथा संवत् १२४२ के दो अभिलेखों के आधार पर इसका निर्माण काल ११वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निर्मित निर्धारित किया गया है। संवत् १२४२ का अभिलेख, जो संभवतः मंदिर के जीर्णोद्धार अथवा प्रतिमा स्थापन के समय लगायी गई होगी। यह इंगित करती है कि यह अभिलेख गुहिल शासक मथनसिंह का है तथा मंदिर के अधिष्ठातादेव 'वोहिगस्वामी' है।

मंदिर पूर्ण पंचायत मंदिर का उद्धरण प्रस्तुत करता है। गर्भगृह में विष्णु की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। जिसके चारों ओर चारों दिशाओं में क्रमशः गणेश, शक्ति, सूर्य तथा शिव के गौण मंदिर हैं। इन मूर्तियों में सौर पूजा के वैष्णव पूजा में समावेश के स्पष्ट चिंह दिखाई पड़ते हैं। गर्भगृह के पृष्ठभाग की प्रमुख ताख में सूर्य एवं विष्णु का संयुक्त विग्रह उत्कीर्ण है, जो विष्णु पूजा में सौर पूजा के समावेश को दर्शाता है।

सोमवार, 22 जून 2009

हुंडी तथा टीप प्रथा Bill and pointing system in mewar


व्यापार में लेन- देन का आधार मुद्रा तथा वस्तुओं का विनिमय था। इसके स्थान पर हुंडी और टीप द्वारा भी व्यापारिक सौदे किये जाते थे। १८ वीं शताब्दी में ऐसी हुंडिया राज्य की जमानत पर भुगतान की जाती थी। मराठा अतिक्रमण काल में तो राज्य की देनदारियों को हुंडियों के द्वारा चुकाया जाता रहा था। कई संपन्न व्यक्ति हुंडी का रुपया राज्य और व्यक्ति की जमीन - जायदाद गिरवी रखकर भुगतान करते थे।

इसी प्रकार राज्य के आंतरिक लेन- देन में "टीप' पर रुपया लिया और दिया जाता था। प्रायः स्थानीय सेठ- साहूकार, राज्य की दुकानों व मंदिर के धर्मार्थकारियों के पास रुपया जमा करने तथा निकालने की व्यवस्था प्रचलित थी। जमाकर्ता ऐसी जमा की टीप लिख देता था। टीपों में रकम के प्रयोजन की चर्चा रहती थी।

मेवाड़ में व्यापार के प्रमुख केन्द्र Mewar in major business centers


गाँवों में व्यापार का काम साप्ताहिक (साती ) अथवा मासिक (मासी ) हटवाड़ (बाजार ) लगा कर किया जाता था। ऐसे हटवाड़ प्रत्येक १०- १२ गाँवों के मध्य लगाये जाते थे। राज्य के आंतरिक व्यापार के प्रमुख केन्द्र उदयपुर, भीलवाड़ा, राशमी, समवाड़, कपासन, जहाजपुर तथा छोटी सादड़ी थे। अंतर्राज्यीय व्यापार के लिए मेवाड़ के वणिक- गण समुह बना कर क्रय- विक्रय हेतु दुरस्थ प्रदेशों में जाते थे। ये व्यापारिक यात्राएँ सर्दी के बाद प्रारंभ हो जाती थी तथा वर्षाकाल से पूर्व समाप्त हो जाती थी।

व्यापारिक यातायात- व्यवस्था

आलोच्यकाल में व्यापारिक यातायात का मुख्य साधन कच्चे व पथरीले मार्ग रहे थे। इन्हीं मार्गों से बनजारे बैलों व भैंसों द्वारा, गाडुलिया लुहार बैलगाड़ियों से, रेबारी लोग ऊँटों द्वारा, कुम्हार तथा ओड़ लोग खच्चर व गधों पर माल लाने- ले जाने का काम करते थे। वैसे स्थान जहाँ पशुओं द्वारा ढ़�लाई संभव नहीं थी, माल आदमी की पीठ पर लाद कर लाया जाता था। लंबी दूरी पर माल- ढ़�लाई का कार्य चारण, बनजारा तथा गाड़ूलिया लुहार, जैसे लड़ाकू - बहादुर जाति के लोग संपन्न करते थे। चारण जाति को समाज में ब्राह्मण - तुल्य स्थान प्राप्त था, अतः इनके काफिलों का लूटना पाप माना जाता था। व्यापारिक काफिले, जो बैलों के झुण्ड पर माल लाद कर चलते थे, बालद (टांडा ) कहलाते थे। एक बालद में एक से एक हजार तक बैल हो सकते थे। ऊँटों का काफिला एक दिन में करीब २२ मील की दूरी तय करता था, वहीं घोड़े से ५० मील तक की यात्रा की जा सकती थी। बैलगाड़ी, गधे, ,खच्चर आदि एक दिन में २५- ३० मील की दूरी तय कर लेते थे।

यात्रा के दौरान रात्रि को मार्ग पर स्थित गाँवों, धर्मशालाओं, धार्मिक स्थलों या छायादार वृक्षों के आस- पास विश्राम किया जाता था, जहाँ पानी के लिए कुँए बावड़ियों की व्यवस्था होती थी। मार्ग स्थित सभी बावड़ियों के किनारे पशु के पेय हेतु प्याउएँ बनी होती थी।

१८ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यात्रियों व व्यापारियों को सुरक्षार्थ संबद्ध जागीरदारों का रखवाली एवं बोलाई नामक राहदरी (मार्ग- शुल्क ) देना पड़ता था। वैसे तो ब्रिटिश संरक्षण काल में इन शुल्कों को समाप्त कर दिया गया, फिर भी जागीरदारों इन अधिकारों का अनधिकृत प्रयोग करते थे। मराठा अतिक्रमण काल में मार्ग का सुरक्षित यात्रा बीमा तथा प्रति बैल के हिसाब से व्यापारिक माल बीमा देना पड़ता था। वर्षा के दिनों में मार्ग अवरुद्ध हो जाने की स्थिति में कीर नामक जाति के लोग "उतराई' शुल्क लेकर लोगों को सुरक्षित नदी पार कराती थी।

अभिजात्य तथा संपन्न वर्ग के लोग पालकियों व बग्गियों पर यात्रा करते थे।

चुंगी व्यवस्था

व्यापारिक माल की आमद (आयात ) और निकास (निर्यात ) पर व्यापारियों को दाण, बिस्वा एवं मापा नामक शुल्क राज्य को देना पड़ता था। एक गाँव से दूसरे गाँव माल ले जाने के लिए ग्राम- पंचायतों को ""माना' चुकाना पड़ता था। दाण व बिस्वा के अधिकार प्रायः राणा के पास होता था, लेकिन १८ वीं सदी में विशिष्ट सैन्य- योग्यता प्रदर्शित करने वाले क्षत्रियों को भी दाण लेने के अधिकार प्रदान किये गये थे। इन अधिकारों का सन् १८१८ ई. के बाद केंद्रीकरण करने की व्यवस्था की गई, जो राणा स्वरुप सिंह तक चली भी। फिर से ठेके की सायर (चुंगी ) व्यवस्था तोड़कर स्थान- स्थान पर राज्य के दाणी- चोंतरे बनाये गये।

रेल की सुविधा आ जाने के बाद प्रत्येक स्टेशनों पर दाणी - घर बनाये गये। दाणी व हरकारे नियुक्त किये गये। यहाँ से माल उतारने व माल चढ़ाने की चुंगी ली जाती थी। पहले चुगी नगों की गिनती, अनाज की तोल व पशु गणना के आधार पर ली जाती थी। बाद में २० वीं सदी के पूर्वार्द्ध में शुल्क लिया जाने लगा। आयात शुल्क निर्यात शुल्क से अधिक लिया जाता था। पूण्यार्थ धर्मार्थ वस्तुओं, लड़की के विवाह व मृत्युभोज की वस्तुओं पर चुंगी नहीं ली जाती थी।

मेवाड़ की वाणिज्य- व्यवस्था Mewar of Commerce - the system


वाणिज्य- व्यवस्था से वणिक- समूह प्रत्यक्ष रुप से जुड़ा था। व्यवसाय की दृष्टि से वणिकों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है -

१. ग्राम्य वणिक
२. नगर वणिक तथा
३. बोहरा या साहूकार

साहूकार तथा अन्य संपन्न द्विज जाति के व्यक्ति ग्राम्य- वणिक तथा नगर- वणिक के मध्य की कड़ी होते थे। वे गाँवों में उधार लेन- देन तथा माल क्रय- विक्रय का कार्य करने थे तथा साथ - ही - साथ नगर- वाणिज्य की आवश्यकतानुसार ग्राम्य- भंडार से माल को मंडी में थोक से विक्रय करते थे। इस प्रकार दोहरा व्यापारी ग्रामीण प्रजा के लिए बैंक तथा मंडी माल के मुख्य संग्रहकर्त्ता एवं वितरक का कार्य करते थे। कुछ सौदे बोहरों के बिना, प्रत्यक्ष भी किये जाते थे। माल संग्रह प्रायः कृषक अथवा ग्राम- भंडार में ही रखा जाता था तथा आवश्यकतानुसार मंगवाया जाता था। इससे दलाली के ४ से ६ ऽ तक की बचत होती थी।

अच्छी स्थिति वाले कृषक तथा जागीरदार अथवा उपज सीधे मंडियों में बेचते थे। राज्य द्वारा दलालों को दलाली- पट्टे दिये जाते थे। दलाली का वार्षिक शुल्क आमदनी के अनुपात में लिया जाता था। शुल्कों को संग्रह करने का वार्षिक ठेका प्रत्येक वाणिज्य- व्यापार समूह के प्रमुख आढ़तिया को प्रदान कर दिया जाता था। बिना राज्याज्ञा का कोई व्यक्ति दलाली नहीं कर सकता था। राज्य की तरफ से सहणा और ढ़ाणी मंडी में राज्यहितों का ध्यान रखते थे। पट्टा पद्धति द्वारा राज्य के क्षेत्रीय वाणिज्य- व्यापार पर प्रत्यक्ष नियंत्रण रहता था। व्यापारी मनमाने भाव नहीं बढ़ा सकते थे। माल की कमी हो जाने पर माल की आपूर्ति राज्य द्वारा राज्य भंडार से की जाती थी या फिर बाहर से राज्य की जमानत पर मंगवाया जाता था।

मेवाड़ राज्य में विकसित उद्योग - धंधे Mewar developed industry in the state - business


