रविवार, 14 जून 2009

प्रागैतिहासिक मेवाड़ ( Prehistoric Mewar)


आयड़ संस्कृति के मृदभाण्ड - मेवाड़ के आयड़, बालाथल और गिलूण्ड के उत्खनन से प्राप्त वस्तुओं के आधार पर कह सकते हैं कि उस समय के लोगों को मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का पूर्ण ज्ञान था। विभिन्न आकार और प्रकार के मिट्टी के बर्तन उस समय के लोगों की कुशलता को दर्शाते हैं। कच्ची मिट्टी के पात्र पानी में गल जाते है और सूखने पर टूट जाते है। अत: उन बर्तनों को आग में तपा कर पत्थर की तरह कठोर कर दिया जाता था। इसकी मिट्टी को ये कलाकार ऐसी लसलसी बना देते थे जिससे उसे कोई भी आकार दिया जा सके। (शोध पत्रिका- वर्ष ३५- अंक ३-४-पृ. ६२)
इन बर्तनों को आग में तपाने में विशेष तरीका अपनाया जाता था। कच्चे बर्तनों में तपाने से पूर्व घास फूस भर दी जाती थी। फिर उन बर्तनों को इस प्रकार उल्टा लेटा दिया जाता था जिससे बर्तनों के कंधे व गर्दन का भाग नीचे रहे और अन्दर हवा जाने के लिये मुंह का भाग ऊ पर उठा रहे। इस विधि को उल्टी पकाई कहा जाता था। बर्तन पकने के बाद इन बर्तनों को अन्दर और बाहर से रंग दिया जाता था। बर्तन निर्माण के साथ ही उनमें कलात्मकता का विकास हुआ। इन बर्तनों के रंग आज भी चमक रहे है जो उनके रंग के रसायन के ज्ञान को दर्शाते हैं। (वही-पृ.६३)
ये बर्तन चाक के सहयोग से बनाये जाते थे। कुछ बर्तनों में चाक के साथ-साथ हाथों से भी काम होता था, विशेषकर बड़े बर्तनों में। इन बर्तनों में ऊ पर का भाग तथा गर्दन चाक से बनाये जाते थे तथा नीचे का भाग हाथ से बनाया जाता था फिर दोनों भागों को जोड़ दिया जाता था। इनके जोड़ में भी कला थी। बालाथल और गिलूण्ड के लोग भी चाक से ही मिट्टी के बर्तन बनाने में कुशल थे। बालाथल में तो मोटी गठन की चमकीले लाल प्रलेप वाली परम्परा थी।
इस युग के लोग कुशल कलाकार भी थे। मिट्टी के बर्तनों पर चित्रित डिजाइन लहराती हुई, सीधी सामानान्तर रेखाओं से बनाई जाती थी। इसके अतिरिक्त तिरछी मोड़दार, अनेक कोण वाली, जालीदार, ज्यामतीय आकार की बनाई जाती थी। इन लोगों को विशेष ज्यामतीय होता था। लाल रंग और काले रंग के बर्तन बिना हत्थे के और आकार में छोटे होते थे जो सम्भवतया रसोई और खाने पीने में काम आते थे। प्याले, तस्तरी, प्लेट, छोटे लोटे इसी श्रेणी में आते हैं। लाल और काली सतह पर कुछ मृदभाण्डों पर जो सफेद बिन्दुओं के निशान दिखाई देते हैं वे विशेष रूप से ह्लद्बद्ग & स्र4द्ग जैसे है। ऐसे मृदभाण्ड अन्य स्थानों पर भी पाये जाते है। गिलूण्ड में तो ऊं ची गर्दन के जार, तस्तरी आदि ऐसे पात्र मिले हैं जो लौकिक जीवन में वर्तमान में प्रयोग में लाये जाते हैं। (वही-पृ.६३-६४)
