गुरुवार, 18 जून 2009

प्रागैतिहासिक मेवाड़ (Prehistoric of Mewar)

मेवाड़ के पुरा पाषाण काल से लेकर ऐतिहासिक युग तक के इतिहास के विविध पक्षों का अध्ययन किया जा चुका है। अभी तक इस संस्कृति के १०६ स्थान खोजे जा चुके हैं और ४० से अधिक स्थलों का अध्ययन किया जा चुका है। विद्वानों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो चुका है कि मेवाड़ के भूभाग मानव संस्कृति के उषाकाल में ही आवासित हो गये थे जिनका विकास नैसर्गिक ढंग से हुआ था। पुरा पाषाण काल में बागोर में मानव सभ्यता ने पैर पसार दिये थे। उसके पश्चात् इस क्षेत्र में ताम्र-पाषाण संस्कृति का उदय हुआ। भारतीय पुरातत्ववेत्ता इसे 'आयड़ संस्कृति' के नाम से पुकारते है।

आघाटपुर-आयड़
उदयपुर नगर के ईशान कोण में राणा प्रतापनगर रेल्वे स्टेशन के समीप आयड़ नदी के तट पर बसी बस्ती के पास प्राचीन नगर के खण्डहर हैं। सन् १९५२-५३ में श्री रतनलाल अग्रवाल के मार्गदर्शन में सबसे पहले इस क्षेत्र का उत्खनन प्रारम्भ हुआ। बाद में दकन कालेज पुणे और राजस्थान केपुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के संयुक्त तत्वावधान में सन् १९६१-६२ में उत्खनन हुआ। यह स्थान टीले के रूप में था जिसे स्थानीय लोग 'धूलकोट' के नाम से पुकारते हैं। इस खुदाई से प्रतीत होता है कि यह नगर पहले काफी बड़ा रहा होगा जो प्राकृतिक प्रकोपों से ध्वस्त होता रहा और पुन: खड़ा होता रहा। १०वीं शताब्दी में मालवा के परमार राजा भुंज (वाक्यपति राज, अमोघवर्ष) ने इस नगर पर आक्रमण किया और इस नगर को ध्वस्त कर दिया। इससे पूर्व तक यह नगर गुहिलों की राजधानी रहा था। गुहिल शासक अल्लट ने यह राजधानी नागदा से यहां परिवर्तित की थी। (वीर विनोद-प्रथम भाग-पृ. २६८) १०वीं शताब्दी तक यह स्थल धन धान्य से परिपूर्ण था तथा कर्नाटक, मध्यप्रदेश, गुजरात आदि के व्यापारी लोग यहां व्यापार हेतु आते जाते थे। (शोध पत्रिका वर्ष ३५-अंक ३-४ पृ. ५९)
एच.डी. सांकलिया ने परम्परा के अनुसार 'ताम्वावती' अथवा 'ताम्रवती' नाम बताया है। प्राचीन जैन ग्रन्थों, संस्कृत साहित्य एवं शिलालेखों में इसका नाम आघातपुर या आहपुर लिखा मिलता है। (वही.पृ.५९)
इस काल का दूसरा महत्वपूर्ण स्थान राजसमन्द जिले में गिलूण्ड है जो बनास नदी के तट पर बसा है। इस स्थान का उत्खनन सन् १९५९-६० में श्री बी.बी. लाल के निर्देशन में हुआ। तीसरा महत्वपूर्ण स्थान है बालाथल जो उदयपुर जिले के वल्लभनगर तहसील में स्थित है। यह उदयपुर से उत्तर पूर्व लगभग ४० किलोमीटर दूर है जिसका उत्खनन श्री बी.एम. मिश्र के निर्देशन में १९९३-९४ में हुआ। यह टीला बालाथल गांव के पास है जो तीन हेक्टर क्षेत्र में फैला है। इस टीले का उत्तरी आधा भाग सुरक्षित है तथा दक्षिणी आधा भाग एक स्थानीय कृषक द्वारा समतल कर दिया गया है और इस पर खेती होती है। (पुरातत्व विमर्श-जयनारायण पाण्डेय-पृ.४५१)