मेवाड़ राज्य में जन- जीवन में ज्यादातर कुटीर ग्रामोद्योग का प्रचलन था। इन उद्योगों का विस्तार आत्मनिर्भर आर्थिक- व्यवस्था के अनुरुप राज्य की माँग तथा पूर्ति तक सीमित था। ज्यादातर उद्योग- धंधे जाति समाज की जातियों व वंशानुगत स्थितियों पर आधारित थे। जातिगत उद्योगों में कार्यरत शिल्पियों के दो स्तर थे -

क. ग्राम्य शिल्पी
ख. नगर शिल्पी

ग्राम्य शिल्पी कृषि तथा ग्राम्य- जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्य करते थे। इनका आर्थिक जीवन कृषि- आश्रित रहता था। वे अर्द्ध- कृषक हो सकते थे। नगर शिल्पी कुशल शिल्पी की श्रेणी में आते थे। उन्हें दो श्रेणियों में बाँटा गया है -

नगर शिल्पी -- श्रमिक शिल्पी

-- व्यवसायी शिल्पी

श्रमिक शिल्पियों में भवन- निर्माण करने वाले मिस्री व अन्य कारीगर, कपड़ों की सिलाई करने वाले महिदाज, रेजा बुनने वाले बलाई, कपड़ा रंगने वाले रंगरेज, कागज बनाने वाले कागदी, सोना- चाँदी के बरक बनाने वाले, कपड़ो की छपाई करने वाले छीपा, बर्तन गढ़ने वाले कसारा इत्यादि जाति के लोग प्रमुख है। सुनार, लुहार, सुथार, कुम्हार, दर्जी, जीणगर, सिकलीगर, अंतार- गंधी, उस्ता, पटवा, कलाल आदि जातियाँ व्यवसायी शिल्पियों के वर्ग में आते थे।

मेवाड़ राज्य के प्रमुख उद्योग निम्न थे -

१. वस्र उद्योग

प्रत्येक गाँव में चर्खे द्वारा सूत कातने तथा मोटे सूती कपड़े (रेजा ) की बुनाई का काम किया जाता था। एक कहावत के अनुसार -

मोटो खाणों, मोटो पेरणों अर छोटो रेहणों

अर्थात आदर्शवान नम्र व्यक्ति मोटे अनाज (मक्की- धान आदि ) खाते है तथा रेजा पहनते है।

मेवाड़ राज्य के मध्य एवं पूर्वी दक्षिणी भाग में कपास का उत्पादन होने के कारण यह क्षेत्र रेजाकारी का प्रमुख केंद्र था। मुस्लिम जाति के जुलाहे बारीक कपड़े की बुनाई का काम करते थे, लेकिन इन वस्रों का प्रचलन मात्र अभिजात व कुलीन वर्ग में ही होने के कारण मोटे रेजा उद्योग जैसा प्रचलित नहीं हो पाया। वस्र- निर्माण, रंगाई, छपाई व कढ़ाई का काम मुस्लिम जाति के रंगरेजों, छिपाओं तथा हिंदूओं में पटवा लोगों द्वारा किया जाता था। छपाई में लकड़ी के ब्लाकों का प्रयोग होता था, जिसका निर्माण शिल्पी- सुथार करते थे। गोटे- किनारी के व्यवसाय पर पारख जाति के ब्राह्मणों का एकाधिकार था।

२. काष्ठ- उद्योग

मेवाड़ राज्य की तिहाई भूमि वनाच्छादित थी। सीसम, सागवान, आम, बबूल व बाँस के वृक्ष बहुतायत में थे। लकड़ियों का प्रयोग विशेष रुप से कृषि- उपकरण, भवन तथा बरतन बनाने में होता था। लकड़ी में खुदाई व नक्काशी का काम सुथार लोग करते थे।

३. लुहारी व चर्मकारी उद्योग

ग्राम्य लुहार, चमार व गाडूलिया- लुहार (एक घुमक्कड़ व्यवसायी जाति ) कृषि के लिए लौह- उपकरणों, जैसे हल, कुदाल, नीराई- गुड़ाई करने की खाप, चड़स आदि तथा घरेलू- सामानों (चिमटा, दंतुली, सांकल, चाकू आदि) बनाने का कार्य करती थी। नगरों में यह काम सिकलीबर, जीणगर व मोची द्वारा किया जाता था।

४. बर्तन - उद्योग

जन- साधारण की स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मिट्टी के बर्तन बनाये जाते थे। बांस की सुलभता के कारण बांस के बर्त्तनों का भी प्रचलन था। बांस का कार्य गांछी तथा हरिजन जाति के लोग करते थे। वे टोकरियाँ, छाब, कुंडया, टाटा आदि बनाने का कार्य करते थे। तांबा, पीतल तथा कांसा के मिश्रित बर्त्तनों का निर्माण कार्य कसारा जाति के लोग करते थे। उदयपुर में पीतल, तांबा आदि के साथ- साथ सोनियों द्वारा सोने- चाँदी के बरतन भी बनाने के कारोबार किया जाता था।

५. आभूषण उद्योग

कलात्मक आभूषण बनाने तथा जड़ाई करने का कार्य सोनी तथा जड़िया जाति के लोग करते थे। वे तलवारों व कटारियों की मूठों पर भी जड़ाई व खुदाई का काम करते थे। मीनाकारी का काम विशेष रुप से नाथद्वारा में होता था।

६. अन्य उद्योग

उपरोक्त उद्योगों के अलावा यहाँ मूर्ति एवं चित्रकारी, चूड़ी, इत्र, कागज व शराब बनाने के उद्योग विकसित थे। चतारा उद्योग का व्यापक प्रचलन विभिन्न ठिकानों, हवेलियाँ व लोक- शिल्प के रुप में सभी घरों में था। वैसे तो कागज का गुजरात से आयात किया जाता था, लेकित मेवाड़ में भी घास की गुदा, मांस, कपड़ों को सड़ाकर लेप तैयार कर मोटा कागज बनाने का प्रचलन था। बनाने वाले "कागदी' कहलाते थे। बारुद सोनगरों द्वारा तैयार किये जाते थे। क्रलाल जाति के लोग महुआ, केशव व गुलाल से शराब बनाते थे।

राजमहलों में कई कारखाने काम करते थे। वहाँ शिल्पियों को शासन द्वारा बेगार में अथवा वेतन- मजदूरी पर काम करना होता था। यहाँ मुख्यतः पत्थर - नक्काशी, मूर्ति शिल्प, चित्रकारी, वस्र- सिलाई, आभूषण- जड़ाई, डोली, स्वर्णकारी, औषधि व नाव आदि बनाने का काम होता था। कारखाने के उत्पादों का प्रयोग राज्य के मर्दाना महल तथा जनाना महल में रहने वाले लोग करते थे।

मेवाड़ राज्य के उद्योग- धंधे

वस्तु का नाम संबद्ध निर्माण- स्थल
दुपट्टा एवं छींट के वस्र हम्मीरगढ़
रेजा की जाजम व पछेवड़ा,
वस्र-बंधाई, रंगाई व छपाई
चित्तौड़, अकोला, उदयपुर
पगड़ियां, मोठड़े, चूंदड़ियाँ व लहरियों की छपाई व रंगाई उदयपुर
बहुमूल्य कपड़ों पर सोने चांदी के तार तथा रेशम के धागों द्वारा कढ़ाई उदयपुर
कपास तथा ऊन ओटने का कारखाना भीलवाड़ा
लकड़ी के कलात्मक खिलौने व चुड़ियाँ उदयपुर, भीलवाड़ा, जहाजपुर, शाहपुर
पावड़ा पर पॉलिश भीलवाड़ा, जहाजपुर, शाहपुर
भवन- निर्माण में उपयुक्त कलात्मक काष्ठ - निर्मित वस्तुएँ सलूम्बर, कुरबड़, भीण्डर
तलवार, खंजर- छूरी, कटारी, भाले ढ़ाल, हाथी, घोड़े तथा ऊँटों की जीण या काठी उदयपुर
मिट्टी के कलात्मक बर्त्तन कुँआरिया, उदयपुर तथा कपासन
लौह- निर्मित हमामदस्ता व तगारियाँ विगोद
ताँबा, पीतल व कांसा आदि धातुओं के बरतन भीलवाड़ा, उदयपुर
सोने- चाँदी के बरतन उदयपुर
आभूषण निर्माण व नगीना- जड़ाई उदयपुर
मीनाकारी नाथद्वारा
हाथीदाँत, लाख व नारियल की चूड़ियाँ उदयपुर, भीलवाड़ा
मोमबत्ती कोठारिया
गुलाबजल व गुलाब का इत्र खमनोर
कंबल देवगढ़
हरे घीया पत्थर की मूर्तियाँ ॠषभदेव
भीत्तिचित्र व कलमकारी उद्योग नाथद्वारा, उदयपुर
मोटा कागज उद्योग घुसुन्डा
बारुद केवला, चित्तौड़ व पुर
देशी साबुन उदयपुर, भीण्डर

मेवाड़ में संचार- व्यवस्था : बामणी - डाक Mewar in communication - system: Bamni - email


मेवाड़ राज्य में आज की तरह सुसंगठित संचार व्यवस्था नहीं थी। जन- साधारण में जातियों के अपने-अपने नाई, सेवक, चारण या भाट ही पारिवारिक संदेशों का आदान- प्रदान करते थे। ऐसी संदेश- प्रक्रिया प्रायः मौखिक होती थी। राज्य कार्य के लिए पैदल (दौड़ायत), ऊँट सवार, सांड़ीवार तथा घुड़सवार रखे जाते थे। वे राज- काज से संबद्ध सूचना वार्ताओं को प्रायः मौखिक रुप से ही इधर- उधर पहुँचाते थे। मौखिक संदेश- प्रक्रिया का कारण संभवतः उस समय का संशयात्मक राजनीतिक वातावरण था। व्यापारिक पत्र माल वाहनों अथवा यात्रियों के साथ भेजे जाते थे।

१९ वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक इसी रुढिगत व्यवस्था का प्रयोग किया गया। इस के बाद सूचना संचार के लिए बग्गियाँ काम में भी जाने लगी। अब लिखित सूचना का प्रचलन शुरु हो गया था। किंतु जनसाधारण में अभी भी सूचना- विनिमय की कोई राज्य आधारित व्यवस्था नहीं थी। यह व्यवस्था राणा स्वरुपसिंह के शासन से आरंभ हुई, जो नियमित राजकीय डाक लाने ले जाने का कार्य करती थी। यह व्यवस्था "बामणी- डाक व्यवस्था' के नाम से जानी जाती थी।

