जिस समय मेवाड़ में शिक्षा का प्रासार नगण्य सा था, समर्थ और सम्पन्न लोग बाहर जाकर अपना अध्ययन करते थे उस समय नारी शिक्षा की बात करना एक साहसिक काम था। महिलाएं घूंघट से बाहर नहीं निकलती थी। बालिकाओं की शिक्षा के लिये यह कहा जाता था कि `छोरियां ने तो चूल्हो चौको सम्भालणो है भणी ने कई करेगा।' उस वातावरण में नारी शिक्षा के विचार से संस्था खड़ी करने का साहसिक कार्य जिस साधक ने किया वह और कोई नहीं दयाशंकर श्रोत्रिय ही थे।
श्रोत्रिय के पूर्वज भीलवाड़ा के रहने वाले थे। उनका जन्म वि.सं. 1960 की शरद पूर्णिमा के दिन (सन् 1903) में जूनावास छीपों का मोहल्ला में हुआ। इनके पिता का नाम गौरीशंकर और माता का नाम गेखी बाई था। बाल्यकाल में ही वह अपने ताऊ गंगाधर, जो सीखेड़ा मध्यप्रदेश में थे, के यहां गोद चला गया जहां उसकी पत्नी एजी बाई ने उसका लालन पालन किया। उनके दादाजी उनसे बहुत प्यार करते थे। जब वे तेरह वर्ष के हुए उनके दादाजी पं. रामलाल का देहावसान हो गया। तब से श्रोत्रिय जी का मन सीखेड़ा से उचट गया। वे एक दिन पिता को कहे बिना वहां से मथुरा चले आये और संस्कृत कालेज में प्रवेश लेकर उस कालेज से प्रथमा की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद में वे सीखेड़ा और वहां से भीलवाड़ा चले आये जहां उनकी माता एजी बाई प्रतीक्षा कर रही थी। भीलवाड़ा में रहते हुए उन्होंने मिडिल तक अध्ययन किया। उसी अन्तराल में उनका विवाह सरवल ठिकाने के राज पण्डित की सुपुत्री श्रीमती कमला (पूर्व नाम सज्जन देवी) के साथ सम्पन्न हुआ। कमला जी सही माने में उनकी अर्द्धांगिनी थी जो जीवन भर उनके हर कार्य में साथ रही। (दयाशंकर श्रोत्रिय अभिनन्दन ग्रंथ-पृ. 8)
भीलवाड़ा में भी उनका मन न लगा। वहां से वे अहमदाबाद चले गये। अहमदाबाद का उनका जीवन बड़ा उथल पुथल का रहा। पहले छ: महीने राधावल्लभ सम्प्रदाय के मन्दिर में, कुछ समय एक पारसी के यहां ड्राइवर के रूप में और बाद में गांधी के साबरमती आश्रम में ड्राइवर की तरह रहे। यहां ड्राइविंग के साथ-साथ उन्हें आश्रम के अन्य काम भी करने पड़ते थे। यहां उनका सम्बन्ध तत्कालीन कांग्रेस के नेताओं से हो गया। यही जमनालाल बजाज से भी संपर्क आया जिनकी छात्रवृत्ति से उनकी पत्नी श्रीमती कमला ने अध्ययन किया। गांधी जी के नमक सत्याग्रह के पश्चात् वे भीलवाड़ा चले आये। यहां आकर उन्होंने अध्यापन किया, जिनिंग एवं प्रेसिंग फैक्ट्री में मार्का क्लर्क रहे, गुलाबपुरा की फैक्ट्री में काम किया और समय-समय पर चलने वाले आन्दोलनों में भाग लेकर तीन बार जेल भी गये। पर उनका मन किसी में भी नहीं लगता था। तभी उनका सम्पर्क डा. मोहनसिंह मेहता से आया उनके निमंत्रण पर वे अपनी पत्नी के साथ उदयपुर चले आये। डा. मोहनसिंह मेहता को जब उनके निश्चय का पता चला कि वे अपनी पत्नी को प्रयाग महिला पीठ में पढ़ाना चाहते है तो उन्होंने उसकी व्यवस्था कर दी। उनके सहयोग से वे पत्नी को लेकर प्रयाग गये जहां स्वयं ने नौकरी कर अपनी पत्नी को पढ़ाया। बजाज जी की छात्र वृत्ति का भी सहयोग रहा। साढ़े चार वर्ष प्रयाग में रहने के पश्चात अपनी पत्नी को वहीं छोड़कर अनेक वर्षों का संघर्षमय जीवन का अनुभव प्राप्त करके उन्होंने अप्रैल सन् 1934 में उदयपुर की धरती पर पैर रखा। उस समय तक उनके मन मस्तिस्क में नारी शिक्षा के विचार पूर्ण विकसित हो चुके थे। (वही-पृ. 12-17)
