रविवार, 21 जून 2009

मेवाड़ : भौगोलिक पृष्ठभूमि ( Mewar: Geographical Background)

मेवाड़ की भूमि पर प्रकृति की विशेष कृपा रही है। इसकी भौगोलिक स्थिति प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से यहाँ के राणाओं के लिए मददगार ही साबित होती रही है।

राज्य की सीमाएँ समय-समय पर बदलती रही हैं। जब मेवाड़ अपने उन्नति की पराकाष्ठा पर था, तब इसका विस्तार उत्तर-पूर्व में बयाना तक, दक्षिण में रेवाकण्ठा तथा महिकण्ठा तक, पश्चिम में पालनपुर तक तथा दक्षिण-पूर्व में मालवा तक था। समय के साथ-साथ सीमाओं में परिवर्तन होते रहे थे। मतलबी लोगों ने विभिन्न बहानों से राज्य के छोटे-छोटे क्षेत्रों को दबा लिया। किसी ने फौज देने के बहाने से, किसी ने गिरवी के तौर पर, किसी ने नौकरी के एवज में तो किसी ने आपसी फूट का मौका देखकर।

मेवाड़, राजपूताना के दक्षिण भाग में स्थित है। यह उत्तर अक्षांश २५ ५८' से ४९ १२' तक तथा पूर्व देशांतर ४५ ५१' ३०' से ७३ ७' तक फैला हुआ है। लंबाई उत्तर से दक्षिण तक १४७.६ मील तथा चौड़ाई पूर्व से पश्चिम तक १६३.०४ मील था। कुल विस्तार १२,६९१ वर्ग मील में था। इसके उत्तर में अजमेर- मेरवाड़ा प्रदेश तथा शाहपुरा राज्य थे, पश्चिम में सिरोही, दक्षिण-पश्चिम में इडर, दक्षिण में डुंगरपुर, बांसवाड़ा का कुछ हिस्सा तथा प्रतापगढ़ के राज्य थे, पूर्व में नीमच व निंबाहेड़ा के जिले तथा बूंदी और कोटा राज्य थे।

कोटा सिर्फ भैंसरोड़ के पास इस राज्य के एक निकले हुए जमीन के टुकड़े से स्पर्श करता है, जिसके दक्षिण में होल्कर का जिला रामपुरा है। अग्निकोण में कई रियासतों के हिस्से हैं और टौंक, ग्वालियर व इंदौर की अमल्दारी के छोटे-छोटे टुकड़े चारों तरफ मेवाड़ की भूमि से घिरे हुए हैं। सिंधिया के कुछ गाँव जो एक-दूसरे से दूरी पर हैं तथा मिलकर गंगापुर परगना बनाते हैं, मेवाड़ के बीचों-बीच पड़ते हैं।

मेवाड़ प्रदेश अपनी भौगोलिक विशेषताओं के लिए भी विख्यात रहा है। रियासत के उत्तर व पूर्वी हिस्से में ऊँची-नीची जमीन बहुत दूर तक फैली हुई है। इस हरे-भरे उपजाऊ पठारी क्षेत्र को उत्तरमाल कहते हैं। ईशान कोण पर जमीन कुछ ढ़लाऊ है। बनास तथा उसकी सहायक नदियाँ अरावली के पहाड़ से निकलकर पहले चंबल तथा अंत में यमुना तथा गंगा के साथ मिल जाती है। पहाड़ियाँ अलग-अलग व समुहों दोनों में है। छोटे ऊँचाई की पहाड़ियाँ तो समस्त रियासत में फैली है। उदयपुर नगर समुद्र-तल से १९५७ फीट तथा देवली स्थान १९२२ फीट ऊँचा है।

मेवाड़ का मध्य भाग मैदान है, जहाँ अरावली पर्वत से निकलने वाली नदियों के जल सिंचित हरे-भरे खेत दृष्टिगत होते हैं। अरावली पर्वत की ऊँचाई अजमेर-मेरवाड़ा की तरफ समुद्र की सतह से २३८३ फुट है। इसकी चौड़ाई कुछ कम है, लेकिन दक्षिण-पश्चिम की तरफ इसकी ऊँचाई बढ़ती जाती है। यह ऊँचाई कुंभलगढ़ पर ३५६८ फुट है तथा जर्गा पर इसकी सर्वोच्च चोटी समुद्र की सतह से ४३१५ फुट ऊँची है। इन पर्वतीय प्रदेश में कई तंग घाटियाँ भी हैं, जो यातायात की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है। इन घाटियों में सर्वाधिक घाटी जीलवाड़े के पास है, जो जीलवाड़ा की नाल व पागल्या नाल के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी लंबाई लगभग ४ मील है। उत्तर-पूर्व हिस्से से भिन्न, दक्षिण और पश्चिम का हिस्सा चट्टानों, पहाड़ियों व घने जंगलों से ढ़का हुआ है।

दक्षिण की तरफ पहाड़ियों की ऊँचाई बढ़ती गई है, वहीं घाटियाँ नीची होती गई है। ऊपरी हिस्से

की अपेक्षा जंगल अधिक सघन है, लेकिन इसके ऊँचे-नीचे हिस्से को पार करने के बाद खुली हुई भूमि है, जिसमें बहुत से गाँव बने थे तथा खेती-बाड़ी होती थी। रियासत के दक्षिण का यह जंगली भाग छप्पन के नाम से जाना जाता है।

मेवाड़ के पश्चिम की ओर की समस्त पहाड़ी दूरी दक्षिण में डूंगरपुर की सीमा से उत्तर में सिरोही व मारवाड़ की सीमा तक मगरा कहलाती थी। इस हिस्से का बहाव दक्षिण की ओर है, जिसमें खंभात की खाड़ी में गिरने वाली नदी के मुख्य सोतें

है।


मेवाड़ की जलवायु

The climate of Mewar




मेवाड़ का जलवायु सामान्य रुप से आरोग्यप्रद समझा जा सकता है। पहाड़ी क्षेत्र में स्थिति कुछ अलग है। वहाँ के जल में खनिज का अंश अधिक होता है। वहाँ रहने वाले लोगों में से कुछ बारिश के अंत में मलेरिया ज्वर से पीड़ित हो जाते हैं। तिल्ली की शिकायत भी उनमें अधिक होती है। भूमि की ऊँचाई के कारण यहाँ सर्दी के दिनों में न तो अधिक सर्दी होती है और न ही उष्णकाल में अधिक गर्मी पड़ती है।



मेवाड़ में वर्षा

Mewar in the rain




मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में वर्षा का औसत २४ इंच है। पहाड़ी क्षेत्र में यह २६ से ३० इंच तक हो जाता है। कभी- कभी मुसलाधार बारिश हो जाती है। सन् १८७५ (वि.सं. १९३२) की भयानक वrshaa से कई नदियों के पुल टूट गये तथा जान माल की अपार क्षति हुई।


मेवाड़ की जमीन और पैदावार

Land and production of Mewar

यहाँ की समतल भूमि पैदावार के लिए बहुत अच्छी है। उनके खरीफ (सियालू), तथा रबी (आलू) दोनों फसलें होती है। यहाँ पैदा होने वाले फसलों में गेहूँ, मक्की, ज्वार, मूंग, उड़द, चना, चावल, तिल, सरसों, जीरा, धनिया, रुई, तंबाकू, ईख तथा अफीम मुख्य हैं। रबी की फसल में विशेषकर कुओं तथा कुछ हद तक तालाबों से सिंचाई की जाती है। पहाड़ी प्रदेश में पैदावार कम तथा सीमित है। ढलुआ क्षेत्रों में, जहाँ हल नहीं चल सकते, जमीन को खोदकर खेती की जाती है। इस प्रणाली को यहाँ वालरा (वल्लर) कहते हैं। ऐसे क्षेत्र की मुख्य फसल तो मक्का है, लेकिन पहाड़ियों के बीच के हिस्सों में, जहाँ पानी भरा रहता है, चावल भी पैदा होता है। मेवाड़ क्षेत्र में पैदा होने वाले व्यापारिक फसलों में अफीम और रुई प्रमुख है। वैसे अफीम की खेती अब सीमित हो गयी है।

मेवाड़ में रेलवे

Mewar in Railway


मेवाड़ से होकर गुजरने वाले रेलवे मार्गों में अलमेर से खंडवा तक जाने वाले मार्ग पर रुपाहेली से लेकर शंभुपुरा तक के सभी स्टेशन मेवाड़ क्षेत्र में पड़ते है। चित्तौड़गढ़ जंक्शन से उदयपुर तक के बीच ६९ मील लंबा रेलमार्ग उदयपुर राज्य की तरफ से बनाई गई थी, जो उदयपुर- चित्तौड़गढ़ रेलवे के नाम से जानी जाती थी। अब इसी मार्ग को आगे बढ़ाते हुए कोटरा होते हुए डुंगरपुर के तरफ ले जाया गया है। एक अन्य रेलमार्ग बड़ी सादड़ी से शुरु होकर करनोड़, मालवी, राजसमंद, आमेट और देवगढ़ होते हुए मारवाड़ क्षेत्र में प्रवेश कर जाती है।



