शनिवार, 20 जून 2009
मेवाड़ की वन सम्पदा forest property of Mewar
देश के बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों में वनों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। आर्थिक उन्नति और विकास योजनाओं में वनों का बड़ा योगदान रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर देखे तो २२.८ प्र.श. भूभाग वनों से अच्छादित है। राजस्थान में कुल क्षेत्रफल का लगभग ३.३ प्र.श. भाग सघन वनों से ढके हुए हैं जिनमें से अकेले उदयपुर जिले में राजस्थान राज्य के वनों के २१.७ प्र.श. वन पाये जाते हैं। सामान्य तौर पर वर्षा की कमी के कारण वन अधिक मात्रा में नहीं है और जो है भी वे अधिकांश अरावली की पहाडिय़ों और उनकी घाटियों पर हैं। इस प्रदेश में जहां वर्षा की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक है वहां वनों का अधिक विस्तार है।
मेवाड़ की पहाडिय़ों में खासकर इसके दक्षिणी भागों में धोकड़ा, सालर, आंवला, तेन्दु, खेर आदि वृक्ष वनों में पाये जाते हैं। इन वृक्षों के साथ यहां सागवान और बांस भी मिलता है। नदी घाटियों में यहां नीम, महुआ, सालर, आम, जामुन आदि पेड़ पाये जाते हैं। उदयपुर, चित्तौड़ और भीलवाड़ा में घास के मैदान सीमित क्षेत्र में पाये जाते है।
यह निश्चित है कि किसी प्रदेश की वनस्पति वहां की जलवायु, पानी की उपलब्धता, मिट्टी और भूपृष्ठ के भूवैज्ञानिक इतिहास से प्रभावित होती है। भूमि की स्थिति का प्रभाव भी वनस्पति पर पड़ता है। उदाहरण के लिये अरावली के पूर्वी भाग की वनस्पति पश्चिमी भाग से भिन्न है। परिस्थिति के अनुसार वनस्पति में भिन्नता पाई जाती है।
इस आधार पर यहां शुष्क सागवान वन, शुष्क पतझड़ वाले वन, मिश्रित पतझड़ वाले वन और सालर वन प्रमुख हैं। इन वनों में धोकड़ा, आम, तेन्दु, सालर, बबूल, गूलर, खैर, नीम, बहेड़ा, खिरनी, सेमल, टिमस, बांस, आंवला, ओक, धोर, करौंदा आदि प्रमुख है। वैधानिक स्तर पर मेवाड़ में वनों के दो मण्डल है उदयपुर मण्डल और चित्तौडग़ढ़ मण्डल। इसके अतिरिक्त चित्तौड़ जिले का दक्षिणी भाग (प्रतापगढ़ जिला) बांसवाड़ा मण्डल के अन्तर्गत है और भीलवाड़ा जिले का उत्तरी-पूर्वी भाग टोंक मण्डल के अन्तर्गत है।
वनों को प्रशासनिक दृष्टि से तीन भागों में बांटा गया है- आरक्षित, रक्षित और अवर्गीकृत। ३१ दिसम्बर १९९१ के आंकड़ों के अनुसार मेवाड़ के कुल वनीय क्षेत्र में ५२५८.६२ वर्ग कि.मी. आरक्षित, ४५०५.६४ कि.मी. रक्षित और १४९.२० वर्ग कि.मी. अवर्गीकृत वन हैं। इनमें अवर्गीकृत वनों में लकड़ी काटने पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है जबकि सुरक्षित वनों में इसके लिये प्रतिबंध है।
वन की उपज - वनों का महत्व उसके क्षेत्र के विस्तार से नहीं अपितु इनसे प्राप्त होने वाली कुछ विशिष्ट प्रकार की उपजों से आंका जाता है जो आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है। इन उपजों को दो वर्गों में बांटा जाता हैं-प्रमुख और गौण। प्रमुख उपजों में इमारती लकड़ी, ईंधन की लकड़ी और गोंद है तथा गौण उपजों में पत्तियां, फल, घास, बांस, कत्था, मोम, शहद, चमड़े की रंगाई व वनोषधियां प्रमुख है।
प्रमुख उपजें - इमारती लकड़ी के लिये सागवान, सालर, बबूल, काला शीशम, धावड़ा, नीम, धोक, आम आदि काम में आते है। ईंधन की लकड़ी अरावली की पहाडिय़ों में पाई जाती है इनमें खैर, कमूठा, बेल, सिरस, काला सिरस, धोक, झिंका, सेमल, सालर, उम्बिया, धवन, कैंथ, कडाया, खाखरा आदि प्रमुख है। गोंद-कडाया, धोक, सालर, गोदल और खैर से प्राप्त किया जाता है। इसको प्राप्त करने के लिये पेड़ की छाल की हल्की परत हटाई जाती है जिससे वहां रस निकलता है जिसके सूखने से गोंद तैयार होती है। इसको इक_ा करना पड़ता है जो काम ठेके पर दिया जाता है।
गौण उपजें - कत्था 'खेर' के पेड़ से प्राप्त किया जाता है। इसे दो प्रणालियों से प्राप्त किया जाता है हाण्डी प्रणाली और कारखाना प्रणाली। मेवाड़ में इसे हाण्डी प्रणाली से तैयार किया जाता है। इसमें खेर के पेड़ की छाल हटा कर उससे रस प्राप्त किया जाता है जिसे हाण्डी में उबाल कर उसका पानी नितारकर गाडे पदार्थ को सुखाया जाता है और सूखने के बाद उसके टुकड़े कर गट्टे किये जाते है तब बाजार में आता है। यह काम यहां की स्थानीय कथोड़ी जाति करती है।
इसके अतिरिक्त यहां बांस काटा जाता है जिसका उपयोग टोकरी, चटाई, चारपाई बनाने व झोपड़ी और कागज के उद्योग में किया जाता है। चमड़े की रंगाई के लिये आवल नाम की छाल का उपयोग किया जाता है। ये झाडिय़ों के रूप में पाये जाते है जिसके पत्ते पशु नहीं खाते। इसी तरह तेन्दु पेड़ के पत्ते बीड़ी उद्योग में काम में आते हैं। इस पेड़ को स्थानीय भाषा में टिमरू कहते हैं। उक्त उत्पादों के अतिरिक्त वनों से शहद, मोम, महुआ, पुवार, रतनजोत, वनौषधियां और वनफल प्रमुख है।
वन फल और कन्द ये स्थानीय व्यक्तियों के आहार का अंग होते है। वन फलों में बेर, चारोली, टिमरू, करौंदा, आंवला, आम, इमली, जामुन, अंजीर, गूंदा, कोटबड़ी, सीताफल, खरपटा, खजूर आदि प्रमुख है। इस प्रकार कन्द भी यहां के आदिवासियों का आहार है जो जड़, गांठ, सपाटाह के रूप में मिलता है इनमें प्याज, लहसुन, अदरक, काला कान्दा, सूरजकन्द, हल्दी, वाराही कन्द, विदाही कन्द, यस्याकंद आदि प्रमुख है। इनमें भी विदाही कन्द यहां के जनजीवन से जुड़ा हुआ है।
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