शनिवार, 20 जून 2009

इतिहास तत्वज्ञ डा. गोपीनाथ शर्मा Dr. Gopinath Sharma तत्वज्ञ history

`मेवाड़ एण्ड मुगल एम्परर्स' इस शोध ग्रंथ ने डा. गोपीनाथ शर्मा को इतिहास के क्षेत्र में प्रसिद्ध इतिहासकारों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। इसी प्रसिद्धि के कारण जोधपुर में इतिहास के अध्यक्ष श्री हेमराज जी के सेवानिवृत होने पर डा. गोपीनाथ शर्मा को पदोन्नत कर जोधपुर स्थानान्तारित किया गया। यह पदोन्नति प्रारंभ में अस्थायी तौर पर की गई। बाद में राजस्थान लोकसेवा आयोग के माध्यम से चयनित होकर स्थायी रूप से पोस्ट- ग्रेजुएट प्रोफेसर के रूप में आपने कार्य भार संभाला।
डूंगरपुर-बांसवाड़ा का प्रश्न :- सन् 1953-54 में भारत के राज्यों के पुनर्गठन के बारे में वार्ताएं चल रही थी। कौन सा भू भाग किस प्रदेश का अंग बने इसका मानचित्रों पर रेखांकन किया जा रहा था। गुजरात राज्य ने डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर जिले का दक्षिणी भाग, सिरोही, आबू तथा जालोर को अपने राज्य में मिलाने दावा प्रस्तुत किया। गुजरात राज्य ने इस कार्य को सम्पादित करने के लिए डा. मजूमदार जैसे इतिहासविद् को आमंत्रित करके उन्हें कार्य सौंपा। राजस्थान राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया जी की पैनी दृष्टि ने डा. गोपीनाथ जी की योग्यता को पहिचान लिया था अत: यह कार्य राज्य सरकार ने डा. शर्मा को दिया।
कार्य दुस्साध्य था पर असम्भव नहीं। चुनौती पूर्ण कार्य के लिए तो वे सदा तत्पर रहते थे। गुजरात ने यह लिखा था कि राजनैतिक दृष्टि से यह भाग राजस्थान पूर्व में अंग रहा हो पर सांस्कृतिक दृष्टि से यह भू भाग गुजरात का ही अंग होना चाहिये। इन क्षेत्रों के दस्तावेजों, शिलालेखों व अन्य स्रोतों की खोज के लिये इन्हें कई दिनों तक जोधपुर के बाहर रहना पड़ता था। पत्नी और बच्चों को अपने कार्य की सिद्धि के लिये कष्ट देना उन्हें अखरता था, पर आवश्यक होने के कारण यह उन्हें करना पड़ता था। अपनी पत्नी से इस कठिनाई के बारे में वे चर्चा करते तो उनकी पत्नी सान्त्वना भरे शब्दों में कहती- ``आप जो भी करते हैं सोच समझ कर ही करते हैं। मुझ आप पर पूरा भरोसा है। मुझे आपके इस कार्य से किसी कठिनाई का अनुभव नहीं होता।'' यहीं कारण था कि डा. शर्मा अपना कार्य समय पर पूर्ण करने में सफल हुए। उनके सद् प्रयत्नों से डूंगरपुर बांसवाड़ा आदि राजस्थान के ही अंग बने।
डा. शर्मा की कार्य कुशलता और लगन को देखकर पुनर्गठन का कार्य पूर्ण होते ही राजस्थान सरकार ने उन्हें ``भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में राजस्थान का योगदान'' के तथ्यों को संकलित करने के लिये अनुंसधान अधिकारी नियुक्त किया। यह भी मात्र तथ्यों को इकट्ठा करने का कार्य नहीं था। स्वतंत्रता के पूर्व विभिन्न रियासतों में आन्दोलन का स्वरूप एक सा नहीं था। कहीं कहीं आन्दोलन ने इसका उग्र रूप धारण कर लिया था। ऐसे विविधतापूर्ण आन्दोलन के विषय को व्यवस्थित व क्रमबद्ध करने का कार्य सरल नहीं था। पर डा. शर्मा ने अथक परिश्रम कर इस कार्य को भी समयावधि में पूर्ण कर दिखाया।
इस समय तक वे भारत के पुरातत्व व इतिहास के विभिन्न संस्थाओं के साथ जुड़ चुके थे। इन संस्थाओं में समय समय पर विभिन्न विषयों पर पत्र वाचन करने के लिये डा. शर्मा को बुलाया जाता रहा। पत्रवाचन, लेखन में उनका विषय मेवाड़ व इतिहास से सम्बन्धित ही रहते थे जिनका प्रकाशन पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर होता रहा। राजस्थान सरकार ने उनकी इस रूचि को देखते हुए उन्हें ``उदयपुर संभाग के ऐतिहासिक सर्वेक्षण समिति'' का सचिव बनाया। यह सर्वेक्षण का कार्य उनकी देखरेख में सन् 1956 तक पूर्ण कर लिया गया। उनके जीवन का हर पल, हर क्षण, हर लेख, हर वार्ता इतिहास के लिये ही थे। इतिहास के मूक शोधन के रूप में लग रहना ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया।
सन् 1954 में शंकर सहाय सक्सेना महाराणा भूपाल कालेज के प्राचार्य बनकर आये। आते ही उन्होंने राजनीति शात्र और इतिहास के विषय को अलग कर इसके दो विभाग बना दिये और इतिहास विभाग के रिक्त हुए पद पर डा. गोपीनाथ शर्मा को बुलवा लिया। डा. शर्मा जोधपुर से स्थानान्तरित होकर उदयपुर आ गये। उदयपुर के आवास के समय उन्होंने डी.िलट करने का निश्चय किया। ``मध्ययुगीन राजस्थान का सामाजिक जीवन'' यह उनके शोध का विषय था। सन् 1962 तक यह शोध ग्रंथ लिखकर तैयार हो गया। इस शोध कार्य के परीक्षक थे डा. आर.पी. त्रिपाठी जो उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे। यह साक्षात्कार आगरा विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में हुआ। उस समय साक्षात्कार खुला होता था कोई भी आकर प्रश्नोत्तर सुन सकता था। दर्शकों को प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं था। इस साक्षात्कार में डा. शर्मा के परम मित्र व्रजराज चौहान भी आगरा आये थे। साक्षात्कार सुरूचिपूर्ण और प्रभावी रहा। डा. शर्मा को डी.िलट की उपाधि प्रदान की गई। इस साक्षात्कार से चौहान साहब इतने प्रसन्न हुए कि उनको इस खुशी में उन्होंने वहीं `ताजमहल का संगमरमर का माडल' स्मति चिन्ह के रूप में भेंट किया। कैसे थे वे मित्रता के मधुर क्षण।

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