पुराकालीन मृदभाण्डों के अवशेष, जो दो हजार वर्ष ई.पू. से प्रथम शताब्दी के है, वे आयड़ में स्थित संग्रहालय के प्रथम कक्ष में संजोये हुए हैं। इनमें आन्तरिक काले धरातल पर लाल आवरण वाले पात्र, लाल रंग चमकीले पात्रखण्ड, लाल धरातल पर काले रंग के चित्रित पात्रखण्ड, लाल भूरे रंग के मटमैले पात्रखण्ड तथा कुषाण कालीन पात्रखण्ड प्रमुख हैं। लगभग इसी प्रकार के पात्रखण्ड बालाथल से भी प्राप्त हुए हैं। (पुरातत्व विमर्श-ज.ना. पाण्डेय-पृ.४५१)
लाल धरातल पर काले चित्रित मृदभाण्ड बड़ी संख्या में यहां मिले हैं। इन पात्रों में हाण्डी जो पूर्ण स्थिति में मिली है, महत्वपूर्ण है। इसकी ऊं चाई ७' और चौड़ाई एक फुट है और मुंह अधिक चौड़ा है। ये बर्तन उस समय के कुशल कारीगरों की याद दिला रहे हैं जिन्होंने सीमित साधनों में इतने सुन्दर पात्रों का सृजन किया।
बालाथल के उत्खनन में मिले हड़प्पा कालीन छिद्रित मृदभाण्डों के किनारे तथा कायथा और आयड़ के समान मृदभाण्ड प्राप्त हुए है जो ताम्र पाषाण काल में हड़प्पा संस्कृति से सम्बन्ध दर्शाते है। विद्वान मानते हैं कि उत्तरी राजस्थान में घग्घर नदी के सूखने पर उत्तरकालीन हड़प्पा मानव ने मेवाड़ के सुरक्षित क्षेत्र में प्रवेश किया होगा और उनके सम्बन्ध मध्यकालीन ताम्र पाषाण संस्कृति से हुए। (शोध पत्रिका-वर्ष ३६-अंक २ पृ.-७४)
उत्खनन से प्राप्त गहरे लाल रंग के मृद् पात्र अधिकतर अनाज भरने और भोजन पकाने के काम आते थे। संग्रह-पात्र ऊं चाई में २' से ४' और चौड़ाई २' से ३' तक। ये पात्र नीचे से खुरदरे और ऊ पर से चमकीले होते थे। इनके ऊ पर के आधे भाग में नक्काशी और अलंकरण किया जाता था। इन बर्तनों का आधा भाग जमीन के अन्दर गाढ़ दिया जाता था जो दिखाई नहीं देता था तथा ऊ परी भाग के अलंकरण से घर सजावट नजर आती थी। घर की सजावट के लिये मृदभाण्डों के अलावा कोई फर्नीचर नहीं होता था। (शोध पत्रिका-३५ अंक ३-४ पृ. ६४)
मृद्पात्रों में कुछ सलेटी रंग के पात्र मिले है जो विदेशों से सम्बन्ध दर्शाते हैं। इनमें छोटे कटोरे प्रमुख है। उत्तरी पूर्वी ईरान के टेप हिसार और शाह टेपे से भी ऐसे ही बर्तन प्राप्त हुए हैं। कुछ बर्तनों के हत्थों पर जानवरों की आकृति बनी हुई है। (वही-पृ.६५)
कुषाणकाल में इस कला ने विपरीत मोड़ लिया। उस समय भिन्न प्रकार के बर्तन बनने लगे। इनमें टोंटीदार, जार, लोटा, घड़ा आदि प्रमुख है। इन पर न तो अलंकरण हैं और न ही प्रथम काल की चमक। इस काल का एक बड़ा पात्र मिला है जो ४'९' ऊं चा तथा बीच में ढोल के आकार का है। ये पात्र खुरदरे और मोटे है। यह मोटाई दो से. मी. तक है।

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