रविवार, 21 जून 2009

मेवाड़ के चित्रकार : एक सेक्षिप्त परिचय (Mewar the painter: an Introduction Sekshipt)

अन्य राजपूताना रियासतों की तरह मेवाड़ भी चित्रकला के क्षेत्र में एक विशेष योगदान रखता था। वास्तव में यहाँ की शैली को उस पुरे क्षेत्र की पहली शैली के रुप में सम्मान प्राप्त है। हिन्दु तथा मुस्लिम दोनों चित्रकारों को उचित सम्मान तथा प्रतिष्ठा दी जाती थी। काम के बँटवारे की कोई निश्चित नीति नही थी लेकिन वे प्राय : बहुआयायी प्रतिभा के होते थे। राणाओं द्वारा चित्रकारों को इनाम के तौर पर गाँव तथा सम्मान के लिए उत्तराणी नछरावल का रुपीया (चाँदी के खास सिक्के) देते थे। राज्य के अन्य विभागों की तरह चित्रकला का भी एक विभाग होता था जिसे चितारों का कारखाना कहते थे। ठदरोगा' जो एक प्रधान चित्रकार होता था वह इस पर नियंत्रण करते थे।


कुछ विश्वसनीय साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि रियासत में कम-से-कम चार तरह के चित्रकार काम करते थे।


१. ओदेदार चित्रकार (जांगिड ब्राह्मण) - ये सरकारी चित्रकार होते थे तथा रियासत से वेतन लेते थे। उन्हे गोदान से प्रतिदिन राशन भी मिलता था।

२. नन-ओदेदार चित्रकार (ब्राह्मण या बढईयों के लडडानी समुदाय) - ये वैसे स्वतंत्र पेशेवर चित्रकार थे जो किसी विशेष अवसर पर नियुक्त किये जाते थे तथा हर तरह के कार्य जैसे आन्तरिक सज्जा, तथा कल्पनात्मक विषयों पर मिनिएचर चित्रकारी करते थे।

३. नन-ओदेदार चित्रकार (भाटी गोत्र के मुस्लिम जो हिन्दु परिवारों में भी व्याहे गये थे)
- स्वतंत्र पेशेवर चित्रकार थे जो सुक्ष्म सज्जा कार्य जैसे घरों, दरवाजो, पालकी, तोरण, तामझाम, गनगौर चित्र आदि पर चित्रकारी करते थे।

४. गजाधर या सुत्रधर (ज्यादातर जांगिड ब्राह्मण या लढ़ाणी सुतारे (बढ़ई) - इस श्रेणी में वास्तुविद् अभियंता तथा मिस्री आते थे। ये चित्रकार समय-समय पर चित्रों तथा सज्जाओं के स्थानान्तरण का जिम्मेवारी लेते थे। इन चित्रकारों ने साधारण जनता की जरुरतों को भी पुरा किया।



ठतसवीरों का कारखाना' के दरोगा को रियासत से प्रतिमाह वेतन दिया जाता है। महारणा शभ्भू सिंह (१८६१-१८७४ ई.) के समय मुसबीर पस्शराम जी गौड शर्मा तसवीरों का कारखाना के दरोगा थे।

नन ओदेदार चित्रकारों में जो हिन्दु तथा मुस्लिम दोनों थे, ने ज्यादा काम महल से बाहर अपने घर पर ही किया। महल में वे छोटी-मोटी चित्रकारी व गृह-सज्जा कार्य जैसे घरो/हवेलियों, दरवाजे तथा रिवड़कियों पर पुष्पाकृति का कार्य, दीवारों पर शिकार दृश्य, पालकी, तामझाम व गणगौर के चित्र बनाते थे। इस श्रेणी के चित्रकार राजसी शिकार यात्राओं पर जाते थे तथा राणा के पहुँचने के पहले जंगल में सारी तैयारियाँ पुरी करते थे।

तीसरी श्रेणी सुत्रधर और गजधरों की थी जो वास्तव में मकान बनाने ठेकेदार तथा अभियंता थे। इस श्रेणी का भी एक सम्मानजनक स्थान था।

कलाकारों का एक श्रेणी का प्रादुर्भाव लड़डानी समुदाय से हुआ। १८५० ई. से १९०० इ. के बीच बहुत से चित्रकार नाथद्वारा से उदयपुर भी आकर बस गये थे। उन्हे लड्डाणी सुतारे (बढ़ई) कहा गया। इस श्रेणी के बारे में अलग से कोई खास जानकारी नहीं है।

तसवीरों का कारखाना के चित्र प्राय: राणा की तस्वीर, कल्पनात्मक विषयों पर चित्र समेत हस्तलिपि, शिकार तथा उत्सव के दृश्य तथा रियासत से जुड़ी हुई खास घटनाओ से सम्बद्ध चित्र होते थे। यहाँ कम महत्व के कार्य जैसे लकड़ी के सामान, दरवाजे और पालकियों पर चित्रकारी का रिवाज नही था। ये कार्य बाहर के स्वतंत्र पेशवेर कलाकार कर दिया करते थे।