बामणी डाक व्यवस्था संभवतः बंगाल के हरकारा- डाक व्यवस्था से प्रभावित थी। इस व्यवस्था में ब्राम्हण जाति के लोगों को वार्षिक ठेके के आधार पर डाक संबंधी उत्तरदायित्व प्रदान किया गया था। ब्राह्मण वर्ग के प्रति लोगों का आदर व दया मान था। साथ- ही- साथ चूँकि ब्राह्मण को मारना या लूटना पाप- कर्म माना जाता था, अतः पैसे व पत्र ज्यादा सुरक्षित रहते थे। ठेके में हानि होने की स्थिति में राज्य द्वारा आर्थिक- अनुदान कर क्षतिपूर्ति किया जाता था। ठेका लेने वाले व्यक्ति को डाक- व्यवस्था बनाये रखने के लिए हरकारे रखने पड़ते थे, जिनका मासिक वेतन निश्चित किया जाता था। १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यह प्रति माह ४ रुपया था। इस डाक- व्यवस्था को जन- साधारण के उपयोग हेतु राणा शंभूसिंह के शासन- काल में खोला गया। जन- साधारण को प्रति पत्र की कीमत के आधार पर एक निश्चित लागत चुकानी पड़ती थी। मेवाड़ राज्य के अंदर पत्रों के आदान- प्रदान की लागत निश्चित थी, किंतु बाहर भेजी जाने वाली डाक पर अलग से प्रति कोस के हिसाब से पैसा लिया जाता था।

२० वीं शताब्दी के एक दशक तक वामणी डाक नियमित रुप से प्रत्येक परगने के मुख्यालय तक जाती थी। अलग से कोई डाक- कार्यालय नहीं था। ठेकेदार का घर तथा हरकारे स्वयं डाक- घर का कार्य करते थे। सन् १८६५ ई. में आंग्ल सरकार ने डाक- घर स्थापित किया। इसके साथ ही नसीराबाद, खेरवाड़ा, कोटड़ा व छावनी पर छावनी के छाक- घर खुले। इनका प्रयोग ब्रिटिश भारत सरकार, एजेंटों एवं राज्य के कर्मचारियों के समाचारों का आदान- प्रदान करना था। रेलवे के विकास के बारे में जन- साधारण के प्रयोग के लिए प्रत्येक रेलवे- स्टेशन पर प्रशासन ने एक- एक डाक घर तथा तार- घर खोल दिया। १९ वीं सदी के अंत तक जन- साधारण की सूचना नियमित तथा व्यवस्थित रुप से आने- जाने लगी थी।

मेवाड़ में माप- तौल का प्रचलन Mewar in size - weighing the trend


मेवाड़ राज्य में परंपरागत परिमापन- प्रणाली का प्रचलन था। गहराई मापने के लिए साधारणतः व्यक्ति के अंगुल, घुटने, आदमी की लंबाई, हाथी की ऊँचाई आदि की अनुमानित प्रणाली प्रयोग में लायी जाती थी। इनसे जुड़े प्रचलित सूत्र इस प्रकार थे--

१ अंगुल = ३ बिस्वा
५ अंगुल
= १ बालिस्त
५ बालिस्त
= १ घोड़ा
२ घोड़ा
= १ आदमी
२ आदमी
= १ हाथी
२८ अंगुल
= १ हाथ
२८ हाथ
= १ डोरी
५० डोरी
= १ कोस (२ मील)

२० वीं सदी में भू- बंदोबस्त में प्रचलित भू- माप के अनुसार १ डोरी का अलग- अलग नाम प्रचलित था। खालसा में १३२ फुट, जागीर में ५२ १/२ फुट तथा माफी में १६२ १/२ फुट का माप प्रचलित था। इसके अतिरिक्त बीघा से इसका संबंध इस प्रकार था--

२० बिस्वांसी = १ बिस्वा
२० बिस्वा
= १ डोरी
१ हल
= ५० बीघा

दूरी मापने की छोटी इकाई "पावण्डा' थी। पावण्डा व अंगुल का अंतर स्पष्ट रुप से ज्ञात नहीं है।

सूक्ष्म या बहुमूल्य एवं औषधियों को तोलने के लिए मूँग, रत्ति, माशा व तोले का प्रचलन था। इनका अंकन इस संबंधों के आधार पर किया जाता था--

५ मूँग = १ रत्ति
८ रत्ति
= १ माशा
१२ माशा
= १ तोला
८० तोला
= १ छटाक पक्का बंगाली
१०० तोला
= १ छटांक कच्चा

पक्के तोल का अर्थ ब्रिटिश भारत सरकार का मानक था तथा कच्चा तोल मेवाड़ राज्य की मानक तोल को कहा जाता था। इसके पूर्व कच्चा सेर ५४ रुपया चित्तौड़ी तथा पक्का १०८ रुपये चित्तौड़ी से आंका जाता था।

भारी वजन तौलने के लिए कच्चे तोल के अनुसार इन परिमापनों का प्रयोग किया जाता था --

२० छटांक कच्चा = १ पाव = १०० तोला
(१६ छटांक बंगाली
= १ पाव = ८० तोला)
२ पाव
= एक अधसेर
२ अधसेर
= १ सेर
५ सेर
= १ धड़ी (ताकड़ी)
४ धरी
= १ मन कच्चा
१२ मन
= १ माणी
५० सेर
= १ मन
(४० सेर पक्का) = १ मन

मेवाड़ में मुद्रा का प्रचलन Mewar in currency exchange



राजस्थान के अन्य राज्यों की तरह मेवाड़ में भी सिक्के प्रचलन में थे, लेकिन आर्थिक जीवन में सारे लेन- देन सिक्कों के माध्यम से ही नहीं किये जाते थे। दो राज्यों के बीच वाणिज्य व्यापार में नि:संदेह सिक्कों का ही इस्तेमाल होता था, लेकिन साथ- साथ कई स्थितियों में वस्तु- विनिमय से भी काम चला लिया जाता था। राज्य कर्मचारियों सेवकों तथा दासों को वेतन के रुप में अधिकतर कृषि योग्य भूमि, कपड़े तथा अन्य वस्तुएँ दी जाती थी। साथ- साथ नाम मात्र की ही संख्या में सिक्के दिये जाते थे। आंतरिक व्यापार में मुद्राओं के साथ- साथ १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक कौड़ियों का भी प्रचलन रहा। कौड़ियों से जुड़ी गणनाओं में एक है-

२० भाग = १ कौड़ी
२० कौड़ी = आधा दाम
२ आधा दाम = १ रुपया

सर जॉन माल्कन के अनुसार

४ कौड़ी = १ गण्डा
३ गण्डा = १ दमड़ी
२ दमड़ी = १ छदाम
२ छदाम = १ रुपया (अधेला)
४ छदाम = १ रुपया = ९६ कौड़ी

१८ वीं सदी के पूर्व यहाँ मुगल शासको के नाम वाली "सिक्का एलची' का प्रचलन था, लेकिन औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य का प्रभाव कम हो जाने के कारण अन्य राज्यों की तरह मेवाड़ में भी राज्य के सिक्के ढ़लने लगे। १७७४ ई. में उदयपुर में एक अन्य टकसाल खोली गई। इसी प्रकार भीलवाड़ा की टकसाल १७ वीं शताब्दी के पूर्व से ही स्थानीय वाणिज्य- व्यापार के लिए "भीलवाड़ी सिक्के' ढ़ालती थी। बाद में चित्तौड़गढ़, उदयपुर तथा भीलवाड़ा तीनों स्थानों के टकसालों पर शाहआलम (द्वितीय) का नाम खुदा होता था। अतः यह "आलमशाही' सिक्कों के रुप में प्रसिद्ध हुआ। राणा संग्रामसिंह द्वितीय के काल से इन सिक्कों के स्थान पर कम चाँदी के मेवाड़ी सिक्के का प्रचलन शुरु हो गया। ये सिक्के चित्तौड़ी और उदयपुरी सिक्के कहे गये। आलमशाही सिक्के की कीमत अधिक थी।

१०० आलमशाही सिक्के = १२५ चित्तौड़ी सिक्के

उदयपुरी सिक्के की कीमत चित्तौड़ी से भी कम थी। आंतरिक अशांति, अकाल और मराठा अतिक्रमण के कारण राणा अरिसिंह के काल में चाँदी का उत्पादन कम हो गया। आयात रुक गये। वैसी स्थिति में राज्य- कोषागार में संग्रहित चाँदी से नये सिक्के ढ़ाले गये, जो अरसीशाही सिक्के के नाम से जाने गये। इनका मूल्य था--

१ अरसी शाही सिक्का = १ चित्तौड़ी सिक्का = १ रुपया ४ आना ६ पैसा।

राणा भीम सिंह के काल में मराठे अपनी बकाया राशियों का मूल्य- निर्धारण सालीमशाही सिक्कों के आधार पर करने लगे थे। इनका मूल्य था ---

सालीमशाही १ रुपया = चित्तौड़ी १ रुपया ८ आना

आर्थिक कठिनाई के समाधान के लिए सालीमशाही मूल्य के बराबर मूल्य वाले सिक्के का प्रचलन किया गया, जिन्हें "चांदोड़ी- सिक्के' के रुप में जाना जाता है। उपरोक्त सभी सिक्के चाँदी, तांबा तथा अन्य धातुओं की निश्चित मात्रा को मिलाकर बनाये जाते थे। अनुपात में चाँदी की मात्रा तांबे से बहुत ज्यादा होती थी।

इन सिक्कों के अतिरिक्त त्रिशूलिया, ढ़ीगला तथा भीलाड़ी तोबे के सिक्के भी प्रचलित हुए। १८०५ -१८७० के बीच सलूम्बर जागीर द्वारा "पद्मशाही' ढ़ीगला सिक्का चलाया गया, वहीं भीण्डर जागीर में महाराजा जोरावरसिंह ने "भीण्डरिया' चलाया। इन सिक्कों की मान्यता जागीर लेन- देन तक ही सीमित थी। मराठा- अतिक्रमण काल के "मेहता' प्रधान ने "मेहताशाही' मुद्रा चलाया, जो बड़ी सीमित संख्या में मिलते हैं।