मेवाड़ में सड़क मार्ग

Mewar in the road




मेवाड़ क्षेत्र के व्यावसायिक और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण करीब सभी स्थानों को सड़क मार्ग से जोड़ने की कोशिश की गई है। चूंकि रेलमार्ग सीमित है, अतः यातायात में सड़क मार्ग का ही विशेष महत्व है। नसीराबाद (राजस्थान) से लेकर नीमच (मध्यप्रदेश) के बीच बनी सड़क, उन पुराने मार्गों में से एक हैं, जो मेवाड़ क्षेत्र में माण्डल, भीलवाड़ा, गंगारार, चित्तौड़गढ़ तथा निंबाहेड़ा होकर गुजरती है। मेवाड़ राज्य की तरफ से बनने वाले कुछ मार्ग हैं-

१. उदयपुर से खैरवाड़े तक
२. उदयपुर से नाथद्वारा तक
३. उदयपुर से जयसमुद्र तक
४. उदयपुर से चित्तौड़गढ़ तक
५.नाथद्वारा से कांकड़ोली तक

वर्तमान में कई अन्य स्थलों को सड़क मार्ग से जोड़ दिया गया है, जिनका उल्लेख इस प्रकार है-

१. प्रतापगढ़- सलुम्बर- जयसमंद- उदयपुर- गोगुंदा
२ सलुम्बर- सराडा- परसाद
३. अरनौद- प्रतापगढ़- छोटी सादड़ी- बड़ी सादड़ी- वल्लभनगर- उदयपुर
४. बाँसवाड़ा- घाटोल- दरियाबाद- लसारिया- वल्लभनगर- उदयपुर
५. निंबाहेड़ा- वल्लभनगर- उदयपुर
६. सोम- फलासिया- झाड़ोला- उदयपुर
७. उदयपुर- देलवाड़ा- कोठारीया- गंगापुर- भीलवाड़ा- बूंदी
८. बदनोर- आसीद- बागोर- गंगापुर
९. बदनोर- बनेड़ा- शाहपुरा- जहाजपुर
१०. देसुरी- केवला- कोठारीया
११. माण्डलगढ़- भीलवाड़ा-गंगापुर- राजसमंद

इसके अलावा भारत सरकार की नई सड़क निर्माण योजनाओं के अंतर्गत आने वाले स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क मार्ग तथा पूर्व- पश्चिम गलियारा भी मेवाड़ क्षेत्र से होकर गुजरती है। स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क मार्ग परसाद, उदयपुर, हल्दी घाटी, कांकरोली नाथद्वारा तथा कुंभलगढ़ होते हुए आगे बढ़ती है।

पुर्व- पश्चिम गलियारे का सड़क मार्ग गोगुंदा, उदयपुर, खेमली, मावली, कपासन, चित्तौड़गढ़, मेनाल तथा बिजोलिया होते हुए कोटा के तरफ चली जाती है।

मेवाड़ की नदियाँ

Rivers of Mewar





मेवाड़ में वर्ष भर प्रवाहित होने वाली कोई नदी नहीं है। चंबल नदी मेवाड़ के कुछ प्रदेशों से (कोटा के निकट) होकर अवश्य बहता है, किंतु इसे मेवाड़ की नदी नहीं कहा जा सकता। यहाँ की सर्वाधिक महत्वपूर्ण नदी बनास है, जिसका उद्गम स्थल अरावली पर्वतमाला में कुंभलगढ़ के पास है। यहाँ से प्रवाहित होती हुई यह नदी मैदानी भाग में पहुँचती है और अंत में मांडलगढ़ (उदयपुर के उत्तर-पूर्व में लगभग १०० मील की दूरी पर स्थित) के निकट बेड़च नदी इसमें आकर मिल जाती है। इस स्थान को त्रिवेणी तीर्थ माना जाता था। अन्त में यह अजमेर तथा जयपुर रियासत की सीमा में पहुँच जाती है तथा चंबल में जा मिलती है।

बनास के अतिरिक्त खारी, मानसी, कोठारी, बेड़च, जाकम तथा सोम इस प्रदेश की मुख्य नदियाँ हैं। खारी उत्तर की ओर पड़ने वाली पहली नदी है, यह दिवेर जिल की पहाड़ियों से निकलती है तथा अन्त में बनास नदी में जा मिलती है। इसके दक्षिण में कुछ मील के अंतर पर इसकी सहायक नदी मानसी ६० मील तक इसके समानान्तर बहती है और अजमेर की सीमा के फुलिया के समीप इसमें मिल जाती है। खारी के दक्षिण की तरफ कोठारी (कोटेशरी) नदी बहती है, जो अरावली पहाड़ों से निकलकर दिवेर के दक्षिण तरफ से ९० मील बहने के बाद नन्दराम से एक कोस की दूरी पर बनास में जा मिलती है। बनास के ही दक्षिण में बेड़च बहती है, जो उदयपुर के पश्चिम की पहाड़ियों से निकलती है, लेकिन उदयसागर तालाब में गिरने से पहले आहड़ की नदी कही जाती है। इसके बाद उदयसागर का नाला कुछ दूरी पर बेड़च कहा जाता है। अंततः यह चित्तौड़ होते हुए आगे बढ़ती है तथा बनास में जा गिरती है। जाकुम छोटी सादड़ी के समीप से निकलती है। कुछ आगे बाईं तरफ से उसमें करमरी आ मिलती है, फिर वहाँ से अन्ततः सोम में जा मिलती है। यह अपना समस्त बहाव चट्टानों व जंगलों में रखती है और यही कारण है कि यह कई स्थानों पर रमनीक आभा देते हैं। रियासत के समस्त नैॠत्य कोण के हिस्से का तथा जय समन्द के निकास का पानी सोम नदी में जाता है, जो वहाँ पश्चिम से पूर्व की ओर बहती है। फिर दक्षिण में बबराना गाँव के पास मुड़कर मही में जा गिरती है।


मेवाड़ की झीलें

The lakes of Mewar



प्राकृतिक तथा कृत्रिम झीलों की दृष्टि से मेवाड़ अत्यन्त समृद्धशाली है। रियासत की राजधानी, उदयपुर को तो झीलों की नगरी कहा जाता है। मेवाड़ की चार झीलें उल्लेखनीय है। पिछोला, उदयसागर, राजसमन्द (राजसमुद्र) तथा जयसमन्द (जयसमुद्र)। इनमें पिछोला झील सर्वाधिक प्राचीन है तथा जयसमन्दर झील मानव निर्मित झीलों में सर्वाधिक विशाल झील है। यह झील महाराणा जयसिंह ने सन् १६८७ से १६९१ ई. (विक्रमी १७४४ से १७४८) के बीच उदयपुर से ३२ मील दक्षिण में एक स्थान पर बनाया था। इसकी लम्बाई ९ मील तथा चौड़ाई ६ मील है। इसकी अधिकतम गहराई ८० फीट है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई ९६० फीट है। पहाड़ों के बीच संगमरमर का एक सुन्दर व मजबूत सा बाँध बनवाया गया था। बाद में सन् १८७५ (संवत् १९३२) में वैकुण्ठवासी महाराणा सज्जन सिंह ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। इसके पूर्वी किनारों पर गुम्बदाकार महल हैं तथा मध्य में एक बड़ा मंदिर है। जिसके दोनों तरफ झील के अग्निकोण पर पानी का निकास है, जहाँ से एक धारा सोम नदी में जा मिलती है।

राजसमन्दर उदयपुर से करीब ४० मील उत्तर की ओर है। इसकी लम्बाई ४ मील तथा चौड़ाई १.७५ मील है। इसके निर्माण का आरम्भ महाराणा राजसिंह ने सन् १६६२ (संवत् १७१८) में किया तथा यह १४ वर्षों में बनकर तैयार हो गया। यह तालाब मैदानी क्षेत्र में पड़ता है जहाँ पर गोमती नामक एक छोटी सी नदी तीन मील के लम्बे संगमरमर निर्मित अर्द्धवृत्ताकार बाँध से रोकी गई है। बांध पर ही द्वारिकानाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। बांध के ऊपर मण्डपदार गृह है, जिनको नौ चौकिया कहते हैं।

उदयसागर झील उदयपुर से करीब ६ मील की दूरी पर पूरब की तरफ है। इसकी लम्बाई २.५ मील तथा चौड़ाई २ मील है। पानी एक ऊँचे बांध से रुका हुआ है। आहाड़ नदी इस झील का मुख्य जल स्रोत है तथा निकास से बेड़च निकलती है। आसपास की पहाड़ियाँ घने जंगल से ढकी हुई है।

मेवाड़ की राजधानी उदयपुर में निर्मित पीछोला झील १५ वीं सदी विक्रमी में महाराणा लाखा के समकालीन किसी बंजारे ने बनवाया था। इसकी लम्बाई २.२५ मील तथा चौड़ाई १.५ मील है। सन् १७९५ (वि. सं. १८५२) में इसपर बनाया गया बांध टूट गया था, जिससे भारी क्षति हुई थी।