यहां आकर वे पुन: विद्याभवन के कार्य में जुट गये। वास्तव में महिला मण्डल स्थापना की पृष्ठभूमि में मूलत: विद्याभवन की प्रेरणा रही। श्रीमती कमला सन् 1935 में प्रयाग से अपना अध्ययन पूर्ण कर उदयपुर आ गई और कोलपोल में सार्वजनिक कन्या विद्यालय के प्रयाग महिला पीठ के प्रभारी के रूप में कार्य प्रारम्भ कर दिया। यहां रहते हुए कमलाजी ने महिला सुधार के अनेक रचनात्मक काम किये। प्रौढ़ शिक्षा के लगभग 12 केन्द्र खोले गये जिनमें अशिक्षित महिलाओं को साक्षर किया जाता था। 10 नवम्बर 1935 के दिन विधिवत `महिला मण्डल' की स्थापना की गई। यह कार्य प्रारम्भ में अमल के कांटे में किराये के भवन में शुरू किया गया। अपने कठोर परिश्रम और अपनी सहधर्मिणी के सहयोग से श्रोत्रिय जी ने उदयपुर नगर में महिला शिक्षा में अपनी साख खड़ी की। वे नगर के कार्य से ही संतोष करके नहीं रूके वे ग्रामीण अंचल की बालिकाओं में भी शिक्षा का प्रचार करना चाहते थे उनमें भी आदिवासी बालिकाओं में शिक्षा प्रसार करना उनका लक्ष्य था। उन्हें यह काम करने में देर अवश्य लगी पर धीरे-धीरे वे बालिकाएं उदयपुर आकर महिला मण्डल में अध्ययन करने लग गई।
महिला मण्डल का कार्य करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को आपने कभी नजरंदाज नहीं किया। उस समय गृहस्थ जीवन में कठिनाई अवश्य आयी पर उनकी पत्नी कमलाजी के सूझबूझ और परिश्रम से उस समस्या का भी समाधान हो गया। प्रजामण्डल आन्दोलन में वे दो बार जेल भी गये। इस अन्तराल में महिला शिक्षा का काम उनकी पत्नी ने संभाला। सन् 1944 से तो वे पूर्ण काल के लिये उनके साथ जुड़ गई। नारी जाति के उत्थान का कार्य उनके जीवन की शीर्षस्थ साधना रही।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भी उनकी यह कभी चाह नहीं रही कि उन्हें कोई पद दिया जाय। वे सत्ता से दूर ही रहे। उनकी पत्नी अवश्य 1957 के चुनाव में भीलवाड़ा से विधायक चुनी गई। वे अपने नारी जागरण के काम में ही संलग्न रहे। उनका विश्वास था कि नारी के उत्थान से ही समाज का उत्थान और समाज के उत्थान से देश का उत्थान होगा। 13 नवम्बर सन् 1970 में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया था उस समय उन्होंने कहा था- `कीर्ति थोड़ा मीठा जहर होता है, अत: मेरी तरफ थोड़ा ध्यान रखे कि कहीं कीर्ति का यह विष मुझे खा न जाय। मैं नारी शिक्षा और सेवा कार्य जीवन के अन्तिम क्षण तक कर सकूं यही आकांक्षा है।' वास्तव में वे इस संकल्प में खरे उतरे। एक जून सन् 1982 में आपका देहावसान हुआ। वे अपने पीछे अपनी पत्नी कमलाजी, चार पुत्र रमेश, महेश, दिनेश और गणेश तथा चार पुत्रियां कान्ता, विद्या, कुसुम व कुमुद का भरा पूरा परिवार छोड़कर गये। उनके सेवा कार्य समाज को हमेशा प्रेरणा देते रहेंगे।
(उक्त जानकारियां उनके पुत्र महेश श्रोत्रिय से प्राप्त की गई हैं। `प्रात:काल' परिवार का आभार)
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