आयड़ संस्कृति
इस युग में ताम्बे और पत्थर दोनों के प्रयोग मानव जान चुका था अत: इस संस्कृति को ताम्र-पाषाण संस्कृति कहते है। श्री एच.डी. सांकलिया ने माना है कि इस क्षेत्र की खुदाई में लघु पाषाण उपकरणों का अभाव मिलता है और ताम्र उपकरणों का बहुलता में प्रयोग मिलता है अत: इसे ताम्र पाषाण संस्कृति न कह कर इसे केवल ताम्र संस्कृति कहा जाय तो उचित होगा। (वही-पृ.४६०) उन्होंने इस संस्कृति के अभ्युदय और विकास में बाहर के प्रभावों की ओर संकेत किया है। उनकी मान्यता है कि जो मृदभाण्ड के अवशेष आयड़ में मिले है वे ट्राय (टर्की) नामक पुरास्थल से प्राप्त नमूनों के समान हैं और पशु शीर्ष वाले हत्थों से युक्त हैं वे भी शाह तेपे और तेपे हिसार के नमूनों के समान है। पर ये सभी अभी अध्ययन के विषय हैं। (वही-४६३)
आयड़ की संस्कृति के कालानुक्रम का यदि अध्ययन किया जाय तो उपलब्ध साक्ष्यों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है-प्रथम में वे प्रमाण जिन्हें पुरा तात्विक साक्ष्य कर सकते हैं। दूसरे वर्ग में कतिपय रेडियो कार्बन तिथियां आती है जो इस संस्कृति के लिये निरपेक्ष तिथियां प्रस्तावित करती हैं। (वही-पृ.४५९)
प्रथम आधार पर यह संस्कृति मालवा की संस्कृति से पहले की हैं क्योंकि श्वेत रंग के चित्रित कृष्ण लोहित पात्रखण्ड अधिक संख्या में आयड़ में मिले हैं और चित्रण अभिप्राय से यह विविधता दृष्टिगोचर होती है। आयड़ संस्कृति में इस तरह के प्रथम चरण से अन्तिम चरण तक ये अवशेष मिले है जबकि मालवा में ऐसे पात्र खण्डों का विस्तार निचले स्तरों तक ही सीमित है।
द्वितीय आधार पर आयड़ में ९-९ रेडियो कार्बन तिथियां उपलब्ध है। इसके अनुसार आयड़ संस्कृति की सीमा १७०० वर्ष ई.पू. से १५०० वर्ष ई.पू. है। बालाथल के ताम्र पाथाणिक स्तरों से चार रेडियो कार्बन तिथियां अहमदाबाद स्थित फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं। ये ताम्र पाषाणकाल के मध्यवर्ती स्तरों की हैं जो २३५० वर्ष ई.पू. से २३०० वर्ष ईसा पूर्व के मध्य की है जिसका अन्त लगभग १८०० वर्ष ई.पू. हुआ। अत: बालाथल के उद्भव और विकास का समय २३५० वर्ष ई.पू. से १८०० वर्ष ई.पू. का माना जाता है। (क्रमश:)

मेवाड़ की धरोहर-९
प्रागैतिहासिक मेवाड़
विश्व की सभ्यताओं का विकास अधिकांशत: नदियों की घाटियों में ही हुआ। भारत में भी सिंधु घाटी की सभ्यता की तरह कई ऐसे स्थान अध्ययन में आये है जहां सभ्यताओं का विकास हुआ था। ऐसे भी स्थान है जहां सिंधु घाटी से पहले सभ्यता जन्म ले चुकी थी। विद्वानों का यहां तक मानना है कि मेवाड़ प्रदेश में ५००० वर्ष ई.पू. सभ्यता का उद्भव और विकास हो गया था। मेवाड़ की प्रमुख नदियों बेड़च, बनास, कोठारी, गम्भीरी, कदमली आदि के लगभग ४० से अधिक स्थलों के उत्खनन से प्राप्त वस्तुओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि मेवाड़ की संस्कृति हड़प्पा से पूर्व विकसित हो चुकी थी। रिजर्व स्लिप मृद् भाण्ड (मिट्टी के बर्तन) मोहनजोदड़ो, चन्हूदड़ो, प्रभास और सुरकोटड़ा से मिले हैं इनमें सुरकोटड़ा से सर्वाधिक १६ की संख्या में मिले हैं। इसके विपरीत बालाथल से प्राप्त ऐसे मृद् भाण्डों की संख्या १०० से भी अधिक है। इन मद् भाण्डों के वैज्ञानिक परीक्षणों से भी यह सिद्ध हो गया है कि ये मृद् भाण्ड स्थानीय स्तर पर ही बनाये गये थे। स्पष्ट है कि मेवाड़ में कृषि के अलावा मृद् भाण्डों को बनाने की कला का यहां पहले ही विकास हो गया था। बागोर, आयड़, गिलूण्ड, बालाथल, ईसवाल, जावर, मध्यमिका आदि लगभग ४० स्थानों की खोज से यह तो स्पष्ट है कि बहुत पहले मेवाड़ में सांस्कृतिक विकास हो चुका था। उस समय इस क्षेत्र का क्या नाम था? यहां के लोग कौन थे? यह तो खोज का विषय हैं, पर यहां के कुछ स्थलों का जो उत्खनन हुआ है उससे जो जानकारी मिली है उससे पाठकों को अवश्य अवगत कराया जायगा। (मेवाड़ की सांस्कृतिक धरोहर डा. एस.के. वर्मा पृ-५४)