इसके अलावा दो अन्य तालाब ग्राम बड़ी और देवाली के हैं। रियासत के उत्तर और पूर्वी हिस्से जैसे घासा, सेंसरा, कपासन, लाखोला, गुरला, मांडल, दरौची, भटेवर और भूताला आदि में भी तालाबें हैं।

मेंवाड़ की भूमि संरचना

Menvadh structure of land





अरावली पर्वत जिसका झुकाव नीचे को प्रायः पूर्व की ओर है, मुख्यतया ग्रेनाइट का बना है। भीतरी घाटियों में कई प्रकार के क्वाट्र्ज पत्थर तथा स्लेट भी विद्यमान हैं। बीच में नीस और साइनाइट के चट्टान भी पाए जाते हैं। नीस चट्टानें घाटियों की नीचे वाले तहों में उपलब्ध है। खैरवाड़ा के दक्षिण में रतीला पत्थर, हार्न सिल्वर पौरफिरी आदि मिलते हैं। असके अलावा जावर के निकट अबरक की मिट्टी और क्लोराइड स्लेट। पाया जाता है। नीले और लाल मार्लस और सड़ी मिट्टी के पत्थर भी खैरवाड़ा तथा जावर के आसपास मिलते हैं।

इस क्षेत्र में पाये जाने वाले विभिन्न तरह के पत्थरों का इस्तेमाल निर्माणादि कार्य के लिए होता रहा है। उदयपुर के निकट सामान्य गेलेराइट तथा बैसाल्ट पाये जाते है। यहाँ से कुछ मील दूर देवी माता के निकट से ट्रोपिअन चट्टानें मिल जाती हैं। ढेवर के निकट व देबारी की पहाड़ियों में रेतीला पत्थर बहुतायत में पाया जाता है। देबारी के पत्थर अधिक मुलायम हैं। महुवाड़ा, ढीकली आदि गाँवों में गुलाबी रंग के पत्थर पाये जाते हैं, जो चक्की बनाने के काम मे आते हैं। उदयपुर से करीब २ मील के फासले पर आसमानी व सफेद रंग के पत्थर मिलते हैं। इनमें चूने की मात्रा बहुतायत मे होती है। राजनगर में अच्छे कि के संगमरमर निकाले जाते हैं। इस संगमरमर से विभिन्न कार्यों हेतु चूना भी निकाला जाता है। चित्तौड़ में काला-पत्थर (संग मूसा) पाया जाता है, जो अपनी गुणवत्ता के लिए जाना जाता है। ॠषभदेव और खैरवाड़ा के बीच फैले भाग में दाग वाला पत्थर निकलता है, जिससे विभिन्न कलाकृतियाँ बनाकर बेची जाती है। मेरवाड़ा और खैराड़ के पहाड़ी जिलो में शिस्ट पत्थर पाये जाते हैं। मगरी में नीस बहुतायत में है। कंकर पहाड़ों में नहीं पाया जाता, परन्तु मैदानी भागों में बहुत मिलता है।

नोट - वह स्लेट जिसमें क्लोरीन का अंश अधिक पाया जाता है।

मेवाड़ के जंगल

The wilderness of Mewar


अरावली पर्वत प्रायः बांस और छोटे-छोटे वृक्षों से ढका हुआ है। नदियों के किनारों पर उगने वाले वृक्षों के सिवा और वृक्ष अत्यन्त ही छोटे हैं। लेकिन वानसी और धरयावद के जंगल जो रियासत के अग्नि कोण पर हैं, आर्थिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं। यहाँ की लकड़ियाँ बहुमूल्य हैं। घटियों में महुवा व आम बहुत होते हैं। रियासत की छोटी-छोटी पहाड़ियाँ भी अच्छी तरह ढकी हुई हैं।



मेवाड़ के पहाड़ व नालें

Nalen and the mountain of Mewar






मेवाड़ रियासत में अरावली पर्वत का अच्छा खासा फैलाव है। पर्वत की संकड़ी समानान्तर परस्पर रगड़ खाकर चिकने व गोल बने हुए पाषाणों की पहाड़ियाँ अलग से देखी जा सकती हैं। ये समानान्तर पहाड़ी पंक्तियाँ पश्चिम की तरफ प्रायः ईशान कोण की ओर चली गई हैं तथा धीरे-धीरे पश्चिम की ओर मुड़ गई है जहाँ से अग्नि-कोण में आगे बढ़ते हुए टूटती हुई पृथक होती चली जाती है।

इस पर्वतीय प्रदेश में कई तंग घाटियाँ भी हैं जो यातायात की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है। साथ ही साथ इनका सामरिक महत्व भी हैं। इन घाटियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण घाटी जीलवाड़ा के पास है जो जीलवाड़ा की नाल व पागल्या नाल के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी लम्बाई लगभग ४ मील है तथा चौड़ाई संकड़ी है, सिर्फ जीलवाड़ा गाँव के पास वाले टीले की चोटी से नीचे की तरफ उतार आसान है। इसके अतिरिक्त मेवाड़ और मारवाड़ को मिलाने वाली देसूरी की नाल, सोमेश्वर की नाल, हाथी गुड़ा की नाल तथा भागपुरा की नाल है।

देसूरी जो मारवाड़ के नाल के नीचे है, एक छोटी चट्टानी पहाड़ी के करीब स्थित एक गाँव है। सोमेश्वर नाल देसूरी से ही कुछ मील दूर उत्तर की ओर है। यह बहुत लम्बी और विकट है।

देसूरी से दक्षिण की ओर लगभग ५ मील की दूरी पर हाथी गुड़ा की नाल है। इस नाल के ठीक ऊपर एक मोर्चा बन्द फाटक था जहाँ मेवाड़ के सिपाहियों का पहरा रहता था। कुम्भलगढ़ का पहाड़ी किला इस नाल के ठीक ऊपर ही था। इस नाल के सम्बन्ध में कहा जाता है कि जिस समय महाराणा कुम्भा कुम्भलगढ़ में रहता था, उस समय राणा के हाथियों को इसी नाल के पास रखा जाता था। हाथियों की देख भाल के लिए नियुक्त व्यक्तियों ने यहाँ एक छोटी सी बस्ती बसा ली थी जो हाथी गुड़ा कहलाती थी। इस बस्ती के पास स्थित होने के कारण यह नाल हाथी गुड़ा की नाल के रुप में जाना जाने लगा। इस नाल के किनारों पर घने जंगल हैं जो अति रमणीक स्थान हैं। नाल में जो लोग लड़ाई में मारे गये उनके बहुत से चबूतरे बने हैं।

भाणपुरा की नाल जो घाणेराव से ६ मील दक्षिण की ओर है, राणपुर के जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध हैं।

रियासत के दक्षिण की ऊँची जमीन से नीचे की ओर दोमार्ग उल्लेखनीय हैं - एक बानसी से दक्षिण मे धरयावद होकर बांसवाड़ा तक तथा दूसरा उदयपुर से सलूंबर होकर डूंगरपुर तक। इन रास्तों से गाड़ियों के आने-जाने की तो व्यवस्था नहीं थी पर यद्दु जानवर आते-जाते थे।

रियासत के पूर्वी किनारे पर पहाड़ियों का एक समूह है जो उत्तर और दक्षिण की तरफ की समानान्तर संकड़ी घाटियाँ बनाता हुआ चला गया है। सबसे बड़ी घाटी के रुप में विजयपुर का एक छोटा कस्वा है। पहाड़ियों की औसत ऊँचाई १८५० फीट के आस-पास है। यहाँ का बहाव अक्सर उत्तर और दक्षिण की ओर है। उत्तर की तरफ का बहाव सीधा बड़ेच तक है और दक्षिण का बहाव गंभीरी नाम की छोटी नदी में जा मिलता है जो पश्चिम की तरफ बहकर पहाड़ियों को घेरती हुई चित्तौड़ के पास बड़ेच में मिल जाती है।

चित्तौड़ से पश्चिम की ओर की भूमि खुली हुई है। बंजर जमीन के बड़े-बड़े टुकड़े देखने को मिलते हैं। कहीं कहीं छोटी पहाड़ियाँ व ऊँची जमीन न आती है। नैॠत्य कोण की ओर पहाड़ियाँ अधिक उँची और जंगल से ढकी है। इन ऊँची पहाड़ियों का दृश्य सुहाना है, खासकर सफेद चट्टानों के कारण। वनाच्छादित होते जाने के बावजूद इसका ऊपरी भाग दिखता रहता है।

बड़ी सादड़ी से जाकुम तक एक ऊँचे पहाड़ियों की पंक्ति अग्नि कोण में स्थित हैं ये पहाड़ियों की पंक्ति अग्नि कोण में स्थित हैं। ये पहाड़ियाँ एक बड़े चौड़े और सघन जंगल से ढकी हुई जमीन वाली एक बड़ी घाटी की पश्चिमी सीमा है जहाँ की जमीन नीची है। वास्तव में यह पहाड़ियाँ विंध्याचल की शाखा हैं जो अरावली में मिल जाती है।


