सृष्टि के प्रारम्भ से ही मानव प्रकृति के सान्निध्य में रहा है। उसी के साहचर्य से उसने वनस्पतियों का ज्ञान प्राप्त किया। सभ्यता के विकास के साथ-साथ जैसे-जैसे उसकी आवश्यकता उभरने लगी, वैसे-वैसे वनस्पतियों का क्षेत्र विस्तृत होता गया। इस कार्य में सर्वाधिक सहायता उसे पशुओं से मिली। पशु-पक्षी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जिन वनस्पतियों का प्रयोग करते थे उनको देखकर उनका प्रयोग मनुष्य ने अपने लिये भी करना प्रारम्भ कर दिया। पशुओं की प्रयोगशाला में वह अनेक वनस्पतियों का अनुसंधान कर उन्हें प्रकाश में लाने में सफल हुआ। यद्यपि उस समय आज की तरह तकनीकी यंत्र उपकरण आदि उपलब्ध नहीं थे तथापि सूक्ष्म परीक्षण शक्ति के बल पर उन्होंने सब कुछ सिद्ध किया। वैदिक साहित्य में भी इन वनौषधियों का वर्णन मिलता है।
मेवाड़ में अरावली की श्रेणियां वनों से अच्छादित है। मेवाड़ तो शिव की भूमि है और ऐसी भूमि में वनस्पतियां न हो ऐसा नहीं हो सकता। अरावली के मुख्यत: तीन भाग हैं उत्तर, मध्य और दक्षिण। मेवाड़ में दक्षिण अरावली का भाग है। क्षेत्र में जैविक विविधता अधिक हैं। वर्षा अधिक और ऊं चाई के कारण इस क्षेत्र में चौड़ी पत्ति वाले शुष्क व नम पतझड़ी मिलते है। यद्यपि वाह्य कारणों से वनों में कमी आती जा रही है तो भी वन विभाग के प्रयत्न और सरकारी प्रतिबन्धों के कारण अरावली वन्य क्षेत्र में वनौषधि की काफी बहुलता है। इस समय फुलवाड़ी की नाल, सीतामाता, कुम्भलगढ़, सज्जनगढ़, झाड़ोल, गोगुन्दा, कोटड़ा आदि क्षेत्र वनौषधियों की दृष्टि से धनी क्षेत्र है। अरावली और विन्ध्याचल पर्वतमाला के संगम पर सीतामाता अभयारण्य स्थित है। अत: वहां इकोटोम बन जाने से कोर प्रभाव के कारण वनौषधियों की विविधता में अत्यधिक वृद्धि हुई है।
इन वनौषधियों के वर्गीकरण को हम अनेक प्रकार से देख सकते हैं। पर्वतीय प्रदेश की स्थिति के आधार पर, प्रकृति के आधार पर, निवास के आधार पर और उपयोग के आधार पर।
ढ्ढ. पर्वतीय प्रदेश की स्थिति के आधार पर इसके तीन भेद है-पहाडिय़ों के तलहटी में, पहाड़ों की मध्य ऊं चाई में तथा पर्वतीय प्रदेश के ऊ घ्र्व चट्टानों पर। इनमें विविध प्रकार की वनौषधियां प्राप्त होती है। ढ्ढढ्ढ. प्रकृति के आधार पर इन औषधियों को ६ भागों में बांट सकते हैं, शाकीय, झाड़ी, लता, वृक्ष, कन्द और घास। ढ्ढढ्ढढ्ढ. निवास के आधार पर इसे चार भागों में बांटा जा सकता है-जलोद् भिद्, शैलजोद् भिद्, शुष्कोद्भिद्, समोद् भिद। और अन्तिम है उपयोग के आधार भेद। वनौषधियों का उपयोग उनके गुणों के आधार पर किया जाता है-जैसे स्मरण- दृष्टि बढ़ाने वाली, शक्ति बढ़ाने वाली, शान्तिप्रदायक, प्रशान्तक, विरेचक, क्षुधावर्धक आदि। इस प्रकार इन्हें २६ भागों में विभक्त किया गया है।
मेवाड़ के इन वनीय क्षेत्रों में असंख्य वनौषधियां हैं। इसमें हर वनस्पति अपने में औषध का कोई न कोई गुण अवश्य रखती है। कहा भी गया है 'नास्ति मूल मनौषधम्' अर्थात् वनस्पति की ऐसी कोई जड़ नहीं जो औषधि न हो। अरावली के इस सम्पूर्ण क्षेत्र में ६०० प्रकार की वनौषधियां है जिनका उपयोग विविध औषधियों में किया जाता है। इन वनौषधियों की प्रकृति को समझते हुए इन्हें एक ही स्थान पर लगाने के उद्देश्य से झाड़ोल के 'साण्डल' माताजी के पास ८५ हेक्टेयर भूमि पर 'नाल साण्डल' नामक वनौषधि उद्यान विकसित किया गया है जिनमें अरावली प्रदेश में पाई जाने वाली समस्त वनोषधियों को लगाने का प्रयत्न किया गया है। इस नाल की विशेषता यह है कि नाले की क्षितिजिय प्रकृति अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग है। नाले के किनारे से ज्यों-ज्यों दूर होते जायेंगे अथवा लम्बाई में नाले के प्रारम्भ से आगे की ओर जायेंगे सब स्थानों की प्रकृति अलग होगी। अत: हर परिस्थिति और वातावरण उसके गुण दोष को ध्यान में रखकर ही 'नाल साण्डल' का विकास किया गया है।
इतनी विविधता लिये वन की औषधियों का अब तक समग्र रूप से प्रयोग नहीं किया जा सका है। अत: इस क्षेत्र में अनुसंधानों की महती आवश्यकता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिये कि इन वनौषधियों के बारे में कोई नहीं जानता। वनीय क्षेत्रों में रहने वाले मुख्यतया भील, मीणे, डामोर, गरासिया, कथोड़ी आदि परम्परा से इन वनौषधियों के उपयोग को जानते थे। इनके द्वारा पीढिय़ों से रोगोपचार में प्रयुक्त चिकित्सा विद्याएं और उसमें वनस्पति का उपयोग स्वयं इस बात के प्रमाण हैं कि ये वनौषधियों के बारे में विशिष्ट ज्ञान रखते है। यह बात अलग है कि वे इसका वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं जानते पर परिणामों से उनके उपयोग को परखा अवश्य जाता है। ऐसे चिकित्सा करने वालों को स्थानीय स्तर पर 'लोक चिकित्सक' या 'भोपा' कहा जाता था। इन 'लोक चिकित्सकों' के वनस्पति ज्ञान को वैज्ञानिक स्वरूप देने के लिये अनुसंधान की आवश्यकता है। यह पहल आयुर्वेद विभाग को अवश्य करनी चाहिये।
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