मेवाड़ वीरों, वीरांगनाऒं की भूमि ही नहीं है अपितु विद्वानों, साहित्यकारों और कवियों की भूमि भी रही हैं। इन विद्वानों को तत्कालीन शासकों का संरक्षण प्राप्त था। इनमें डिंगल, संस्कृत दोनों भाषाऒं में रचनाएं उपलब्ध हैं। ये विद्वान किसी एक युग में ही आविर्भूत नहीं हुए। समय-समय पर आविर्भूत होकर इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाऒं से मेवाड़ को साहित्य की दृष्टि से समृद्ध किया है। इन विद्वानों की रचनाएं कुछ तो प्रकाश में आयी जिनका उल्लेख हमें यत्र तत्र मिलता है। परन्तु कुछ रचनाकारों की रचनाएं प्रकाश में नहीं आयी और यदि प्रकाश में आयी हैं तो उनके रचनाकारों के जीवनवृत्त के बारे में हमें जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाती।
संस्कृत साहित्य के रचनाकारों की भी मेवाड़ में कमी नहीं रही हैं। इनमें यमुनादत्त शास्त्री अपने युग के विद्वान हुए जिन्होंने `वीरतरंग रंग` नामक ग्रंथ की रचना की। यह `दाधीच` ब्राह्मण था और शाहपुरा का रहने वाला था। इनके पूर्वज भी उच्चकोटि के विद्वान थे। शाहपुरा के राजा रणसिंह के पुत्र राजा भीमसिंह (वि.सं. १८३१) के समय श्रीकृष्ण के पुत्र श्री मनोरथराम उत्कृष्ट विद्वान था जिन्होंने भीमसिंह को शिक्षा-दीक्षा देकर विद्या से सम्पन्न किया था। उसी से प्रसन्न होकर राजा भीमसिंह ने उसे गुरू दक्षिणा में एक सहस्र मुद्राएं तथा भूमि प्रदान की थी। उसी परम्परा में यमुनादत्त हुआ था।
पं. यमुनादत्त के पिता का नाम रामनारायण शास्त्री था। इसका जन्म शाहपुरा में वि.सं. १९१९ जेष्ठ शुक्ला अष्टमी के दिन हुआ था। (मेवाड़ का संस्कृत साहित्य डा. चन्द्रशेखर पुरोहित- पृ. १५७) घर पण्डितों का था, अत: शिशु शिक्षा तो घर पर पिता के सानिध्य में ही प्राप्त थी। पिता की इच्छा थी कि वह यमुनादत्त को संस्कृत का अभ्यास कराये, अत: आधारभूत ज्ञान के लिये उसने अपने पुत्र को अध्ययन हेतु श्रीनिवास के पास भेजा, जहां यमुनादत्त ने अपने गुरू से लघु सिद्धांत कौमुदी की शिक्षा प्राप्त की।
उच्च शिक्षा के लिये उस समय सभी काशी अध्ययन करने जाया करते थे। अपने पुत्र में प्रतिभा को देखते हुए पिता रामनारायण ने अपने पुत्र को काशी में प्रकाण्ड पण्डित हरिनाथ शास्त्री के पास भेजा। वहां सात वर्ष तक रह कर यमुनादत्त ने षट् शास्त्रों का सम्पूर्ण अध्ययन किया। लगभग २० वर्ष की आयु में यमुनादत्त काशी के राजकीय संस्कृत कालेज से 'षट् शास्त्री` की उपाधि से विभूषित हुआ।
काशी से लौटने के पश्र्चात राजा नाहरसिंह को आने रामायण का अध्ययन कराया। इसकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर शाहपुरा नरेश ने अपने राजकुमारों की शिक्षा के लिये इसे नियुक्त किया। इनकी देखरेख में राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हुई जिसके फलस्वरूप इसे एक सहस्र मुद्रा देकर राजा ने उनका सम्मान किया साथ ही अपने दरबार में 'राजगुरू` पद देकर इसका सम्मान बढ़ाया।
'यमुनादत्त` बहुआयामी व्यक्त्वि के धनी थे। राजा ने इसकी प्रतिभा को देखते हुए इसे राजस्व विभाग का कार्य भी प्रदान किया जिसे इसने अपनी समता और कुशलता से निभाया। यह उसकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचायक था। यमुनादत्त की इन प्रतिभाऒं के कारण ही इसका सम्मान केवल शाहपुरा में ही नहीं, उदयपुर के राणा भूपालसिंह, किशनगढ़, बून्दी, कोटा के राजाऒं द्वारा किया गया।
पं. यमुनादत्त ने संस्कृत साहित्य की बड़ी सेवा की उनकी रचना वीरतरंग-रंग में शाहपुरा के संस्थापक राजा सुजान सिंह से लेकर राजा नाहर सिंह और उसके पुत्र-पौत्र पर्यन्त ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया गया है। शाहपुरा के राजा सूर्यवंशी मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह (प्र.) के तृतीय पुत्र सूर्यमल्ल के वंशज हैं। सूर्यमल्ल के जेष्ठ पुत्र सुजान सिंह ने शाहजहां को अपने वीरोचित क्रिया-कलापों से सम्पन्न कर फूलिया क्षेत्र के उधर का भू-भाग जो कि शाहजहां के अधीनस्थ था, उसे प्राप्त किया और शाहपुरा नामक नगर बसा कर अपनी राजधानी स्थापित की। (मेवाड़ का संस्कृत साहित्य- डा. चन्द्रशेखर पुरोहित- पृ. १५)़ यह काव्य रचना वि.सं. १९८९ के जन्माष्टमी के दिन लिख कर पूर्ण कर ली गई जिसे राजा नाहर सिंह ने सुना और उसे उम्मेदसागर पर प्रशस्ति के रूप में लगवाया। इसके कुल २२४ श्लोक हैं। (वही पृ.१५७)
वीरतरंग-रंग के अतिरिक्त 'वेदनिर्णय` नामक एक और रचना आपने लिखी है जिसमें करोली राज्य के राज पण्डित के साथ हुए शास्त्रार्थ का वर्णन हैं। सूर्यमल्ल विरचित-वंशभास्कर की भाषा टीका लिखने में आपका सहयोग रहा। इस प्रकार संस्कृत भाषा की महती सेवा के परिणाम स्वरूप संस्कृत कार्यालय अयोध्या के अध्यक्ष 'जगद्गुरू` रामानुजाचार्य ने वि.सं. १९९५ में आपको 'विद्याभूषण` उपाधि से विभूषित किया। इस प्रकार संस्कृत की सेवा में संलग्न रहते हुए आप वि.सं. २००० चैत्र शुक्ला चतुर्थी को स्वर्गवासी हुए।
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