मेवाड़ रियासत में पाये जाने वाले धातु और कीमती पत्थर

Mewar estate and precious metals found in the stone



मेवाड़ रियासत में धातुओं व कीमती पत्थरों का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता था। पोटलां, जावर व दरीबर की खानों से सीसे निकाले जाते थे। जावर उदयपुर से दक्षिण की ओर १८ मील की दूरी पर है तथा खंडहर की हालत में है। इसके पश्चिम तरफ एक छोटी नदी बहती है वहाँ के आसपास की दीवारें केवल प्राचीन घरियों से बनी हुई है जिसका इस्तेमाल धातु गलाने के काम में किया जाता है। इस बात से इसकी प्रबल संभावना है कि वहाँ पहले धातु गलाई जाती थी। इस स्थानों पर पुनः उत्खनन के लिए खुदाई भी की गइर् तथा अशोधित सीसा (गैलेना) पाई गई। यहाँ मिले चाँदी के अपर्याप्त अंश की वजह से, अधिक लागत मूल्य हो जाने के कारण कार्य के लिए दरबार से वित्तीय सहायता नहीं मिल पायी थी।

मांडलगढ़ जिले के गुंहली गाँव में, जहाजपुर जिले के मनोहरपुर में गंगार में रेलवे लाइन पर और पारसोला में भी, जो बड़ी सादड़ी से कुछ मील दक्षिण की ओर है, लोहे के खनन का कार्य अभी तक जारी है। खान में काम करने वाले लोग कच्ची धातु को गलाने के लिए हवा से तप्त होने वाली भट्टियाँ रखते थे। धातु शोधन के लिए नमक का प्रयोग यहाँ पहले से ही होता आ रहा था जो बाद के समय की तरकीब समझी जाती है।

सादड़ी, हमीरगढ़ और अमरगढ़ जिलों में पुरानी खानें थी। रियासत की दक्षिणी पहाड़ियों में बेदावल की पाल और अनजेनी के बीच लोहे तथा ताँबे की खानें थी। उदयपुर के निकट केवड़ा की नाल में भी बहुत सी प्राचीन खानें हैं। एक बहुमूल्यपत्थर रक्तमणि मांडल, पुर और भीलवाड़ा के जिलों में तथा दरीबा में बड़े पैमाने पर पाया जाता है।

नोटः - प्राचीन प्रशस्तियों के अनुसार इसका नाम जोगिनीपुर है। इस नाम की बुनियाद एक देवी के स्थान से है, जिसको लोग जावर की माता के नाम से पुकारते

हैं।










मेवाड़ रियासत के जंगली व घरेलू पशु-धन

Wild and domestic animals of the Mewar state - money

अन्य स्थानों की तरह मेवाड़ में भी मांसाहारी, चृणचर व उड़नेवाले हर तरह के पशु पक्षी मिलते हैं। इनमें से कुछ मुख्य जानवर निम्नांकित हैं।



सिंह

सिंह अरावली पर्वत, खैराड़ व डपरमाल आदि इलाकों में बहुतायत में थे तथा आस पास के गाँवों के चौपायों को इनका खतरा बना रहता था। कालनुक्रम में निरन्तर शिकार के कारण इनकी जनसंख्या कम हो गई थी।

शेर

इसको बघेरा या अघबेसरा भी कहते हैं और टीनरया, चौफूल्या आदि नाम से इसके और भी भेद हैं। यह पहाड़ियों पर पाये जाते थे। छोटे चृणचर जानवरों को मारकर यह गुजारा करता था।

चीता

यह मेवाड़ के हुरड़ा, भीलवाड़ा और चित्तौड़ जिलों में पाये जाते थे। यह महाराणा के शिकारी कारखानों में हिरण की शिकार के लिए रखे जाते थे।

भेड़िया

मेवाड़ी में इसे बरघड़ा और ल्याली कहते हैं। छोटे जानवरों का भक्षण कर अपना काम चलाता है।

बन्दर

यहाँ की प्रजाति के बन्दर काले मुँह वाले, सफेद रंग के होते हैं।

रीछ

यह पूर्वी, पश्चिमी व दक्षिणी पहाड़ों में अक्सर मिलता है।

सांभर

यहा एक तृणचर पशु है। चीतला सांभर जिसके बदन पर सुनहरे रंग के सफेद धब्बे होते हैं, दक्षिणी जयसमंद तथा पश्चिमी पहाड़ों पर झुंडों में मिलता है तथा शिकार के रुप में इस्तेमाल होता है।

हरिण

इसकी कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं। कोई काला और छीकला और कोई चौसींगा (चार सिंगों वाला) जिसको भेड़ला और कहीं-कहीं बूटाड़ भी कहते हैं।

जरख

यह मेवाड़ में बहुतायत में मिलता है। ग्रामीण लोगों की मान्यता रही है कि इस पर डाकिन सवारी करती है, इस लिए इसे यहाँ डाकिन का घोड़ा भी कहा जाता है।

इसके अलावा जंगलों में सिकारगोश (कुत्ते से कुछ छोटे कद का मांसाहारी जानवर), जंगली कुत्ता, सूअर, लोमड़ी, हाथी आदि कई जानवर मिलते हैं।

पालतू जानवरों में हाथी, घोड़े, भैंस, गाय, बकरी, भेंड़, गदहा आदि मुख्य हैं। ऊँट पालने का प्रचलन कम रहा है। घोड़े महाराणा स्वरुप सिंह के समय तक राजपूतों के घरों बहतायत में पालतु पशु के रुप में

रखे जाते थे। उड़ने वाले पालतू पक्षियों में सफेद बत्तक, मुर्गा व कबूतर प्रमुख है। जंगली पक्षियों के रुप में गिद्ध, ढ़ीच, चील, शिकरा, कौवा, तोता, कबूतर, मोर, जंगली मुर्गे, कोयल, पपीहा, तीतर बटेर, हरियल आदि अनेक पक्षियों का नाम लिया जा सकता है। इसके अलावा कई अनेकानेक पक्षी कुछ खास मौसमों में यहाँ प्रवास के लिए आते रहते हैं।






मेवाड़ में सिंचाई

Mewar in irrigation





पहले सिंचाई की कोई सुनियोजित व्यवस्था नहीं थी। सतह के बीच की जमीन कठोर होने के कारण कुआँ बनाने का कार्य प्रायः बड़ा परिश्रम वाला व खर्चीला रहा है। अति गहरे कुएं जिन्हें अखाड़ा कहते हैं। सीमित जल अपव्यय से ही सूख जाया करते है। इससे बहुत ही सीमित क्षेत्र में सिचाई का कार्य संभव हो पाता है। नदियों की, जिसमें अधिकांश बरसाती है, सिचाई में मुख्य भुमिका रही है। नदियों के दोनों तरफ की

जमीन में पानी बहुत दूर तक चला जाता है, जिससे सतह के पास ही पानी प्रचुरता में मिल जाता है। इन स्थानों को सेजा कहते हैं। चूंकि ऐसे स्थानों पर पानी कम ऊँचाई पर मिल जाते है, अतः इसे बनाने में भी कम व्यय लगता है। सेजा कुओं की औसत गहराई २५-३० फीट होती है, वहीं अखारे की गहराई ४५-५० फीट तक की होती है।

मेवाड़ के पूर्वी तथा उत्तरी हिस्से में चरस और दक्षिण तथा पश्चिम हिस्से में रहट का अधिक इस्तेमाल है। फिर भी ज्यादातर मेवाड़ी किसान शुरु से ही बरसाती नदियों पर ज्यादा आश्रित रहे हैं।



मेवाड़ में काल गणना व उत्सव

Mewar Festival, and in the calculation period





विक्रमी चैत्र शुक्ल १
चैत्र शुक्ल ८
चैत्र शुक्ल ९
वैशाख कृष्ण १
वैशाख कृष्ण २
वैशाख शुक्ल ३
वैशाख शुक्ल १४
ज्येष्ठ शुक्ल ११
आषाढ़ शुक्ल १५
श्रावण कृष्ण १
श्रावण कृष्ण
श्रावण शुक्ल ३
श्रावण शुक्ल १५
भाद्रपद कृष्ण ३
भाद्रपद कृष्ण ८
भाद्रपद कृष्ण १२
भाद्रपद कृष्ण १४
भाद्रपद शुक्ल ४


भाद्रपद शुक्ल ७
भाद्रपद शुक्ल ११
भाद्रपद शुक्ल १२
भाद्रपद शुक्ल १४
सुखिया सोमवार
भाद्रपद
भाद्रपद कृष्ण ११ से भाद्रपद शुक्ल ४
आश्विन शुक्ल १
आश्विन शुक्ल २
आश्विन शुक्ल ३
आश्विन शुक्ल ४
आश्विन शुक्ल ५
आश्विन शुक्ल ६
आश्विन शुक्ल ७
आश्विन शुक्ल ८
आश्विन शुक्ल ९
आश्विन शुक्ल १०
आश्विन शुक्ल १५