राणा स्वरुप सिंह ने वैज्ञानिक सिक्का ढ़लवाने का प्रयत्न किया। ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के बाद नये रुप में स्वरुपशाही स्वर्ण व रजत मुद्राएँ ढ़ाली जाने लगी। जिनका वजन क्रमशः ११६ ग्रेन व १६८ ग्रेन था। १६९ ग्रेन शुद्ध सोने की मुद्रा का उपयोग राज्य- कोष की जमा - पूँजी के रुप में तथा कई शुभ- कार्यों के रुप में होता था। पुनः राज्य कोष में जमा मूल्य की राशि के बराबर चाँदी के सिक्के जारी कर दिये जाते थे। इसी समय में ब्रिटिशों का अनुसरण करते हुए आना, दो आना व आठ आना, जैसे छोटे सिक्के ढ़ाले जाने लगे, जिससे हिसाब- किताब बहुत ही सुविधाजनक हो गया। रुपये- पैसों को चार भागों में बाँटा गया पाव (१/२), आधा (१/२), पूण (१/३) तथा पूरा (१) सांकेतिक अर्थ में इन्हें ।, ।।, ।।। तथा १ लिखा जाता था। पूर्ण इकाई के पश्चात् अंश इकाई लिखने के लिए नाप में s चिन्ह का तथा रुपये - पैसे में o ) चिन्ह का प्रयोग होता था।

ब्रिटिश भारत सरकार के सिक्कों को भी राज्य में वैधानिक मान्यता थी। इन सिक्कों को कल्दार कहा जाता था। मेवाड़ी सिक्कों से इसके मूल्यांतर को बट्टा कहा जाता था। चांदी की मात्रा का निर्धारण इसी बट्टे के आधार पर होता था। उदयपुरी २.५ रुपया को २ रुपये कल्दार के रुप में माना जाता था। १९२८ ई. में नवीन सिक्कों के प्रचलन के बाद तत्कालीन राणा भूपालसिंह ने राज्य में प्रचलित इन प्राचीन सिक्कों के प्रयोग को बंद करवा दिया।

इस प्रकार हम पाते हैं कि यहाँ की आर्थिक व्यवस्था, वस्तु- विनिमय की परंपरा तथा जन- जीवन पर ग्रामीण वातावरण के प्रभाव ने मुद्रा की आवश्यकता को सीमित रखा। वैसे १९ वीं सदी उत्तरार्द्ध में सड़क निर्माण, रेल लाइन निर्माण व राजकीय भवन निर्माण तथा राज का परिमापन मुद्रा में होने लगा था, फिर भी अधिकतर- चुकारा एवं वसूली जीन्सों में ही प्रचलित थी। धातुओं से निर्मित इन मुद्राओं के साथ एक समस्या यह भी थी कि संकटकाल में इन मुद्राओं को ही गलाकर शुद्ध धातु को बेचकर लाभ कमाने की कोशिश की जा रही थी। राज्य में महाराणाओं द्वारा वैज्ञानिक सिक्के के प्रचलन में विशेष रुचि नहीं रहने के कारण शान्तिकाल में भी राज्य- कोषागार समृद्ध नहीं रहा, दूसरी तरह भू- उत्पादन द्वारा राज्य- भंडार समृद्ध रहे।

मेवाड़ वासियों का दैनिक जीवन Mewar people's daily life



ग्राम- बस्तियों का दैनिक जीवन प्रातः ३ बजे से प्रारंभ हो जाता था। दैनिक नित्य"- कर्म से निवृत होने के बाद स्रियाँ आटा पीसने बैठ जाती थी। प्रायः प्रतिदिन दैनिक उपभोग के हिसाब से एक- दो सेन अनाज पीसा जाता था। इसके बाद वे कुँए से पानी लाने का काम करती थी। दूसरी तरफ कृषक लोग उषा- बेला में ही हल, बैल व अन्य मवेशियों को लेकर खेत चल देते थे। दिन भर काम करने के बाद सायंकाल ५-६ बजे घर आते थे। स्रियाँ प्रातः कालीन गृह- कार्य से निवृत्त होकर पुरुषों का हाथ बँटाने के लिए खेत से घर पहुँच जाती थी। साथ में दिन का भोजन भी ले जाती थी। जो प्रायः राब या छाछ, जब या मक्की की रोटी और चटनी- भाजी होती थी। वृद्धाएँ घर में बच्चों की देखभाल करती थीं। बच्चे बड़े होकर गोचरी का कार्य करते थे। सायंकाल में किसान इंधन तथा पशुओं के चारे के साथ घर लौटते थे। साल में खेती के व्यस्ततम दिनों में फसल की पाणत (सिचाई) के लिए रात को भी खेत में रहना पड़ता था। उसी तरह पके हुए फसलों की सुरक्षा के लिए भी किसान खेतों में बनी डागलियों में रात बिताते थे। फसल कटाई के लिए पूरा परिवार खेत में जुट जाता था।

वही व्यावसायिक जातियाँ अपना पूरा दिन कर्मशालाओं में बिताते थे। वहीं वे दिन का भोजन करते थे। शाम में लौटकर भोजन के बाद लोग पारस्परिक बैठक, खेलकूद, किस्से कहानियों, भजन- कीर्त्तन व ग्राम्य स्थिति की चर्चा के माध्यम से आमोद- प्रमोद करते थे। सर्दियों में लोग अलाव के चारों तरफ लंबी बैठकियाँ करते थे।

ग्राम्य- नगरों का जीवन वैसे तो ग्राम्य- जीवन के प्रभाव से मुक्त नहीं था, लेकिन लोगों के पास साधन होने की स्थिति में वे "भगतणों' का नृत्य देखने, मुजरे सुनने, दरबारी क्रिया- कलापों में सेवकाई करने, भजन- कीर्त्तन तथा दरबार- यात्राओं की जय- जय करने में व्यस्त रहते थे। दैनिक गोठ (मित्र भोग), अमल- पानी, भांग, गांजा, शराब आदि का व्यसन कुलीन वर्ग के दैनिक जीवन का हिस्सा था।

मेवाड़ की ग्राम तथा बस्तियों में गृह- सज्जा एवं सामान Village settlements in the House of Mewar, and - the goods and equipment



गृह- सज्जा तथा घरेलू सामान मेवाड़ी समाज की आर्थिक विषमता से प्रभावित थे। जहाँ गाँव के साधारण किसान व दस्तकारों की आय सीमित थी, वहीं ग्राम्य नगरों में रहने वाले अभिजात्य वर्ग के लोग शहरी चमक- दमक से प्रभावित थे। उनके उपभोग की वस्तुएँ भी विलासितापूर्ण होती थी। तुलनात्मक दृष्टि से मकानों की साज- सज्जा तथा उपयोगी सामानों के मामले में वृहत्त- ग्राम व ग्राम्य- नगर की स्थिति ग्राम्य- घरों से बहुत अच्छी थी।

गाँवों के कृषक तथा दस्तकार ओढ़ने बिछाने के लिए घास की पयाल तथा चिथड़ों की गुदड़ी का प्रयोग करते थे। घरेलू साज- सामानों में पत्थर- मिट्टी और बाँस- लकड़ी का प्रयोग प्रचुरता से किया जाता था। सोने में खाटेले (ऊँची चारपाई) का उपयोग बहुत प्रचलित था। उनके खाना बनाने व पानी भरने के बर्तन काँसे व मिट्टी के होते थे। प्रत्येक घर में आटा के लिए पत्थर की चक्की, मसाला पीसने के लिए खरल, धान कूटने के लिए ओखली- मूसल, अनाजों की सफाई के लिए सूप, रोटी रखने के लिए चाचरी, लकड़ी की परात और पेटी, दीपक टांगने के लिए आकाश्मा तथा मिट्टी का चुल्हा होता था। थाली, कटोरे व परात पत्थर के भी बनाये जाते थे। बाँस का उपयोग टोकरियाँ, पिटारे व कर्जिंन्डयों का प्रयोग होता था। सामान लाने- ले जाने में कोथलियों का प्रयोग होता था।

ग्राम्य- नगर के बस्ती- घरों में भी मिट्टी व लकड़ी की बनी वस्तुओं का प्रयोग किया जाता था, लेकित संपन्न वर्ग सोने, चाँदी, पीतल व तांबे के बरतनों का प्रयोग करते थे। वे शयनकक्ष में रेशम के गद्दे व तकिये तथा बैठक में गादी- मोड़े का भी उपयोग करते थे। सज्जा के लिए कमरों में साटन के पर्दे, काँच, कालीन, हिण्डोले, मेज- कुर्सियों, फूलदार, मोमबत्तियों, शमादान, आवनूस तथा सागवान काष्ठ के बने सामानों का प्रयोग होता था।

मेवाड़ की सामुदायिक व्यवस्था Mewar of Community law



मेवाड़ में कुलीन प्रजातंत्र द्वारा सामुदायिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए निम्न पंचायतों की विशेष भूमिका रही है--

१. जाति पंचायत
२. ग्राम पंचायत तथा
३. चौखला पंचायत

१. जाति पंचायत

प्रत्येक बस्तियों में जातियों की अपनी- अपनी पंचायते होती थी। यह जातिगत कुल अथवा परिवार- समूह के प्रमुख सदस्यों का सामाजिक संगठन होता था, जिसमें उस जाति विशेष के सभी परिवारों के मुखिया औपचारिक सदस्य माने जाते थे। पंचायतों की बैठक का प्रायः कोई नियत स्थान नहीं होता था। वे ज्यादातर मंदिरों के आसपास खुले स्थानों में या सार्वजनिक जगहों पर की जाती थी। इस तरह की पंचायतें परंपरा, रुढियों, लोकाचारों, विश्वासों एवं जाति से जुड़ी सामाजिक - आर्थिक जीवन की प्रक्रियाओं पर लोक- कल्याणकारी नियंत्रण रखती थी। विवाह संबंधी झगड़े, व्याभिचारों के आरोप, पारिवारिक कटुता तथा जातिगत अशिष्टताओं की जाँच में इनका विशेष योगदान होता था। दण्ड के रुप में प्रायश्चित, क्षमा - याचना, आर्थिक रुप से दण्डित करना तथा धार्मिक यात्रा साधारण दण्ड माने जाते थे। जाति से भदर (बहिष्कृत ) करना कठोर दंड थे। निम्न जातियों, हरिजन तथा आदिवासियों में शारीरिक दण्ड का भी प्रचलन था। यह स्वजाति सामुदायिक भावना को बनाये रखने के साथ- साथ दूसरी जाति के सदस्यों तथा स्वजाति के सदस्यों के मध्य विवादों को सुनने, राज्यादेशों का जाति में पालन करवाने तथा राज्य व्यवस्था को जाति की ओर से परामर्श देने का कार्य करती थी।

