रविवार, 21 जून 2009

मेवाड़ तथा समानार्थी शब्दों की उत्पत्ति (Origin of words and synonyms Mewar)


मेवाड़ क्षेत्र राजपूताने के सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में से एक जाना जाता है। राज्य की राजधानी उदयपुर हो जाने के कारण लोग इसे उदयपुर राज्य के रुप में भी जानते हैं।

संस्कृत में उपलब्ध शिलालेखों तथा पुस्तकों में इस राज्य के लिए मेदपाट शब्द का उल्लेख मिलता है। संभवतः पहला उल्लेख बी.एस. १००० के टूटे हुए एक अभिलेखों में है, जो आहाड़ के आदिवराह के मंदिर से संबद्ध है और इसके बाद भी कई अन्य अभिलेखों एवं पाण्डूलिपियों में इसकी पुनरावृत्ति होती रही। इससे यह प्रमाणित होता है कि मेवाड़ शब्द की व्युत्पत्ति मूल शब्द मेदपाट से हुई।

मेवाड़ राज्य पर पहले मेद अर्थात मेव या मेर जाति का वर्च होने के कारण ही संभवतः इसका नाम मेदपाट पड़ा। मेवाड़ का एक हिस्सा अब तक मेवल कहलाता है, जो मेवों के राज्य का स्मरण दिलाता है। मेवाड़ के देवगढ़ की तरफ के इलाके में तथा अजमेर- मेरवाड़े के मेरवाड़ा प्रदेश में, जिसका अधिकतर अंश मेवाड़ राज्य का ही हिस्सा हुआ करता था, अब तक मेरों की आबादी अधिक है।

कुछ विद्वानों मेर लोगों की गणना हूणों में करते हैं, परंतु मेर लोग अपनी उत्पति ईरान की तरफ के शाकद्वीप (शकस्तान) से बनलाते हैं। अतः एक संभावना यह भी है कि वे पश्चिमी क्षत्रपों के अनुयायी या वंशज हों।

चित्तौड़ के किले से ७ मील उत्तर में मध्यमिका नाम की प्राचीन नगरी से खंडहर हैं, जो इस समय नगरी के नाम से ही जाना जाता है। वहाँ से मिलने वाले कई तांबे के सिक्कों पर वि. सं. के पूर्व की तीसरी शताब्दी के आसपास की ब्राह्मी लिपि में मझिमिकाय शिविजनपदस (शिविदेश की मध्यमिका का सिक्का) लिखा है। इससे पता चलता है कि उन दिनों मेवाड़ (या उसका चित्तौड़ के आसपास का क्षेत्र) शिवि के नाम से जाना जाता था। बाद में वही देश मेदपाट (मेवाड़) कहलाने लगा। लोग उसका प्राचीन नाम भूल गये।

करनबेल (जबलपुर के निकट) के एक शिलालेख में प्रसंगवश मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा हंसपाल वैरिसिंह और विजयसिंह का वर्णन आया है, जिसमें उनको ""प्राग्वाट'' के राजा कहा गया है। अतएव प्राग्वाट मेवाड़ का ही दूसरा नाम होना चाहिए। संस्कृत शिलालेखों तथा पुस्तकों में "'पोरनाड़'' महाजनों के लिए प्राग्वाट नाम का प्रयोग मिलता है और वे लोग अपनी उत्पत्ति मेवाड़ के पुर कस्बे से बतलाते हैं, जिससे संभव है कि प्राग्वाट देश के नाम से वे अपने को प्राग्वाटवंशी कहते रहे हों।

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