कार्कित्तक कृष्ण १३
कार्कित्तक कृष्ण १४
कार्कित्तक कृष्ण अमावस्या
कार्कित्तक शुक्ल १
कार्कित्तक शुक्ल २
कार्कित्तक शुक्ल ३
कार्कित्तक शुक्ल १५
मार्गशीर्ष कृष्ण १
पौष शुक्ल १५
माघ शुक्ल ५
माघ शुक्ल ७
फाल्गुन शुक्ल ११
फाल्गुन कृष्ण १४
फाल्गुन शुक्ल १५
चैत्र कृष्ण १
चैत्र कृष्ण २
चैत्र कृष्ण ५
चैत्र कृष्ण ७







मेवाड़ में काल गणना के लिए विक्रम संवत् को आधार माना जाता रहा है। चूंकि चंद्रोदय से तिथि का ज्ञान बिना गणित की खास मदद से संभव था, अतः शुरुआत में यहाँ भी संभवतः चंद्र मास व चंद्र वर्ष की संकल्पना थी। बाद में गणित विद्या के प्रसार होने के बाद सौर मास व सौर्य वर्ष को मान्यता देने की बात आई। परंतु चंद्र मास की तिथियों पर बहुत से धर्म संबंधी कार्य नियत हो जाने से चंद्र मास का बदलना कठिन हो गया। तब गणितकारों ने सौर मास बनाकर उसको १२ लग्न अर्थात १२ संक्राति के नाम से जारी किया, लेकिन यह प्रचार कुछ वर्ग विशेष तक ही सीमित रह गया। तब चंद्र मास को ही साबित रखकर ३२* महिनों के अनंतर अधिक मास बनाकर चंद्र वर्ष को सौर्य वर्ष में शामिल कर लिया गया। दो तरहों से संवत् के प्रारंभ मानने की परंपरा रही है। साहूकारों, गणितकारों व प्रजागणों में चैत्रादि संवत्, जो चैत्र शुक्ल १ से शुरु होता है, का प्रचलन था, वही राज्य श्रावणादि संवत् को मानता था, जो श्रावण कृष्ण १ से शुरु होता था।

यहाँ मुख्य रुप से तीन ही ॠतुएँ थी- ग्रीष्म (गर्मी), वर्षा व हेमंत (जाड़ा), और इन्हीं तीन ॠतुओं के अनुसार आरोग्यता और अनारोग्यता मानने का प्रावधान था। रियासत में होने वाले हर धार्मिक मेले व त्योहार काल-गणना से प्राप्त तिथियों के अनुसार ही होते थे।

* यह कभी-कभी न्यूनाधिक होता रहता है।
** उन्नीसवीं वि. शतक के पहले इसको आषाढादिक मानते थे और आषाढ शुक्ल १ से प्रारंभ गिनते थे।

विक्रमी चैत्र शुक्ल १

यह दिन नव वर्ष का पहला दिन माना जाता था। इस दिन ज्योतिषीगण उत्तम वस्र व आभूषणों से सुसज्जित होकर महाराणा की सेवा में उपस्थित होते थे तथा नवीन पंचांग भेंट करते हुए धन्यवाद ज्ञापन करते थे। यह दिन साधारण उत्सव का दिन होता था।

चैत्र शुक्ल २ के दिन गणगौर का सिंयारा (दातणहेला) मानकर शहर की स्रियाँ अच्छे-अच्छे रंग बिरंगे कपड़ों में बाग-बाड़ियाँ जाती थी। राज्य में उत्सव का माहौल होता था। इसका आयोजन महाराणा की मर्जी के हिसाब से किया जाता था।

चैत्र शुक्ल ३ को प्रथम गणगौर का उत्सव होता था। राज्य तथा शहर में भारी धूम-धाम होती थी। नगाड़े बजाये जाते हैं। तीसरी बार के नगाड़े के बाद महाराणा की सवारी होती थे। १९ या २१ तोपों की सलामी दी जाती थी। बड़ी पोल से त्रिपोलिया घाट तक दोनों तरफ एक अंतराल पर खंभे गाड़ दिये जाते थे। उसमें लाल रस्सियाँ बाँधी जाती थीं। हरेक खंभे के पास पुलिस के जवान तैनात किये जाते थे। इस सीमा के भीतर सिर्फ राजकीय लोगों को ही अनुमति थी।

महाराणा की सवारी महलों से रवाना होती थी, जिसमें सबसे आगे निशान का हाथी होता था। उसके पीछे दूसरे हाथियों पर सरदार, पासवान आदि होते थे। फिर पलटनों के साथ अफसर तथा अंग्रेजी बाजा का प्रबंध होता था। इसके पीछे सोने तथा चाँदी के हौदे कसे हुए हाथी तथा ताम-झाम होता था। राज्य के प्रतिष्ठित लोग, उमराव, सरदार, चारण व अहलदार इसके पीछे-पीछे अच्छे कि के घोड़ों पर सवार होकर निकलते थे। इनके पीछे जरी के काम किये व सोने-चाँदी के गहनों से सजे हुए घोड़े तथा मुख्य घोड़े, जिसके दोनों तरफ चंवर व मोरछले होती थी, सवारी के क्रम में खड़े किये जाते थे। सवारी में युवराज (वलीअह्मद)

के चलने के लिए दो स्थानों का निर्धारण किया गया था। यह स्थान खासा हाथी-घोड़ों के आगे अथवा महाराणा साहब की पैदल जलेन के आगे रहती थी, जिसके पीछे अर्दली के सिपाही आदि होते थे।

महाराणा की पोशाक उम्दा होती थी। वे नाना प्रकार के हीरे-मोतियों के आभूषण धारण किए हुए होते थे। ऊपर अमर शाही, अरसी शादी व स्वरुप शाही पगडिंयों में से कोई एक कि की पगड़ी, जामा और डोढ़ी, जो उससे छोटी होती है, धारण करते थे। वे साथ में कमरबंद, तलवार व ढाल धारण कर अश्वारुढ़ रहते थे। दोनों तरफ से चंवर, छत्र, छहांगीर, किराठीया, अडाणी, दवा आदि की व्यवस्था होती थी, नक्कारे का हाथी सबसे पीछे होती था, सवारी के दोनों तरफ छड़ीदारों की बुलंद आवाजें और आगे से वीरता के दोहे सुनाने वाले गायक जन सवारी के आनंद को कई गुणा बढ़ा देते थे। पूरे ठाठ बाट के साथ महाराणा घोड़े से त्रिपोलिया घाट तक पहुँचते थे। वहाँ घोड़े से उतरकर नाव की सवारी होती थी। दो बड़ी नावें मजबूत जूड़ी हुई रहती थी, उसमें एक नाव पर दो फीट ऊँचा एक सिंहासन रहता था। जिसपर चारों खंभे वाली लकड़ी की छत्री लगी होती थी। छत्री व सिंहासन को कभरवाब, जर्दोजी व जरी के कामों से सजा दिया जाता था।

छत्री के चारों कोनों तथा गुंबद पर बादले के त्तुर्रे व कलगी लगे होते थे। सिहांसन के चारों तरफ, नीचे के तख्तों पर सरदार, चारण, अह्मलादार व पासवान अपने पदों की हैसियत से बैठे व खड़े रहते थे। समाज के अन्य सम्माननीय नागरिक उसे के समीप जुड़ी दूसरी नाव व किश्तियों में सवार होते थे। और तब शुरु होती थी, महाराणा की नाव की सवारी। नावें धीरे-धीरे दक्षिण की तरफ बड़ी पाल तक जाने के बाद पुनः घूमकर त्रिपोलिया घाट तक आती थी।

महाराणा की सवारी के अलावा महलों से गणगौर माता की एक अलग से सवारी निकलती थी। इस सवारी के साथ सुदर पोशाकों व सोने-चाँदी के आभूषणों से सजी दासियों का झूंड होता था। स्रियों के सिर पर करीब ३ फीट ऊँची गणगौर माता की काष्ट की बनी प्रतिमाएँ जो सोने व चाँदी से सजी होती थी, रखी जाती थी। इसके दोनों तरफ दो दासियाँ हाथ में चंवर लिए चलती थीं। सवारी में हाथी व घोड़े होते थे, जिनपर पंडित, ज्योतिषी व जमातीड्योढ़ी के ऊंचे अह्मलकार सवार रहते थे। इस सवारी के त्रिपोलिया घाट पहुंचते ही महाराणा अपने सिंहासन से उतर कर गणगौर माता को प्रणाम करते थे। वहीं उन्हें वेदिका पर रखकर माता का पूजन किया जाता था। पंडित व ज्योतिषी महाराणा को शुभकामनाएँ व आशीर्वाद देते थे। दासियाँ प्रतिमा के दोनों तरफ खड़े होकर गणगौर माता को नमन करती हुई लूहरें (एक प्रकार का गीत) गाती थीं। पुनः उन्हें उसी प्रकार जुलूस के साथ महलों तक पहुँचा दिया जाता था। त्रिपोलिया के पूजन स्थल पर ही नाच-गानें का कार्यक्रम होता था। जिसमें ऊँचे तबके के लोग अपनी पत्नियों के साथ किश्तियों में आते थे। महाराणा की नाव के आगे-पीछे कई किश्तियाँ चला करती थी। फिर तालाब के किनारों पर तथा किश्तियों पर रंग बिरंगी आतिशबाजी का दौर चलता था। तालाब के किनारे स्री व पुरुषों की भीड़ हो जाती थी।