Top

२. ग्राम पंचायत

प्रजातांत्रिक न्याय- व्यवस्था बनाये रखने में ग्राम- पंचायतों का विशेष योगदान था। इस तरह के सामुदायिक संगठन नगरों की अपेक्षा गाँवों में अधिक प्रभावी रुप से कार्य करते थे। राज्य के कर्मचारी (पटेल, पटवारी ), नगर में नगर सेठ तथा नगर के प्रमुख चोवटिया इस पंचायतों का राज्य- प्रतिनिधित्व करते थे, वहीं जाति- पंचायतों का जन- प्रतिनिधि इसके सदस्य होते थे। पंचायत की बैठक का स्थान चोरा, हथाई एवं पंचायती नोहरा कहलाता था।

इन पंचायतों का कार्य ग्राम्य- विवादों की जाँच एवं निर्णय करना होता था। राज्य की ओर से निर्णीत जनकल्याणकारी कार्य इसी के माध्यम से होता था।

इन "पंचायती कार्यों' में बस्तियों के लोग पारस्परिक सहयोग करते थे। कुएं खुदवाना, तालाब तथा मंदिर बनवाने, जैसे सार्वजनिक कार्यों का निर्णय यही पंचायत लेती थी। साथ- ही- साथ यह राज्य को सामाजिक- राजनीतिक नीति में परामर्श देने का कार्य भी करती थी।

Top

३. चौखला पंचायत

चौखला पंचायत एक से अधिक गाँवों के अंतर्विवाद एवं व्यवस्थापन के कार्य देखने के लिए उत्तरदायी होता था। परगनों के चोवटिया (कामदार, फौजदार, नगर- सेठ तथा राज्य के सामंत ) तथा उस क्षेत्र विशेष में पड़ने वाले ग्राम- पंचायतों के विशिष्ट प्रतिनिधि इस पंचायत के सदस्य माने जाते थे।

चौखला पंचायत भी दीवानी तथा फौजदारी दोनों तरह के मुकदमें सुनने तथा निर्णय देने का कार्य करती थी। साथ- ही- साथ यह बस्तियों की व्यवस्था बनाये रखने, लोक कल्याणकारी कार्यों का संपादन तथा प्रशासनिक व्यवस्था बनाये रखने में राज्य को सहयोग प्रदान करती थी।

मेवाड़ की आवास- व्यवस्था Mewar of housing - the law


वृहत् गाँवों तथा ग्राम्य नगर की आवास- व्यवस्था में बहुत हद तक समानता थी। धनाभाव में जहाँ गाँवों के मकान में फूस तथा कच्चे खपरेलों के घरों का आधिक्य था, वही ग्राम्य- नगरों की बस्तियों में चूने- पत्थर तथा पक्का-खपरेल के बने मकान अधिकता में थे।

गाँव के घर छत- निर्माण के आधार पर चार प्रकार के होते थे---

  1. पत्थर की पट्टियों की छत वाले पक्के मकान, जिनकी दीवारें भी चूने व पत्थर की बनी होती थी।

  2. चूने व पत्थर की बनी दीवारों पर केलु- खपरेल की छत वाले मकान, जिन्हें घर- केलूवट- पक्का कहा जाता है।

  3. घास- फूस से ढ़के हुए मिट्टी के मकान, जिन्हें "घर कच्चा फूस' कहा जाता था।

  4. बाँस या लकड़ी की दीवारों से निर्मित "झूंपी', जिन्हें भील जातियाँ "टापरा' तथा मीणा- मेर जातियाँ "मादा' कहती थी।

पहाड़ी तथा जंगली भागों में बनी ऐसे झूंपियां तीन ओर से "थूर' कही जाने वाली कांटों की बाड़ से तथा पृष्ठ में पहाड़ अथवा वन्य झाड़ियों से घिरी होती थी। अधिकतम ६ फीट ऊँची ये रचनाएँ प्रायः एक कक्षीय होती है, जिसमें खिड़की और रोशनदान की व्यवस्था नहीं होती थी। मैदान तथा पठारी भू- प्रदेशों में बने ऐसे टापरों के बाहर बाड़े के अंदर "डागली' बनी रहती थी। इन डागलियों में बैठकर रात्रिकाल में भी फसलों की चौकसी की जाती थी।

अछूत जाति के सदस्यों के स्वनिर्मित मकान, गाँव के बाहरी हिस्से में बने होते थे। टापरों जैसे ही ये भी एक कक्षीय होते थे, जिसमें साफ हवा के आवागमन की कोई खास व्यवस्था नहीं रहती थी।

किसानों एवं दस्तकारों को अपना मकान बनवाने के लिए कुम्हार, खाती, लुहार आदि की आवश्यकता पड़ती थी। उनका पारिश्रमिक प्रायः फसल पर जिन्सों में चुकाया जाता था। इनके मकानों में दो अथवा तीन कक्ष (ओवरा ) बने होते थे, जिनके आगे की तरफ ढ़ालिया (बरामदे ) बने होते थे। गोबर व मिट्टी की दीवारों के बने इन मकानों की छत के लू- खपरेल की रहती थी। ओवरों के आगे बड़ा खुला चौक और पोल बनी होती थी, जहाँ पशु बाँधने, बैलगाड़ी तथा
कृषोपयोगी सामान रखने का इंतजाम होता था। पोल के अंदर एक तरफ कक्ष अथवा चबूतरा बना होता था, जहाँ मेहमानों को ठहराया जाता था। पोल के बाहर दोनो ओर १-१.५ फीट ऊँची चबूतरी अथवा ३- ३.५ फीट ऊँचा चबूतरा बनाया जाता था। यह स्थान दैनिक मिलने- जुलने के स्थान अथवा सामाजिक उत्सवों पर जाति पंचायत की बैठकों में काम आता है।

निम्न जातियों में पर्दाप्रथा का प्रचलन कम होने के कारण इनके मकान खुले हुए तथा सपाट होते थे। पोलों से संपूर्ण गृह का अवलोकन किया जाता था। किसानों की पोल का मार्ग ६-७ फीट चौड़ा होता था, जिसमें बैलगाड़ी आसानी से आ- जा सकती थी। कुम्हार, सुथार, लुहार, आदि दस्तकार जातियाँ तथा सोनी, झीणगर, सिकलीगर जैसी शिल्पी जातियाँ अपने मकान के पोल में अपना व्यवसाय करती है। अर्थात मकान के पोल कार्यशाला के रुप में प्रयुक्त होते रहे हैं।

कृषक, पशुपालक, शिल्पी- दस्तकार तथा निम्न जातियों में पर्दाप्रथा का प्रचलन कम होने के कारण, मकान प्रायः खुले हुए एवं सपाट होते थे। पोलों से संपूर्ण गृह- दृश्य का अवलोकन किया जा सकता था। खुले हुए चौपाड़ी में निर्मित ये मकान स्वास्थ्यानुकूल होते थे। हवा तथा पर्याप्त प्रकाश के लिए बखारे (बड़े छेद ) बने होते थे। पशु बांधने, खाद को एकत्रित करने तथा घास रखने वाले स्थान को "बाड़ा' कहा जाता था। इन बाड़ों में बने हुए कमरे को "नोहरा' कहा जाता था। समय- समय पर यह स्थान सामाजिक- उत्सवों पर दिये जाने वाले जातिभोजों न्यातमेलों के लिए भी प्रयोग किया जाता था।

उच्च जातियाँ, जैसे ब्राह्मण, राजपूत तथा महाजन जातियों के आवासों की बनावट थोड़ी अलग होती थी। द्विज जातियों में पर्दाप्रथा का प्रचलन होने के कारण मकान के मुख्य द्वार के सामने दीवार का ओटा (अवरोधक ) बनाया जाता था। आर्थिक रुप से संपन्न द्विज परिवार पक्का केलू- खपरेल में रहता था, जिसकी छत खपरेल की बनी होती थी। ऊपरी मंजिल पर बने कक्ष"मेड़ी' कहलाती थी। मेड़ी की फर्श बांस तथा मिट्टी की बनी होती थी। चढ़ने - उतरने के लिए लकड़ी या बांस की सीढियां बनाई जाती थी।

गाँवा के जागीरदार का मकान समतल स्थान पर रावला तथा पहाड़ी गाँवों में गढ़ या गढ़ी कहलाता था। इसके बनाने में चूने तथा पत्थर का प्रयोग किया जाता था। इसमें सोने, उठने- बैठने के लिए अलग- अलग कक्ष बने होते थे, जो अंतरवास या जनाना, बाहरदारी तथा बैठक के रुप में होते थे। गोखड़े, खिड़कियाँ तथा झरोखे इसकी सुंदरता को बढ़ाते थे।

मेवाड़ की ग्राम्य- योजना Village of Mewar - Plan


ग्रामीण बस्तियों की आवासीय व्यवस्था जातिगत भावना से प्रभावित थी। जहाँ द्विज जातियाँ गाँव या नगर के केंद्र मे स्थित रहती थी, वहीं निम्न जातियों के आवासों की स्थिति विकेन्द्राभिमुखी होती थी। शिल्पी, दस्तकार, कृषक, पशुपालन
तथा सेवक जातियाँ दोनों समूहों के मध्य में रहती थी। आदिवासी जातियाँ आक्रमण स्थिति से सुरक्षा के लिए अपना घर पहाड़ियों के मध्य अथवा जंगल से आवृत ऊँचे- ऊँचे डूंगरों पर बनाती थी। ऊँचे स्थान पर बने मकान, यदि वह बड़ा हो, तो गढ़ तथा छोटे को गढ़ी कहते थे। समतल पर बने मकान "रावला' कहलाते थे। गाँवों के मकान व्यवसायानुरुप तथा सामाजिक- आर्थिक परिस्थितियों से प्रेरित होते थे।

ग्राम्य- नगर एवं वृहत् गाँव चारों तरफ से परकोटे के घिरे होते थे। साथ- ही - साथ उनमें तालाब, बगीचे तथा मंदिर बने होते थे। जलाशयों की संख्या प्रायः एक से तीन तक होती थी। सामंत तथा उनके कृपा पात्रों के विहार हेतु बनी बाग- बाड़ियों का उपभोग साधारण वर्ग के लिए प्रायः वर्जित था। कई बार राणा या अनुदाता सम्मान के रुप में इन बाड़ियों का अनुदान कर देते थे। जातिगत मंदिरों के अतिरिक्त शासक, सामंत तथा संपन्न व्यक्तियों के मंदिर भी बने होते थे। मंदिरों की स्थिति प्रायः प्रत्येक चोहटे पर होती थी, जो जन- साधारण की धार्मिक श्रद्धा की परिचायक है।