बागोर
कोठारी नदी (बनास नदी की सहायक) के बाये तट पर भीलवाड़ा के पश्चिम दिशा में २५ कि.मी. की दूरी पर यह बागोर गांव स्थत है। वर्तमान में बागोर में इस स्थान को 'महासती का टीलाÓ इस नाम से जाना जाता है। यह टीला पूर्व से पश्चिम २०० मीटर और उत्तर से दक्षिण इसकी लम्बाई १५० मीटर है। सन् १९६७ में दकन कालेज, पुणे के श्री बी.एन. मिश्र और हीउल वर्ग, जर्मनी के एल.एम. लेश्निक ने इस क्षेत्र का उत्खनन करना प्रारम्भ किया। प्रारम्भिक स्थिति में इन विद्वानों ने इस क्षेत्र को तीन सांस्कृतिक कालों में माना, परन्तु बाद में इसे संशोधित किया गया। अब इस क्षेत्र को दो कालों में विकसित माना- मध्य पाषाण काल और लौहकाल। इसमें भी प्रथम काल को दो उपकालों में विभाजित किया गया (१) प्रथम उपकाल (२) द्वितीय उपकाल। (पुरातत्व विमर्श जयनारायण पाण्डेय-पृ.२७३)
प्रथम उपकाल - इस काल में लघु पाषाण के उपकरण अधिक संख्या में मिले हैं और पशुओं की हड्डियां भी बहुतायत में मिली हैं। लघु पाषाण काल में क्वाटर््ज और चर्ट का मुख्य रूप से प्रयोग हुआ था। जानवरों में चीतल, सांभर, चिन्कारा, हिरण, खरगोश, लोमड़ी आदि जंगली जानवर थे तथा भेड़, बकरी, गाय, बैल, भैंस आदि पालतू जानवर हुआ करते थे। इसके अतिरिक्त यहां मछली, नेवला और कछुए की हड्डियां भी मिली है। इन सब प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहां के लोग उस समय पशुपालन और शिकार किया करते थे। यह काल ५००० वर्ष ई. पू. से २८०० वर्ष ईसा पूर्व माना गया है। (वही-पृ.२७३-७४)
द्वितीय उपकाल - प्रथम उपकाल से सतत इस क्षेत्र का विकास होता रहा। पत्थरों के उपकरणों का स्थान ताम्र उपकरणों ने लेना प्रारम्भ कर दिया। पूर्व की तरह शिकार और पशुपालन होता रहा जो उस काल के जानवरों की हड्डियों के अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है। इस काल में मृद् भाण्डों का भी प्रयोग किया जाता रहा। इनके अवशेषों के अध्ययन से पता चलता है कि ये बर्तन हस्तनिर्मित हुआ करते थे। इन पर अलंकरण भी किया जाता था। यहां पाये जाने वाले ताम्र उपकरण इस बात के द्योतक है कि बागोर का सम्बन्ध उस समय मेवाड़ के अन्य क्षेत्रों और मालवा से हो गया था। अवशेषों में एक भाला और तीन तीर ताम्बे के मिले हैं जो अन्य स्थानों से प्राप्त किये गये होंगे। यहां तीन मानव कंकाल भी मिले हैं जिनकी दिशा पूर्व-पश्चिम है। संभवत इस काल में शवों को दफनाया जाता होगा। उस समय के लोग घास फूस की झोपडिय़ों में रहा करते थे। पशुपालन, शिकार व मिट्टी के बर्तन बनाना उस समय का मुख्य कार्य था। यह काल २८०० वर्ष ई.पू. से ६०० वर्ष ई.पू. माना गया है। (वही प..-२७५)

द्वितीय काल
प्रथम काल के पश्चात् एक लम्बे अन्तराल तक यह क्षेत्र उजाड़ था। उस काल में किसी भी प्रकार के जन जीवन के अवशेष नहीं मिले हैं। उसके बाद के मिले अवशेषों से ज्ञात होता है कि उस समय के लोग पशुपालन और शिकार तो किया करते ही थे साथ ही मिट्टी के बर्तन भी बनाया करते थे। भवनों के निर्माण में ईंटों का प्रयोग किया जाता था। लोहे के उपकरणों का उस समय प्रचलन हो गया था। कृषि कार्य भी होता था इससे ज्ञात होता है कि आहार शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार का था। श्रृंगार करने के उपकरणों में कांच के मनके प्रमुख रूप से मिले है। इस जन जीवन का कालक्रम ईसा पूर्व ४०० वर्ष माना गया है। (वही-पृ. २७५) (क्रमश:)

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