अन्त में महाराणा रुपघाट पर उतरकर तामजाम में सवार हो महलों में पधार जाते थे। इन दिनों महलों को भी विशेष रुप से भव्यता के साथ सजाया जाता था। यहाँ महाराणा के साथ कुछ चुनिन्दे सरदार व पासवान ही पहुँचते थे। इन लोगों से विदा लेकर महाराणा जनाना में चले जाते थे। इसी तरह प्रायः ४ दिनों तक जल्सा होता रहता था। महाराणा की इच्छा से इसे दो या चार दिन बढ़ाने का भी प्रावधान था।

इस प्रकार उदयपुर के गणगौर जल्से को पूरे राजपूताना में एक खास महत्व था। राज्य के द्वारा प्रबंध किये गये उत्सव के अलावा रियासत के अन्य जगहों पर भी गणगौर माता के पूजन की परम्परा प्रचलित थी। अन्य स्थानों पर प्रायः मिट्टी की बनी गणगौर माता व साथ-साथ अन्य देवताओं की छोटी प्रतिमाएँ भी साथ-साथ निकाली जाती थीं। यह उत्सव राजपुताना के अन्य रियासतों में भी उत्साह से मनाया जाता था। स्रियों के सबसे बड़े उत्सव के रुप में इसे सम्मान प्राप्त है। यहाँ महादेव को ईश्वर व पार्वती को गणगौर माना जाता है।

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चैत्र शुक्ल ८

इस दिन शतचण्डी का पाठ, होम और देवी का पूजन होता था।

चैत्र शुक्ल ९

इस तारीख को रामचन्द्र का जन्मोत्सव मनाया जाता था। इस उपलक्ष्य में मध्यान्ह के समय राजकीय तोपखाने से गोले बरसाये जाते थे। मंदिरों में राग, रंग, नाच-गान आदि का आयोजन होता था। दूसरे दिन पुजारी लोग महाराणा व दरबारी सेवकों के घर पंजेरी, पंचामृत व प्रसाद पहुंचाते थे।

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वैशाख कृष्ण १

इस तिथि को राज्य में श्री एकलिंगेश्वर का प्रागट्योत्सव (जन्मदिन का उत्सव) मनाया जाता था। मान्यता थी कि इसी दिन एक लिग जी दर्शनार्थ दरबार पधारते हैं। इस उत्सव में शाम के वक्त महाराणा का दरबार लगता था जिसमें मिष्ठान्न भोजन बाँटे जाते थे। बाद में हाथियों की लड़ाई व तोपों की सलामी कराई जाती थी।

वैशाख कृष्ण २

इस दिन धींगा गणगौर का त्योहार मनाया जाता था। जिसमें चैत्री गणगौर की तरह के जलसे होते थे। इस त्योहार के साथ एक बात यह है कि इसे उदयपुर के सिवा राजपुताना की दूसरी रियासतों में नहीं मनाया जाता था। राजपूताना में धींगाई जबर्दस्ती को कहा जाता है। चूंकि उदयपुर के महाराणा राजसिंह अव्वल ने अपनी छोटी महाराजी (महारानी) के प्रसन्नार्थ रीति के विरुद्ध इस त्योहार को प्रचलित किया था अतः इसे धींगा गणगौर कहा गया।

वैशाख शुक्ल ३

इस दिन अक्षय तृतीया का त्योहार होता है। इस दिन महाराणा द्वारा जगान्नवास महल में पधारकर गोठ होती थी। शुरुआत में जलसे में प्रयुक्त वस्रों को केसर रंग में रंगा जाता था लेकिन बैकुण्ठवासी महाराणा सज्जन सिंह ने इस परम्परा को बदलकर केसर व कुसुम्में के छींटों से बसंती बना देने का हुक्म दे दिया। दिन के जलसे के बाद महाराणा सायंकाल में जुलूसी नौका पर सवार होकर तालाब की सैर करते थे जहाँ राग-रंग की व्यवस्था रहती थी।

वैशाख शुक्ल १४

इस तिथि को नृसिंह जयन्ती के रुप में मनाया जाता था।

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ज्येष्ठ शुक्ल ११

यह दिन निर्जला एकादशी होती थी। निर्जल उपवास छोटे-बड़े सभी हिन्दू लोग बड़ी श्रद्धा भाव से करते थे। मंदिरों में उत्सव का आयोजन होता था।

आषाढ़ शुक्ल १५

यह तिथि गुरु पूर्णिमा होती थी। इस दिन पठन-पाठन करने वाले बालक अपने गुरु का पूजन करते थे। एकलिंगेश्वर की पुरी तथा सवीनाखेड़ा में महन्त सन्यासियों का पूजन होता था। कभी-कभी महाराणा भी सवीने खेड़े पधारते थे।

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श्रावण कृष्ण १

इस तिथि को भी नवीन वर्ष का उत्सव मनाया जाता था। इस दिन प्रधान की तरफ से दावत व राग-रंग का प्रबंध होता था।

श्रावण कृष्ण

इस दिन हरियाली अमावस्या मानकर प्रजागण उत्सव करते हैं। इसी दिन महाराणा अपने सभ्यगणों सहित बड़े पुरोहित के मकान पर पधारकर भोजन करते थे। शहर के आम लोग देवाली के पहाड़ पर नीमच माता के दर्शन के लिए जाते थे।

श्रावण शुक्ल ३

इस दिन काजली तीज का त्योहार मनाया जाता था। यह त्योहार भी पूरे राजपूताने में लोकप्रिय है जिसमें राजा, प्रजा सब भागीदार होते थे। इस दिन महाराणा जगन्निवास महल में पधारकर दावत करते थे। रंगीन रस्सों के झूलों पर वेश्याएँ झूलती व गायन करती थी। शाम के समय जुलूस के साथ नाव की सवारी होती थी। वहाँ से बाजार होते हुए महल चले आते थे। इस दिन भी महलों को विशेष रुप से वैसे ही सजाया-संवारा जाता था जैसा गणगौर के उत्सव में सजाते थे।

श्रावण शुक्ल १५

इस तिथि को रक्षा बंधन का त्योहार मुहू के अनुसार मनाया जाता था। इस दिन राज्य के कुल ब्राम्हण, सरदार, चारण व अह्मलदार महाराणा के दाहिने हाथ में राखी बाँधते थे। और फिर आपस में राखी बाँधने का प्रचलन था। ब्राम्हण हर एक के यहाँ जाते थे और राखी बाँधकर दक्षिणा लेते थे। बहन और बेटियाँ भी पिता व भाइयों को राखी बांधती थी। इसके एवज में वे लोग पूहली का दस्तूर देते थे। इस उत्सव में नारियल की अच्छी खपत हो जाती थी।

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भाद्रपद कृष्ण ३

इस तिथि को बड़ी तीज का त्योहार मनाया जाता था। वैशाख कृष्ण ३ को मनाये जाने वाले धींगा गणगौर की तरह बड़ी तीज भी उदयपुर तथा आसपास के क्षेत्र में ही प्रचलित है। कहा जाता है कि महाराणा राजसिंह ने अपनी छोटी महारानी को खुश करने के लिए ही श्रावण शुक्ल ३ को छोटी और भाद्रपद कृष्ण ३ को बड़ी तीज का प्रचलन शुरु किया था। इस तीज को भी श्रावणी तीज की तरह ही मनाया जाता है।

भाद्रपद कृष्ण ८

इस दिन कृष्ण जन्माष्टमी मनाया जाता था। मंदिरों में धूमधाम होती थी। लोग उपवास करते थे। दूसरे दिन पुजारी लोग राज्य के तथा नगर के प्रतिष्ठित लोगों के यहां प्रसाद भेजते थे। इसी दिन दधिकर्दम का उत्सव भी होता था।

भाद्रपद कृष्ण १२

इस तिथि को वत्सद्वादशी होती है। इस दिन स्रियाँ गाय तथा बछड़े का पूजन करती है तथा उस वक्त लड़के व लड़कियाँ अपनी माता की साड़ी (ओढ़नी) का पल्ला पकड़ते थे। माताएँ अपने बच्चों को खोपरा देती है। महल के जनाना में भी ऐसा करने का रिवाज था।

भाद्रपद कृष्ण १४

इस दिन महाराणा श्री एकलिंगेश्वर तथा बाणनाथ के अर्पित हुए पवित्रे अपने हाथों से सम्माननीय प्रजाजनों को देते थे। सबसे सम्माननीय पवित्रे सुनहरी होती थी। उसके बाद रुपहरी तथा रेशमी पवित्रे भेंट की जाती थी। इनका मिलना राज्य के लोगों के लिए सम्मान की बात मानी जाती थी।

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भाद्रपद शुक्ल ४

यह तिथि गणेश चौथ का उत्सव दिवस होता था। इस दिन नगर के बच्चे दंडा बजाते हुए पूरे शहर में घूमते थे तथा दरबार में भी जाते थे। रात्रि के समय महाराणा महलों के बड़े चौक में रुपये, नारियल व लड्डू लुटाया करते थे जिनको प्रजागण बड़ी उत्साह से लूटते थे। इस दिन महाराणा गणपति के प्रसिद्ध स्थानों में दर्शनार्थ पधारते हैं।