ग्राम्य नगरों में गाँव के मुखिया तथा राज्य प्रासाद से मुख्यमार्ग परकोटों से पूर्वाभिमुख, उत्तराभिमुख या पश्चिभाभिमुख दिशा में जाता था। परिस्थितिवश ऐसा करने पर पहले इसे मोड़ दिया जाता था। मुख्य- मार्ग के दोनों ओर दुकानें एवं शिल्पी- दस्तकारों की कर्मशालाएँ हुआ करती थी। मार्ग स्थित ऐसे वाणिज्य - व्यवसाय क्षेत्र को हाटा कहा जाता था। यह स्थानीय व्यापार हेतु प्रयुक्त होता था। वस्तुओं के आयात- निर्यात हेतु अलग से मंडियां बनी होती थी। इन मंडियों का प्रबंधन महाजनों की पंचायत करती थी। पंचायत के अनुभवी व्यापारी एवं साहूकार श्रेष्ठी (सेठ ) कहे जाते थे।

उदयपुर का राज्य - मार्ग कोतवाली से उत्तराभिमुख तथा पूर्वाभिमुख दिशाओं में विभक्त होकर हाथीपोल तथा सूरजपोल से नगर के बाहर जाता था।

मेवाड़ के गाँवों का स्वरुप The nature of the villages of Mewar


कृषि आधारित अर्थव्यवस्था होने के कारण मेवाड़ की अधिकांश जनता गाँवों में निवास करती थी। कृषि ही इनके रोजगार का प्रमुख साधन रहा है। अध्ययनकाल के दौरान गाँवों में इनकी जनसंख्या ९२.८ऽ थी।


गाँवों के नाम प्रायः उसकी भौगोलिक स्थिति अथवा किसी विशेष जाति समुह के निवास होने के कारण, उसी जैसे नाम से पुकारे जाते थे। उदाहरण के लिए, मगरा वाला (पहाड़ पर स्थित) गाभ, वामणिया (विशेष रुप से ब्राह्मण जाति के रहने के कारण ), गायरियावास आदि । किसी विशेष व्यक्ति को प्रायः जाति- निवास के आधार पर जाना जाता था। किसी व्यक्ति को शासक द्वारा भूमि अनुदान में मिलने पर कालांतर में कभी- कभी ग्रहिता के नाम से उद्बोधित होने लगती थी, जैसे गजसिंह जी री भागल, भगवान दो कलां इत्यादि। मुहल्लों का विकास जाति एवं व्यवसायों के आधार पर होता था।

एक मुहल्ले में एक ही प्रकार की जाति या व्यवसाय करने वाले लोगों का प्रभुत्व होता था। भील, मीणा, ग्रासिया जैसे वन्य बस्तियों को "फलां' कहा जाता था, वहीं राजपूत जागीरदार के भाई- बांधव की बस्तियों को "बस्सी' कहते थे। धाबाई तथा गुर्जर जातियों की बस्ती "हवाला' कहलाती थी और खेड़ियों की बस्ती को "ढ़ाणी' कहा जाता था। मूल गाँव से एक - दो मील की दूरी पर खेतों में अवस्थित ५- १५ घरों की बस्ति "खेड़ा' या "मझरा' कहलाती थी। गाँव के निकट ही खेतों में अवस्थित भिन्न- भिन्न पारिवारिक बस्तियाँ "भागल' कहलाती थी। आज भी गाँवों में एक ही परिवार के विभिन्न सदस्यों की बस्ती को भागल, चंदाना की भागल आदि। नगर में "भागल' का प्रयोग पारिवारिक पोल (द्वार ) के रुप में किया जाता था, जैसे भगतणों की पोल, सुथारों की पोल, मेहताओं की पोल आदि।

तत्कालीन मेवाड़ में नगर, ग्राम तथा कस्बों की कोई निश्चित धारणा नहीं थी। प्रायः सभी स्थान खेतों के मध्य, कृषि अर्थव्यवस्था पर आधारित रहे थे।

आधुनिक गाँवों से अलग मेवाड़ के छोटे गाँव अव्यवस्थित रहे है। इस राज्य के प्रथम श्रेणी के जागीर- मुख्यालय, परगना, ग्राम्य मंडियाँ एवं हटवाड़े तथा मुख्य धार्मिक महत्व के स्थानों को वृहत् ग्राम्य की श्रेणी में रखा जा सकता है। ऐसे गाँवों की जनसंख्या अधिक थी तथा साथ में सुविधाएँ अधिक थी। ये प्रायः किसी नदी या तालाब पर बसी होती थी। गाँव के अंदर ही वाणिज्य - व्यवसाय हेतु हाट (बाजार) बने होते थे। धीरे- धीरे ये गाँव कच्चे तथा पक्के मार्गों के विकास के साथ ही, यातायात के साधनों से जुड़ने लगे । बसाव की दृष्टि से वृहत् ग्रामों को तीन भागों में बांटा जा सकता है--

क. मुख्य जागीर ठिकाने के मुख्यालय गाँव
ख. धार्मिक स्थान, व्यवसाय केन्द्र तथा जिला मुख्यालय केंद्र
ग. ग्राम- नगर बस्ती


क. मुख्य जागीर ठिकाने के मुख्यालय गाँव

१८ वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मुख्य जागीर ठिकानों के गाँवों की संख्या १६ थी, जो १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक बढ़कर २४ हो गयी। जागीरों को बढ़ाने का अधिकार राणा के हाथ में होता था। उपरोक्त ठिकानों की बस्तियों के चारों ओर सुरक्षा हेतु परकोटे बने हुए थे। इन परकोटों में स्थान- स्थान पर दरवाजे का प्रावधान रखा जाता था। इन दरवाजों पर से जागीर- सैनिकों का पहरा होता था। परकोटे के बाहर गाँव के खेत- खलिहान होते थे।


ख. धार्मिक स्थान, व्यवसाय केन्द्र तथा जिला मुख्यालय केन्द्र

इस प्रकार के वृहत्त- ग्रामों की संख्या १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक कुल २१ हो गयी थी। वे थीं-- साईरा, सारण, राश्मी, राजनगर, मांडलगढ़, केलवाड़ा (कुम्भलगढ़ ), खभनोर, कपासन, हुरड़ा, जहाजपुर, चित्तौड़गढ़, छोटी सादड़ी, मांडल पुर, नाथद्वारा, ॠषभदेव, कांकरोली, कोटड़ा, खेखाड़ा (छावनी ), हमीरगढ़ और गुलाबपुरा। इनमें चित्तौड़गढ़, कुभलगढ़, मांडलगढ़ आदि सैन्य- सुरक्षात्मक स्थिति लिये पहाड़ों पर बसे वृहत् ग्राम थे।


ग. ग्राम्य

नगर बस्ती इस श्रेणी के गाँवों में उदयपुर तथा भीलवाड़ा, इन दो ग्राम्य- नगरों का स्थान आता है। ये स्थान राज्य के प्रशासनिक इकाइयों के मुख्यतम स्थान थे। साथ ही साथ वे उद्योग, वाणिज्य एवं व्यापार के प्रमुख केंद्र थे।

मेवाड़ में प्रचलित श्रृंगार व आभूषण Mewar prevalent in makeup and jewelry



मेवाड़ में श्रृंगार तथा आभूषणों का प्रयोग स्री और पुरुषों में समान रुप से प्रचलित था। सौदर्य - प्रसाधनों के रुप में विभिन्न तरह की सुगंधियों का प्रयोग किया जाता था। तत्कालीन साहित्यिक स्रोत के अनुसार गुलाब और चंदन के इत्र ज्यादा प्रचलन में थे। स्नान, उबटन और लय के रुप में केसर, कुमकुम और अरगजा का प्रयोग किया जाता था। चांदणी, चमेली और चंदन के तेल के प्रयोग ज्यादातर धनिक वर्ण के लोग करते थे।


स्रियाँ कलात्मक फुंदनों और फूलों से वेणी गूंथती थी। काजल तथा सुरमा का अंजन तथा माथे पर कुमकुम के टीके का प्रचलन सभी वर्ग की स्रियों में था। मेंहदी का प्रयोग स्री तथा पुरुष दोनों वर्ग के लोग करते थे। मेंहदी का प्रयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अच्छा माना जाता था। पुरुषों में बढ़े हुए बाल, दाढ़ी और मूंछे रखना पौरुष का प्रतीक माना जाता था। १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश प्रभाव से दाढ़ी के स्थान पर गलमुच्छें रखने का प्रचलन बढ़ने लगा। सिर के बाल साफ रखने तथा दाढ़ी- मूंछ नहीं रखने का भी प्रचलन शुरु हो गया।

आभूषणों में स्वर्ण, रजत, मोती, पन्ना, हीरा, माणिक, पीतल, कांसा, हाथीदांत, लाख तथा नारियल के खोपरे का प्रयोग होता था। इनका प्रयोग सामाजिक- आर्थिक प्रतिष्ठा, पद, सम्मान तथा जातिगत नियमों के अनुसार ही किया जा सकता था। कई बार जातिगत नियमों के अनुसार आभूषणों की किस्में भी निर्धारित की जाती थी। इन सामाजिक नियमों की परंपरा का पालन अध्ययनकाल के अंत तक होता रहा।

रत्नजड़ित, मूल्यवान आभूषणों का प्रयोग अभिजात व समृद्ध वर्ग के लोगों तक सीमित था। स्वर्ण पहनने का सम्मान महाराणा द्वारा प्रदान किया जाता था। द्विज जातियाँ चाँदी, हाथीदाँत तथा लाख के आभूषणों का प्रयोग करती थी, वही निम्न जातियों में चाँदी, पीतल, कांसा, लाख तथा नारियल के आभूषण पहने जाते थे। दलित व आदिवासी वर्ग सिर्फ कांसा, कतीर तथा नारियल के आभूषणों का प्रयोग कर सकते थे।


मेवाड़ में प्रचलित आहार एवं पेय Mewar in common foods and drinks


मेवाड़ी समाज में शाकाहारी तथा मांसाहारी दोनों तरह के भोजन का प्रचलन था। जहाँ ब्राह्मण जातियों में मांसाहार, यहाँ तक की प्याज और लहसुन भी वर्जित था, वहाँ राजपूत, कायस्थ और धामाई जैसी कई जातियाँ नियमित रुप से मांसाहार का सेवन करती थी। पर्यूषणों के दिनों में लिलोतरी (हरी सब्जियाँ) खाद्यान्न खाना अहिंसा के प्रति अनास्था माना जाता था। अनजाने में सुक्ष्म जीव- हत्या के डर से सायंकाल में ही भोजन कर लिया जाता था।

