शनिवार, 20 जून 2009

डा. मोहनसिंह मेहता

लगभग 18 वर्ष उदयपुर से बाहर रहने के पश्चात् वे सन् 1967 ई. में उदयपुर आ गये। इसी वर्ष आपने सेवा मंदिर की स्थापना की। सेवा मन्दिर की कल्पना और विद्या भवन का विचार एक ही वक्त के उठाये गये दो कदम थे। सन् 1931 में ही सेवा मन्दिर के लिये जमीन खरीद ली गई थी जिसकी कुल लागत 600/- रू. थी। यही वह जमीन है जहां आज सेवा मन्दिर है। राजस्थान विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् उन्हें किसी राज्य का राज्यपाल बनाने का भारत सरकार का प्रस्ताव भी आया था पर उन्होंने अस्वीकार कर दिया वे अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार समाजसेवा के कार्यों में लग गये।
सेवामन्दिर के कार्य में किसी प्रकार की बाधा न आये इसलिये उन्होंने एक ट्रस्ट बनाया। उस समय उनके पास इतना धन नहीं था कि भवन निर्माण कराये अत: मरसेडीज गाड़ी, जो वे होलैण्ड से लाये थे, 37000/- रू. में बेच कर वहां भवन बनाया और स्वयं का आवास भी वहीं रखा। सबसे पहले निरक्षरता उन्मूलन का कार्य प्रारम्भ किया और पास ही के बड़गांव में 22 फरवरी 1969 को लिटरेसी हाउस लखनऊ की सहायता से इस कार्य का श्रीगणेश किया। उस समय कनाड़ा की वेल्दी फिशर इसकी अध्यक्ष थी और दयाल चन्द सोनी इसके उपनिदेशक नियुक्त किये गये। पास ही के लखावली गांव में इस परियोजना का उद्घाटन हुआ। इसी वर्ष भारत सरकार ने डा. मेहता को `पद्मविभूषण' से सम्मानित किया। (डा. मोहनसिंह मेहता - अब्दुल अहद-पृ. 186)
सेवा मन्दिर का काम प्रौढ शिक्षा के माध्यम से शुरू हुआ। डा. मेहता की मूल सोच यही रही कि लोगों की अज्ञानता ही गरीबी का मूल कारण है। इस आधार पर जब डा. मेहता ने साक्षरता, प्रचार-प्रसार, नाट्य दल, शैक्षिक वार्ताएं आदि के माध्यम से अपना काम शुरू किया तो आगे का रास्ता अपने आप दिखता चला गया। इससे उन्हें नई दिशा मिली कि साक्षरता के साथ-साथ लोगों की रोटी रोजी के लिये उनकी दक्षता का भी निर्माण किया जाय। गांवों की जनता किसान है अत: `िकसान प्रवेशिका' के माध्यम से यह कार्य करने का निर्णय लिया जिसके परिणाम सुखद रहे। किसान प्रवेशिका जो पहले हिन्दी में थी उसे मेवाड़ी एवं वागड़ी की स्थानीय बोली में भी बनाना पड़ा जिसे राजस्थान की अन्य संस्थाओं ने भी अपने कार्यक्रमों के लिये चुना। (वही-पृ.186)
सेवामन्दिर के कार्य की प्रदेश भर में प्रतिष्ठा हो गई। सरकार ने विकास के कार्य भी सेवा मन्दिर को दिये। इसमें `जल विकास' का कार्य अपने हाथ में लिया। सरकार के सहयोग से हमजोली विकास की वह योजना उन्होंने क्रियान्वित की जिसमें कृषि अभियांत्रिकी एवं सहकारिता पर विशेष जोर दिया गया। सेवा मन्दिर के इतिहास का पहला एनीकट निर्माण इसी काल में हुआ। इसी प्रकार महिला विकास का कार्य भी राजस्थान में सर्वप्रथम इसी संस्था ने प्रारम्भ किया। इसी प्रकार सेवा मन्दिर में ही ग्रामीण विकास का प्रकाशन एवं शिक्षा के कार्य को प्रभावी ढंग से करने की दिशा में अलग-अलग प्रकोष्ठ का निर्माण किया गया। चित्तौड़ और जयसमन्द के वार्षिक कैम्प में यह निश्चय किया गया कि सेवा मन्दिर का अपना प्रशिक्षण केन्द्र होना चाहिये जहां ग्रामवासियों को उनकी आवश्यकतानुसार प्रशिक्षित या दक्ष किया जाय। यह केन्द्र उनके जीवनकाल में बन कर तैयार हो गया। (वही-पृष्ठ 187)
सेवा मन्दिर ने 80 के दशक के प्रारम्भ में `सामुदायिक विकास के लिये विकास योजना' पर चर्चा कर यह निर्णय लिया कि सेवा मन्दिर लोक मांग और लोक-आवश्यकता के आधार पर जहां लोग विकास की जिम्मेदारी भविष्य में लेने को तैयार है वहीं कार्य की जरूरत के मुताबिक कार्य करे, लोगों में क्षमता का विकास करें तथा विकास के नये विकल्प लोगों के समक्ष रखे। (वही-पृ.188)
सन् 1984 में डॉ. मेहता का स्वास्थ्य नरम पड़ गया। एक कर्मयोगी की भूमिका निभाते हुए अन्तिम क्षण तक काम करते हुए उन्होंने यह नश्वर शरीर 25 जून सन् 1985 को त्यागा। डा. मेहता ने अपने स्वेद बिन्दुओं से विद्याभवन तथा सेवामन्दिर के विभिन्न संकल्पों को तन्मय होकर सींचा, यही कारण था कि उनके जीवनकाल में संस्था की उत्तरोत्तर प्रगति होती रही। यह इस बात को दर्शाता है कि कितना साफ और नेक मिशन लेकर जिम्मेदारी के साथ आपने कार्य को किया तथा एक-एक कार्यकर्ता को इस मिशन के साथ वे जोड़ते चले गये। (वही- पृ. 191)
कार्यकर्ताओं, उनके परिवारों, उनकी शिक्षा दीक्षा एवं गाहे बगाहे उन्मुक्त चर्चाओं ने कार्यकर्ताओं की टीम बनाने में महती भूमिका निभाई । यह सब डॉ. मेहता के परिश्रम का ही फल था। जब आज हम इन बातों को सोच कर कल्पना करते हैं तो लगता है कि किसी साधारण इन्सान में इतना सब कुछ होना सम्भव नहीं हैं जो कि डा. मेहता में था। वास्तव में हम सबके `भाई साहब' अपने आप में एक संस्था थे।
उन्होंने कभी अपने सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। उनके व्यापक सम्पर्क के कारण संस्था की प्रगति के लिये संस्था के पास पैसा सीधा भी आया और किसी के मार्फत भी। उदाहरण के तौर पर स्वीस फाउण्डेशन से सीधा सम्पर्क कभी नहीं हुआ, यह राशि भी किसी के मार्फत आयी। संस्था को इसकी चिंता कभी नहीं रही कि पैसा किस तरह आता है। जिस प्रकार की भी सहायता किसी भी एजेन्सी से प्राप्त हुई हो सेवा मन्दिर उनकी शर्तों को मानने को तैयार कभी नहीं हुआ।
डा. मेहता द्वारा कहे गये ये शब्द `जठे दुख दरिद्रता अर शोषण है वटे ही सेवा मन्दिर ने काम करवा री जगां है।' आज भी सार्थक हैं तथा इसी मजबूत नींव पर सेवा मन्दिर आज भी अपनी बुलन्दियों को छू रहा है।

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