इसी दिन शहर के धनवान लोग अपने पड़ोसियों के घरों पर भी नारियल व लड्डू फेंकते थे। इसके विरुद्ध प्रायः पड़ोसी उन्हें पत्थर फेंका करते थे। कहा जाता है इस दिन गालियाँ खाना अच्छी बात थी।

भाद्रपद शुक्ल ७

इस दिन नागणेची का पूजन होता था। इस पूजन का कारण यह माना जाता है कि जोधपुर के राव मालदेव के साथ मंगनी की हुई सालाजैत सिंह की कन्या को महाराणा उदयसिंह ब्याह लाये, जिनके साथ राठौड़ों की कुलदेवी का डिब्बा चला आया था।

भाद्रपद शुक्ल ११

इस तिथि को देवझूलनी एकादशी का उत्सव होता है। राजा तथा प्रजा दोनों समान रुप से इस उत्सव में भाग लेते थे। पुजारी लोग विष्णु की धातु की या पाषाण (पत्थर) की प्रतिमा अथवा चित्र की रेवाड़ी (विमान) में बिठाकर जलाशय से ले जाकर स्नान करवाते थे। साथ में हजारों में लोग गीत गाते हुए विमान के साथ जाते थे इस दिन महाराणा खुद भी पिताम्बर की रेवाड़ी के साथ पिछोला झील तक जाते थे। इस दिन सब लोग उपवास करते हैं।

भाद्रपद शुक्ल १२

इस तिथि को वामनद्वादशी भी कहा जाता है। इस दिन वामनावतार का जन्मोत्सव मनाया जाता था।

भाद्रपद शुक्ल १४

इस दिन अनन्त चतुर्दशी मनाई जाती थी। महाराणा व अन्य लोग अनन्त का पूजन करते थे तथा सिर्फ एक बार भोजन (एक मुक्त) करते थे। फिर महाराणा १४ सूत्र के धागों में चौदह गांठ देकर बनाये गये रेशमी अनन्त अपने सभी समीपवर्तियों को देते थे। अनन्त का मिलना भी सम्मान की बात मानी जाती थी।

भाद्रपद शुक्ल १४ से आश्विन कृष्ण अमावस्या इस अवधि को श्राद्ध पक्ष माना जाता था। इस समय हिन्दू अपने पूर्वजों (प्रायः पिता व दादा) का श्राद्ध, तपंण व ब्राह्मण भोजन करते थे। इस बीच मांस व मदिरा का पूर्णतया त्याग कर दिया जाता था। मुसलमान आदि दूसरे धर्मावलम्बियों को भी जीव हत्या की मनाही थी।

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सुखिया सोमवार

श्रावण महीने में आने वाले सोमवार को सुखिया सोमवार कहते हैं। प्रत्येक श्रावणी सोमवार को यहाँ के स्री-पुरुष का आभूषणों से सुसज्जित होकर बाग-बगीचे में जाने का प्रचलन था। वहाँ स्रियाँ आनन्द के साथ गायन करती थी और सोमवार का व्रत खोलती थी। सज्जन निवास बाग में विशाल मेले का आयोजन होता था, सड़कों पर भी बाजार लगाये जाते थे। झूले व डोलर की व्यवस्था होती थी। हर जगह उत्साह का माहौल होता था।

भाद्रपद

इस महीने में देवझूलनी एकादशी मनाया जाता है। कभी-कभी इसी दिन मुस्लिम लोग मुहर्रम का ताजिया भी निकालते थे। ताजिये व रामरेवाड़ी के एक दिन ही निकलने पर फसाद की सम्भावना हुआ करती थी, परन्तु कहा जाता है कि अन्य शहरों से अलग उदयपुर में कभी कोई फसाद नहीं हुआ। यहाँ के प्रसिद्ध ताजियों में भीम पल्टन का ताजिया सबसे बड़ा माना जाता है।

भाद्रपद कृष्ण ११ से भाद्रपद शुक्ल ४

इन तिथियों के बीच जैन सितम्बरी मनबालों का पर्यूषण (पजूसन) होता था। राज्य के कसाई लोगों को जानवर मारने से भी मनाही कर दी जाती थी।

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आश्विन शुक्ल १

इस तिथि से नवरात्रि का प्रारम्भ माना जाता है। पहला दिन प्रातः काल में पलटन, बाजा, हाथी-घोड़े वगैरह के साथ जुलूस महलों से खड्ग लेकर कृष्णपोल दरवाले के भीतर सज्जन निवास बाग के पास खड्ग स्थापना मुकाम तक पहुँचती थी। खड्ग को प्रतिष्ठित लोग मंदिर के भीतर ले जाते थे, वहाँ पर लादूवास का आयस (नाथ महन्त) और पंडित ज्योतिषी व सभ्यगण एक गवाक्ष (गोखड़े) में खड्ग स्थापित का एक स्वनिर्वाचित नाथ को उसके सामने बिठा देते थे, जो अष्टमी पर्यन्त निर्जल व निराहार वहीं बैठा रहता था। हजारों की संख्या मे वहाँ हिन्दू-धर्मावलम्बी दर्शनार्थ आते रहते थे। महलों के भीतर अमरमहल के नीचे की चौपड़ में देवी पूजन की व्यवस्था होती थी। महाराणा अम्बिका भवानी के दर्शन के लिए वहाँ पधारते थे। सायंकाल में वे सवारी के साथ खड्ग स्थापन के दर्शनार्थ पधारते हैं।

इस तिथि से प्रायः देवी भक्त लोग नौ दिन तक एक युक्त व उपवास करते हैं। इस व्रत में मेघ मास निषेध नहीं होता।

अश्विन शुक्ल २

इस तिथि को महाराणा पूरी तरह सज-धजकर घोड़े पर सवार होकर तीसरे नक्कारे की आवाज के साथ ही।, तोपों की सलामी व बैंड-बाजे के साथ अपनी जुलूसी सवारी से निकलते थे तथा हाथी पोल दरवाजे के बाहर चौगान पहुँचते थे। वहाँ महाराणा सरदारों के साथ घाड़े दौड़ाते थे, फिर विशेष रुप से बने दरबार में पधारते थे, जहाँ कई प्रकार के मनोरंजक खेल-तमाशा जैसे हाथियों की लड़ाई, पहलवानों की कुश्ती, खरगोश, सियार व लोमड़ियों का कुत्तों से सामना, परिन्दों का बाजों से मुकाबला आदि दिखाया जाता था। हर दिन वहाँ एक महिष (भैंस) की बलि दी जाती थी। अन्त में हाथियों की लड़ाई के बाद सवारी महलों में पहुँच जाती थी, जहाँ दो बकरे व पाँच भैंसों की बलि दी जाती थी।

* पहली बार का नक्कारा बजना महाराणा के जाने के इरादे की सूचना देता था। दूसरे नक्कारे में कुल रियासती लोग बिन बुलाए इकट्ठा हो जाते थे तथा तीसरा नक्कारा महाराणा के सवार होते समय बजता।

अश्विन शुक्ल ३

इस तिथि को चौगान में कुछ मामूली रस्में अदा की जाती थी। शाम के समय महाराणा हरासिद्धि देवी (हस्तमाता) के दर्शन को पधारते थे, जहाँ पुनः दो बकरे व पाँच भैंसों की बलि दी जाती थी।

अश्विन शुक्ल ४

इस तिथि को महाराणा द्वारा हाथी पर सवार होकर तीर से भैंस के सिर छेदन की प्रथा, जो महाराणा भीमसिंह तक चली, अतः इस दिन को मल्का चौथ भी कहा जाता था।

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अश्विन शुक्ल ५

महाराणा की सवारी प्रातः काल चौगान जाती थी तथा शाम को अन्नपूर्णा देवी के दर्शनार्थ पधारते थे। यहाँ बलि करने का रिवाज नहीं था।

अश्विन शुक्ल ६

इस दिन महाराणा द्वारा प्रातः काल में चौगान की सवारी होती थी।

अश्विन शुक्ल ७

महाराणा चौगान के बाद श्यामल बाग में करणी माता के दर्शनार्थ पधारते थे जहाँ बलि दी जाती थी।

अश्विन शुक्ल ८

इस तिथि को महाराणा देवी विसर्जन का दर्शन कर महाराणा प्रताप के ऐतिहासिक तलवार के साथ बाहर चौक पर पधारते थे। वहाँ से किश्तियों में सवार होकर भवानी के दर्शन को जाते थे।

अश्विन शुक्ल ९

इस तिथि को घोड़ों व हाथियों का पूजन होता था। फिर महाराणा नगीनावाड़ी में दरबार लगाते थे, जहाँ खड़गधारी नाथ को बड़े सम्मान से लाया जाता था। महाराणा उनसे खड़ग व आश्रिका लेकर विदा देते हैं। वहाँ से वे अन्य महन्तों के साथ रसोई (कर्ण महल का चौक) में जाते थे जहाँ धर्माध्यक्ष सम्मान पूर्वक उनको भोजन कराकर विदा करते थे।