निर्धन, कृषक, दस्तकार एवं ग्राम्य- जन का मुख्य भोजन मक्की अथवा धान की रोटी और चटनी रहा था। ज्वार, कांगणी कोदरा तथा सामा को भी खाद्य के रुप में प्रयोग किया जाता था। मक्की से घुघरी, राब, घाट तथा पान्या भी बनाये जाते थे। पान्या मक्की के आटे की बाटी को आक के पत्तों में लपेट कर सेंक कर बनाया जाता था। इसका स्वाद मीठा होने के कारण इसे बगैर लगावन के खाया जा सकता था। दुधारु पशु- पालना लोगों का शौक था। वे प्रायः दूध, दही, लूणी (मक्खन) तथा छाछ का प्रयोग करते थे। साधारण जन पाषाण- वाटकों तथा पत्तल दोनों में खाना खाते थे।

अभिजात वर्ग का भोजन सामान्य वर्गों के भोजन से अलग प्रकार का था। उनके भोजन में साधारणतः गेहूं के आटे से बनी रोटी, पूड़ी, चावल, केशर भात, पाँच तरह की सब्जियों वाली पंचशाक, अचार, मुरब्बे, दही, खीर, घी, विभिन्न दालें, लपसी, हलवा, मोदक आदि प्रमुख रुप से प्रयोग किये जाते थे। प्रायः भोजन अधिक से अधिक एक मिष्ठान्न, चावल, पूड़ी तथा साग- दाल युक्त होता था। मांसाहारी जातियाँ प्रायः बकरे, मछली, हिरण, सुअर, तीतर तथा बत्तक का मांस तथा पापड़ का प्रयोग करती थी। भील, मीणा तथा हरिजन वर्ग के मांसाहारों में मरे हुए जानवरों का मांस खाने में भी कोई प्रतिबंध नहीं था। मिठाईयों में इलायची, बादाम, दाख, खोपरा, चिरोंजी, मिश्री, गुलाब या केवड़े का सत, केशर आदि का प्रयोग किया जाता था, वहीं सब्जियों को स्वादिष्ट बनाने के लिए लौंग, दालचीनी, कालीमिर्च, सौंफ आदि व्यवहार में लाया जाता था। पेय के रुप में अमरस (आम का बना शर्बत), ठंडाई, मट्ठा, रायता तथा दही प्रयुक्त होता था। पोदीने, आम तथा इमली की बनी चटनी, अचार व मुरब्बों में कई प्रकार की सुगंधियों का प्रयोग किया जाता था। इस वर्ग में पुलाव, मुरब्बा, कबूली तथा भुने हुए खाद्य बनाना खान- पान पर मुगल- आहार का स्पष्ट प्रभाव बतलाता है। शासक तथा सामंत वर्ग के परिवार बाजोट (पाटला ) पर चाँदी की थालियों और कटोरियों में भोजन करते थे। भोजन को सुपाच्य तथा मुख को सुगंधित रखने के लिए भोजनोपरंत पान- सुपारी, कपूर आदि खाने का प्रचलन था।

१९ वीं शताब्दी की पावणी बहियों में कही गई कच्चे भोज्य सामग्रियों के साथ इस बात का भी उल्लेख किया गया है। यहाँ के दरबारी सेवक तथा कर्मचारियों को माहवारी गेहूँ, चावल, दाल, घी, तेल आदि दिये जाने का प्रावधान किया गया था। इस तरह की सुविधा प्राप्त (उच्च) जातियाँ भोजन में खिचड़ी, अचार तथा यहाँ उपलब्ध डोचरा, किंकोड़ा, चील की भाजी, बथुआ, टिंडोरी आदि की सब्जियों का प्रयोग करते थे।

नशा संबंधी वस्तुओं में शराब, अफीम, भाँग, तंबाकू, बीड़ी, हुक्के तथा चीलम का प्रचलन था। कुछ जातियाँ जैसे ब्राह्मण, वैश्य, जाट, जणवा, गाभरी आदि को छोड़कर अन्य जातियों में शराब का प्रचलन था। ब्राह्मणों तथा वैश्य जातियों में अफीम के केसूंबा तथा भांग का प्रचलन था। तंबाकू का प्रयोग खाने तथा पीने, दोनो प्रकार से किया जाता था। ब्राह्मण जातियाँ भी इसका प्रयोग करती थी।


मेवाड़ में भोज- परंपरा

विभिन्न प्रकार के सामाजिक- धार्मिक उत्सवों जैसे विवाह, पर्व- त्योहारों तथा अशौच आदि के काल में भोज देने की परंपरा थी। आर्थिक दृष्टि से अभिजात वर्ग अग्रणी था। वे अपनी प्रतिष्ठा दिखाने के लिए प्रदर्शनात्मक खर्च करते थे। यह खर्च १० हजार से १ लाख के बीच औसत हो सकता था, वही साधारण वर्ग में भी व्यर्थ खर्च की रुढिगत परंपरा विद्यमान थी, जो उन्हें ॠणग्रस्त बना देती थी। उनके खर्चों� पर राज्य - नियंत्रण था। प्रदर्शनात्मक खर्चों� के लिए विशेष स्वीकृति आवश्यक थी। इनका औसत खर्च एक हजार रुपये के आसपास होता था।

व्यक्ति आमंत्रण के आधार पर भोजों को कई श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता था। परिवार या व्यक्ति द्वारा गाँव की संपूर्ण स्वजाति को दिया जाने वाला भोज, साधारण भोज माना जाता था। स्थानीय स्वजाति के साथ चौखला की जाति को खिलाया जाना, बड़ा भोज माना जाता था। स्वजाति के अतिरिक्त अन्य जातियों का भी आमंत्रण वाला भोज, प्रतिष्ठित भोज की श्रेणी में गिना जाता था। इन भोजों में कुलीन वर्ग के लोग विशिष्ट प्रकार के व्यंजनों का प्रयोग करते थे। उनमें प्रायः शक्कर का प्रयोग किया जाता था। साधारण वर्ग की जनता भोज में प्रायः गुड़ से बनी सामग्रियाँ जैसे लपसी, लड्डू, पूड़ी अथवा बाटी का प्रयोग करती थी, वही आदिवासी तथा अछूत जातियों में ज्यादातर मक्की या धान की बाटी का प्रचलन था। आतिथ्य और उद्देश्य की दृष्टि से यहाँ के भोज को पाँच श्रेणियों में बांटा जा सकता है--

क. प्रसादी
ख. उज्जेणी
ग. वास्तु
घ. गोठ
ड़. जीमण


क. प्रसादी

प्रायः तीर्थयात्राओं से लौटने के बाद, देवताओं से मन्नत तथा अभिलाषा की प्राप्ति पर, बच्चों के मुण्डन संस्कार के क्रम में, रात्रि- जागरण तथा अन्य धार्मिक - सामाजिक पर्वों� के अवसर पर किया जाने वाला भोज "प्रसादी' कहलाता था। आर्थिक स्थितिनुसार कुटुंब- परिजन या स्वजाति सदस्यों को आमंत्रित किया जाता था।


ख. उज्जेणी

यह भोज परंपरा अधिकतर साधारण - वर्ग के लोगों में प्रचलित थी। कृषि- आधारित अर्थव्यवस्था होने के कारण जन- जीवन में वर्षा का बहुत महत्व था। वर्षा के लिए इंद्र- अर्चना हेतु कौटुंबिक सदस्यों का सहभागी भोज या एक ही परिवार द्वारा अपने रिश्तेदारों को दिया जाने वाला भोज उज्जेणी कहलाता था।

अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि, दोनों ही स्थितियों में इंद्र के प्रसन्नार्थ परिवार - समूह बस्ती के बाहर खेतों या धार्मिक - स्थलों पर खाना बना कर इंद्र नैवेद्य के प्रतीकात्मक प्रसाद के रुप में भोज का आयोजन करती थी, जिसमें प्रायः गुड़- निर्मित व्यंजनों का प्रयोग किया जाता था।

आज भी वर्षा नहीं होने पर यहाँ की स्रियाँ कई प्रकार के टोटके करती हैं। वे लौकिक विरोध प्रकट करने के क्रम में रोड़ी का कचरा तथा पशुओं का गोबर मटकों में भर कर वणिक बनिये की दुकानों के सम्मुख फोड़ती है, क्योंकि अकाल की स्थिति में उन्हें वणिक लाभ मिलता है।


ग. वास्तु

गृह- निर्माण के पश्चात् किसी शुभ मुहू पर गृह - प्रवेश एवं गृह- शांति के लिए किया जाने वाला सामाजिक भोज "वास्तु' कहलाता था। वैसे तो यह भोज- परंपर केवल द्विज जातियों में प्रचलित थी, किंतु अन्य जातियाँ गृह- प्रवेश के दौरान नांगल- भोज करती थी, जिसमें घर में सुख- शांति बनाये रखने के लिए देव- अर्चनार्थ नैवेद्य के रुप में ब्राह्मणों, संतों तथा भोपों को खिलाया जाता था। कभी- कभी स्वजाति के लोग भी आमंत्रित किये जाते थे।


घ. गोठ

सामाजिक उत्सवों पर या किसी प्रकार की खुशी दर्शाने के क्रम में समान स्तर व विचार के लोगों के बीच किया जाने वाला भोज "गोठ' कहलाता था। इसी प्रकार विवाह के पश्चात घर लौटते हुए मार्ग में भोजन की परंपरा को बींद गोठ कहा जाता था।

यह भोज प्रक्रिया मूल रुप से सामाजिक- आर्थिक प्रतिष्ठा, पद तथा प्रदर्शन को व्यक्त करने के साधन रही थी, जिसमें औसतन एक हजार से २० हजार रुपये तक का खर्च हो जाता था। निर्धन तथा निम्न वर्गों के बीच इस प्रकार के भोज नहीं होते थे।


ड़. जीमण

विभिन्न सामाजिक - धार्मिक संस्कार जैसे विवाह, मृत्योपरांत, गोरणी, श्राद्ध, नारायण बली आदि के अवसर पर किया जाने वाला जातिगत एवं सामाजिक भोज "जीमण' कहलाता था।

सामान्तिक घरानों में विभिन्न मांगलिक अवसरों पर भोजन के साथ- साथ रंगारंग कार्यक्रमों का प्रचलन था। भोजन के दौरान ढ़ोलनियों द्वारा गायन- वादन तथा भगतणों द्वारा नृत्य तथा भोजनोपरांत मुजरे सुनना मेवाड़ी सामंत - समाज पर स्पष्ट मुगल प्रभाव दर्शाता है।