अश्विन शुक्ल १०

इस तिथि को दशहरे का बड़ा त्योहार मनाया जाता था। सभी दरबार, उमराद, सरदार व जागीरदार उदयपुर हाजिर होते थे। छोटे जागीरदार अपने-अपने जिलों के प्रमुख के पास हाजिर होते थे। शाम में महाराणा खेजड़ी (शमी) का पूजन करने को पधारते हैं। पूजन के बाद चारों दिशाओं के दरवाजों पर एक-एक तीर भेज दिया जाता है, जो वर्ष भर के लिए पूर्व निश्चित मुहू को बतलाता है। दरबार में दरोगा सभी दरबारियों व सरदारों को उनके ओहदे के क्रम में बिठाता था। यहाँ चारणों द्वारा महाराणाओं की वीर गाथा गायी जी थी। बाद के दरबार में उन्हें घोड़े व हाथियों से नवाजा जाता था। दशहरा और शरद की पूर्णिमा के बीच में एक दिन फौज की हाजिरी के लिए नियत किया जाता था। इस दिन की सवारी भी दशहरे की तरह सजी होती थी। महाराणा साहब इस दिन दिल्ली दरवाजा के रास्ते से सारणेश्वरगढ़ पहुंचते थे। वहीं तोपखाने तथा फौज की हाजिरी होती थी।

अश्विन शुक्ल १५

इस तिथि को शरद पुर्णिमा की खुशी मानी जाती हैं। महाराणा इस दिन की शाम को सवारी के साथ हाथीपोल से होते हुए चौगान पहुँचते थे। वहाँ हाथियों की लड़ाई का आयोजन किया जाता था। वहाँ से वे वापस महल पहुँचते थे, जहाँ ऊपर वाले प्रासाद के सजावट व वस्रों में सफेद रंग का इस्तेमाल किया जाता था। इस दिन देव मंदिरों में भी जलसे का आयोजन किया जाता था।

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कार्कित्तक कृष्ण १३

यह दिन धन तेरस के रुप में मनाया जाता था। इस दिन आम लोग अपने घर के कुल नकद व जेवर रखकर उसका पूजन करते थे, जिसे वे लक्ष्मी पूजन कहते थे। आने वाले तीन दिनों तक अपने घर से मुद्रा का खर्च होना अच्छा नहीं माना जाता था। मुद्रा का आना शुभ शकुन माना जाता था।

कार्कित्तक कृष्ण १४

इस तिथि को रुप चतुर्दशी होती थी। यह दिन शुभ माना जाता था। इस दिन जुआ खलने का दस्तूर था।

कार्कित्तक कृष्ण अमावस्या

इस दिन को दीपमालिका के नाम से जानते थे। घर-घर में दीपक जलाए जाते थे। शाम में महाराणा नगीनाबाड़ी में अपना दरबार लगाते थे।

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कार्कित्तक शुक्ल १

इस दिन को खेंखरा कहा जाता था। इस दिन चौगान के पास ही जरंधर दैत्य की एक विशाल मूर्ति बांसों व लकड़ियों से बनाई जाती थी, जिसमे रंग व पटाखे भरकर कागज से मढ़ दिया जाता था। शाम में हाथियों की लड़ाई होती थी, घोड़े दौड़ाए जाते थे तथा दैत्य के शरीर में आग लगाई जाती थी।

इस तिथि को सबसे बड़ा उत्सव नाथद्वारा में मनाया जाता था, जिसे अन्नकूटोत्सव कहा जाता था।

कार्कित्तक शुक्ल २

यह तिथि यम द्वितीया के नाम से जाना जाता है। इसी दिन दवातपूजन का भी प्रचलन था।

कार्कित्तक शुक्ल ३

इस तिथि को राज्य में दवात पूजा का उत्सव होता था। दीपमालिका से इस तिथि तक अदालतें स्थगित कर दी जाती थी।

कार्कित्तक शुक्ल १५

इस तिथि को देव दीवाली कहा जाता था। मंदिरों में अन्य दिनों की तुलना में अधिक रौशनी की जाती थी। अंतिम रात को स्री व पुरुष श्रद्धालु एकमुक्त (दिन में एक बार भोजन) कर रात मे जलाशय में स्नान करते थे।

इसी पूर्णिमा का पुष्कर (अजमेर) में बहुत बड़ा मेला लगता था।

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मार्गशीर्ष कृष्ण १

इस तिथि को शिकार का मुहू कहा जाता था। महाराणा सेवकों को अमव्वा रंग के रुमाल देते थे तथा जुलूसी सवारी के साथ मुहू के अनुसार निश्चित दिशा में शिकार करने निकलते थे। इसी दिन से सूअर का शिकार शुरु होता था।

पौष शुक्ल १५

इस तिथि को फूसगज का तमाशा होता था। बड़े महल के चौक में फूस का हाथी बनाया जाता था, जिसपर बनावटी महावत भी बिठाया जाता था। लड़ाई का हाथी आकर उस हाथी को बिखेर डालता था।

इन्हीं दिनों मकर-संक्रान्ति का प्रवेश होकर उस दिन यह त्योहार मनाया जाता था। इस दिन महाराणा दान पुण्य करने के बाद बगीचे में गेंद खेलते थे। नगर के लोग हाथीपोल के बाहर चौगान में गेंद खेलते थे।

माघ शुक्ल ५

यह तिथि बसंत पंचमी है, जिस दिन महाराणा बसन्ती पोशाक धारण कर दरबार करते थे। मंदिरों में रंग व गुलाल का उत्सव होता था।

माघ शुक्ल ७

इस दिन नागणेची देवी का पूजन तथा जलसा होता था।

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फाल्गुन शुक्ल ११

इस तिथि को आँवली एकादशी कहते हैं। इस दिन आँवली का पूजन व उपवास होता था। शहर से दूर गंगोद्भव नामक स्थान पर भीलों का मेला लगता था।

फाल्गुन कृष्ण १४

इस तिथि को शिवरात्रि कहते हैं, जिसमें आम लोगों में उपवास तथा शिवपूजन होता था।

फाल्गुन शुक्ल १५

यह होली का त्योहार होता था, जिसे हुताशनी भी कहते हैं। प्रातः काल महाराणा गोट अरोगकर सभ्यजनों के साथ गुलाल से फाग खेलते थे। फिर हाथियों की सवारी पर जाकर गुलाल उड़ाया जाता था। सवारी बाजार से होकर सज्जन निवास या सर्वॠतुविलास पहुँचती थी, जहाँ से सायंकाल में महाराणा स्वच्छ वस्रालंकार धारण कर सायं काल में महल में आ जाते थे तथा नगीना वाड़ी में दरबार में राजसेवकों को काष्ठ के खांडे और नारियल देते थे। मुहूर्त्तानुसार जनानी ड्योढ़ी के चौक तथा बाहरी चौक पर होली जलाई जाती थी। कभी-कभी तालाब में भी नौका की सवारी कर फाग का आयोजन किया जाता था।

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चैत्र कृष्ण १

इस दिन को धूलहरी कहते हैं। इस दिन आम आदमी अपने समाज व अपनी बिरादरी मे फाग का उत्सव मनाता था। शुरु में तो बदमाश लोग, लोगों को उत्सव के बहाने तंग किया करते थे। धीरे-धीरे यह प्रचलन कम हो गया। इस दिन लोग सालभर के अन्दर पैदा हुए लड़के-लड़कियों को ढूंढते थे तथा हाथ में लकड़ी के डंडे लेकर बच्चे के ऊपर उसे परस्पर बताते हुए आशीर्वाद देते थे।

चैत्र कृष्ण २

इस तिथि को जमरा बीज (यमद्वितीया) कहते हैं। शाम के वक्त औरतें गालियों वाली गीतें गाती हुई, होली की भ लाकर उसके पिंडोले बनाकर पूजती हैं। महाराणा शाम में स्वरुप विलास महल में दरबार करते थे तथा नाचने-गाने वालों को इनाम से नवाजा जाता था।

चैत्र कृष्ण ५

इस दिन महलों के चौक पर हाथी, घोड़े, भैंस, सूअर, सांभर, हरिण आदि की लड़ाईयाँ होती थी।

चैत्र कृष्ण ८

इस तिथि को शीतला अष्टमी के रुप में माना जाता है। आम तौर पर हिन्दुओं में इसका रिवाज सप्तमी के दिन है, लेकिन महाराणा भीम सिंदे के जन्मदिन होने के कारण इसके जलसे का दिन अष्टमी कर दिया गया तथा यह हमेशा अष्टमी को ही होने लगा। इस दिन महाराणा जुलूस की सवारी के साथ शीतला देवी के दर्शन करने जाते थे। राज की दासियाँ व शहर की स्रियाँ गीत-नाद के साथ शीतला देवी के पूजन के लिए आती थी। इस दिन से मेला का आयोजन होता था। फूल छावड़ी का मेला गनगौर तक लगा रहता था।

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