मेवाड़ी भाषा से जुड़ी शब्दावलियाँ Mewadi language associated with शब्दावलियाँ


अमितेश कुमार



शब्द

शब्दार्थ

अमाणा

वर्षा पर आश्रित भूमि

आण

शपथ

आघण

गाँव के परकोटों के अंदर वाली कृषि- भूमि

आकड़ा

कूड़ा गहरा कुँआ

आटा हाट

विवाह विनिमय की एक प्रथा

इनामिया, माफी

पुरस्कार स्वरुप प्रदत्त राज मुक्त भूमि

उद्दरणक

भू- ग्रहिता

उपत

उत्पादन

ओल

पंक्ति

कलेवा

कृषि उत्पादन पर लिया जाने वाला प्रथम शुल्क

कटका

बटका खेत की क्यारी की इकाई

कालबेलिया

सपेरे की जाति

कूड़ निवाण

बैलों से सिचाई किये जाने वाला कुँआ

कूतां बराड़

कूतां करने वाले राज्य कर्मचारी को देय उपहारठठ

कुवर मटका

द्रव्य उत्पादन पर लिया जाने वाला राज्योतरा अधिकारी हेतु शुल्क

केल खू

घर तथा पशु गणना में प्रयुक्त इकाई

कैद

जागीरदार की मृत्योपरांत नवीन उत्तराधिकारी को मान्यता प्रदान करने के समयांतर जागीर की स्थिति

कोथल बरड़ा

व्यापारियों से लिया जाने वाला राजकीय शुल्क

कृपा

फसल पकने पर खड़ी फसल पर लिया जाने वाला राजकीय उपहार

खड़ लाकड़

ईंधन का शुल्क

खालसा

केंद्राधीन भू- क्षेत्र

खंडणी

समझौते के अनुसार समयोपरांत मुक्त कराधन पर अतिरिक्त कर

खिराज

ब्रिटिश सरकार को दिया जाने वाला राज्य के राज का हिस्सा

खुंची

फसल पकने पर लिया जाने वाला उपहार

ग्रास

१. मातृ- भाग के रुप में प्राप्त भूमि

२. मेवाड़ राज्य के दक्षिणी- पश्चिमी पर्वतीय भाग में राज्य प्रदत्त जागीर भूमि

ग्रासीया

ग्रास- धारक

घुगरी

अन्न- उत्पादन का अंश, जो राज्य कर्मचारियों द्वारा कमीशन के रुप में लिया जाता
था

गोल के सरदार

तृतीय श्रेणी के राजपूत सामंत एवं शासक की स्थायी सेना के सैनिक सरदार

गोरमा

गाँव के पास वाली भूमि

घोड़ा

बराड़ राजकीय घोड़ों की रसद- खर्च हेतु लिया जाने वाला शुल्क

चर्णोट

चरागाह के लिए प्रयुक्त भूमि

चंदावल

सेना का अंतिम (रक्षक) भाग

चाकरी

सैनिक सेवा

चाकराना- माफी

राज्य सेवा निमित्त प्रदान की गई राज मुक्त जमीन

चाही

तालाब और कुंओं से सिंचित भूमि

चौथ

उपज का १/२ भाग

छटूंद

भू- राज का १/६ भाग (समयानुसार यह भाग घटता- बढ़ता रहा था, किंतु यह परंपराई- व्यवहार में छटूंद ही कहलाता रहा था)

जब्रित

जब्त करना, जागीर भूमि को खालसा के अंतर्गत करने की प्रक्रिया

जागीर

राज्य प्रदत्त भूमि क्षेत्र तथा वंशानुगत धृति

जागेरी

शासक के पत्नी, पुत्र, माता की निजी भूमि

जुहार

कुशल- क्षेम

टांका

राज के सूक्ष्म अंश को कर के रुप में प्राप्त करने की प्रक्रिया

ठाठ

राज्य प्रबंध

ठीकाना

निश्चित क्षेत्र का मुख्य स्थान

डंडोत

दण्डवत् प्रणाम

ढाणी

ं]

पालक "रेबारी' जाति के गाँव की भूमि

ताजिम

सम्मान

तीजा

उपज का २/३ भाग

तेल- पाली

तेल उत्पादन करने की घाणी का शुल्क

दसूंध

उपज का १/१० भाग

दस्तक

राज्याज्ञा की पूर्ति हेतु दबाव पर किये गये व्यय की क्षतिपूर्ति

दाण

चुंगी

दांतणी- चबेणी

कृषि पर लिया जाने वाला आंशिक शुल्क

दीवाण

राज्य का प्रधान, मेवाड़ के शासक राणा की उपाधि

धनक

भू- प्रदाता

धणी

स्वामी

धारण

राज्याज्ञा को पालन करने का एक प्रशासनिक उपाय

धाबाइ

धाय- भाई

धौंस

राज्याज्ञा पालनार्थ राज्य का आर्थिक- दबाव

भेंट

नाल

दो पर्वतों के मध्य तंग प्राकृतिक मार्ग

नाता- कांगली

पुनर्विवाह पर लिया जाने वाला राज्योपहार

नंत

उत्तरदायित्व निर्वाह हेतु लिया- दिया जाने वाला द्रव्य

नेग

परंपरागत लिया- दिया जाने वाला द्रव्य

पड़त

बं भूमि

पहरावणी

पहिनने के वस्र, सामाजिक संस्कारों पर लिया- दिया जाने वाला परिधान

पंद्रही

जाति- व्यवसाय पर लिया जाने वाला मराठी कर, (इन्हीं करों के अंतर्गत "बराड़' दृष्टव्य है )

पीवल

तालाब अथवा कुओं से सिंचित भूमि

पूंछी

उपज का १/५ भाग

पेशकसी

अग्रिम राशि मुक्ति की प्रक्रिया

पेटीया

खाने का कच्चा सामान

पेडी- बराड़

साहूकारी कार्य पर लिया जाने वाला शुल्क

पोटी

भारवाहक बैल पर रखा हुआ भार

फलां

वन्य- बस्तियाँ, भीलों का निवास

फहरिस्त

सूचि

फाड़ा

विभाजन (घर या खेत का पारस्परिक बंटवारा )

फौज खर्च

विदेशी फौजों की महमाननवाजी हेतु दिया गया द्रव्य

फौज बराड़

फौज व्यवस्था हेतु लिया जाने वाला शुल्क

बस्सी

राजपूत- मुखिया के भाई- बांधव के गाँव की भूमि

बराड़

मराठा कालीन कराधन (शुल्क)

बत्तीस के सरदार

द्वितीय श्रेणी के सामंत

बरानी

वर्षा पर आश्रित भूमि (अमाणा)

बाडी

बागवानी हेतु प्रयुक्त भूमि (वाडी)

बापी

पैतृक भूमि

बालद

बैलों का झुण्ड

बालदीया

बैल पालने वाली एक जाति, जो कच्चे मार्गों पर माल- यातायात करती थी।

बीड़

घास- उत्पादन हेतु प्रयुक्त भूमि

बिस्वा

एक बीघे का १/२० भाग

बीगोड़ी

प्रति बीघा लिया जाने वाला नकद राज

बेजारा

मिश्रित (हाख) फसल

बैठ- बैगार

शारीरिक- सेवा के रुप में लिया जाने वाला बाधित शुल्क, जो प्राचीनकाल में "विस्टी' के रुप में प्रचलित रहा था

ब्याह चंवरी

शादी पर लिया जाने वाला उपहार

भदर

बहिस्कृत

भांजगड़

मुख्य परामर्शदाता

भाग

राज हिस्सा, जो राजपूत कृषकों से लिया जाता था

भूम

वंशानुगत भूमि (बपौती)

भोग

राजस्व, जो प्रजा से लिया जाता था

भौमिया

भौम धारक लोग

भौम

बलिदान निमित्त प्राप्त भूमि

भौम- बराड़

भौम जागीर पर लिया जाने वाला शुल्क

भौई- बराड़

माली जाति से लिया जाने वाला व्यावसायिक शुल्क

मजमानी

महमानदारी शुल्क

मगरा

पहाड़ी स्थान या भूमि

माल

मैदानी भूमि (मालेटी)

मापा

पदार्थ के परिमाण पर लिया जाने वाला शुल्क

मापला

मरहठावों द्वारा लिया जाने वाला "कर'

माफी

राज मुक्त भूमि

मुजरा

प्रणाम

मुण्डकटी

उत्सर्ग हेतु प्रदत्त भूमि (भौम)

मुत्सद्दी खर्च

कार्यालय खर्च

मैर मरजाद

जातिगत मर्यादा

मोटी बड़ी

(मोटी- लौड़ी)

रखवाली

संपत्ति सुरक्षार्थ लिया जाने वाला "कर'

रसाला

कच्ची फसल पर लिया जाने वाला उपहार

राहदारी

चुंगी, नागरिक कर

रावली

शासक पत्नी, पुत्र अथवा माता की निजी भूमि

राहमरजाद

पथ नियम के अंतर्गत लिया जाने वाला शुल्क

रांकड़- कांकड़

बं पथरीली भूमि

रेख

जागीर की वार्षिक आय पर राज्य निर्धारित सैन्य शुल्क

रोजाना

रसद की माँग

लागत

लिया जाने वाला निश्चित द्रव्य

लाग- बाग

परंपारई सामाजिक- आर्थिक उपहार

लिलवा

हरे चने

लोड़ी

छोटी

लौड़ी

मोटी

वेश

कपड़ा, सामाजिक- संस्कारों पर दिया जाने वाला परिधान

शरणा

राज्य में विशेष अधिकार के रुप में "संरक्षण'

षट्- दर्शन

धार्मिक संस्थाओं को प्रदत्त भूमि- अनुदान

सही

राज्य के आदेशों पर लगाई जाने वाली स्वीकृति

सरदार

सम्मान हेतु प्रयुक्त उद्बोधन, जाति- विशेष

सहरी

गली

सुरह

धार्मिक प्रशस्ति

सेरण

एक मन पर एक सेर का राज

सोलह के सरदार

प्रथम श्रेणी के सरदार

हलौटी- सिगोंटी

हल- बैल पर लिया जाने वाला शुल्क

हवाला- धाबाई

गुर्जर जाति के गाँव की भूमि

हरावल

सेना का अग्रिम भाग

हाटा

बाजार

हाली

खेतीहर मजदूर

हां (सां ) ठा

गन्ना

हे (से ) र

पानी की नाली