वर्त्तमान में कुछ चित्रकारों की अगली पीढियाँ अभी तक अपने पेशे को संरक्षण दे रही है। उनमें छगनलाल जी गौड़ शर्मा लीलाधर जी ; श्री तुलसी नाथ जी धायभाई, चिरांजी लाल, शामसुद्दीन आदि प्रमुख
है। चित्रकला को पहले की तरह तो सरकार का प्रश्रय नहीं प्राप्त है पर ये चित्रकार अपनी कला को अभी तक जीवित रखने के प्रयास में संघर्षरत है। वे वैसे ही मिनिएचर जो उसी समय के विषय-वस्तु से सम्बद्ध रहती है, बनाकर बेचते है तथा जीवकोपार्जन करते है।

चित्रकार शामशुद्दीन जो रियासत के मुस्लिम चित्रकारों के वंशज हैं अपने आप को ठचिताराम' कहते है। इसका अर्थ वे बताते है चितअराम उ चित्राम (चिताराम) यानि चित्त (मन) लगाकर कार्य करने से राम मिलेगे। वास्तव में इस तरह की अवधारणा सामान्य लगने के बावजुद महत्वपूर्ण है। यह हिन्दु तथा मुस्लिम चित्रकारों के एक दूसरे के प्रति आदर भाव को दिखाती है।

चित्रकारों द्वारा सोने का वरख तथा अन्य रंग बनाने की विधि

हींगलू

लाल रंग जिसका इस्तेमाल किनारों पर चमक बढ़ावे के लिए होता है। हरामाटा (सेलू) - यह बा से उपलब्ध हो जाते थे।

नील माठ की नील। लोहे की वस्तुओं को बरतन में डाल कर उसके मुँह को गाय के गोबर से बन्द करके जमीन में कई दिनों के लिए गाढ़ कर तैयार किया जाता था। यह रंग कपड़ो के गाढ़े नीले रंग में रंगने में काम आता था।
कज्जली लैम्प की कलिख जिसे गोंद में मिलाकर काला रंग बनाया जाता है।
गौ गोली - गाय के मुत्र से तैयार किया गया चमकीला पीला रंग
प्यावडी गेरुआ पीला। पीले पत्थरों को पीस कर उसमें गोंद मिलाया जाता है।
सिन्दूर साधारण लाल शीशा को बारीकी से कुटा जाता था। परीक्षण के लिए उसमें थोड़ा गुड़ मिला देने पर यह नारंगी रंग का हो जाता है।
नीली आकाश के समान नीला यह बाज़ार में उपलब्ध है।





मेवाड़ चित्रकला की चित्रण सामग्री का तकनीकी स्वरुप

Technical content of Mewar painting depicting the nature of




मेवाड़ में चित्रांकन की अपनी एक विशिष्ट परंपरा रही है, जिसे यहाँ के चित्रकार पीढियों से अपनाते रहे हैं। चितारे (चित्रकार वर्ग) अपने अनुभवों एवं सुविधाओं के अनुसार चित्रण के कई नए तरीके भी खोजते रहे हैं। दिलचस्प बात यह है कि वहाँ के कई स्थानीय चित्रण केन्द्रों में वे परंपरागत तकनीक आज भी जीवित हैं।

तकनीकों का प्रादुर्भाव पश्चिमी भारतीय चित्रण पद्धति के अनुरुप ही ताड़ पत्रों के चित्रण कार्यों में ही उपलब्ध होता है।

यशोधरा द्वारा उल्लेखित षडांग के संदर्भ एवं समराइच्चकहा एवं कुवलयमाला कहा जैसे ग्रंथों में ""दट्ठुम'' शब्द का प्रयोग चित्र की समीक्षा हेतु हुआ है, जिससे इस क्षेत्र की उत्कृष्ट परंपरा के प्रमाण मिलते हैं। ये चित्र मूल्यांकन की कसौटी के रुप में प्रमुख मानक तथा समीक्षा के आधार थे।

विकास के इस सतत् प्रवाह में विष्णु धर्मोत्तर पुराण, समरांगण सूत्रधार एवं चित्र लक्षण, जैसे अन्य ग्रंथों में वर्णित चित्र कर्म के सिद्धांत का भी पालन किया गया है। परंपरागत कला सिद्धांतों के अनुरुप ही शास्रीय विवेचन में आये आदर्शवाद एवं यथार्थवाद का निर्वाह हुआ है।

प्रारंभिक स्वरुपों का उल्लेख आठवीं सदी में हरिभद्रसूरि रचित समराइच्चि कहा एवं कुवलयमाला कहा जैसे प्राकृत ग्रंथों से प्राप्त कला संदर्भों में मिलता है। इन ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के रंग- तुलिका एवं चित्रफलकों का तत्कालीन साहित्यिक संदर्भों के अनुकूल उल्लेख, मेवाड़ में प्रामाणित रुप से चित्रण के तकनीकी पक्ष का क्रमिक विकास यहीं से मानते हैं तथा चित्रावशेष १२२९ ई. के उत्कीर्ण भित्तिचित्रों एवं १२६० ई के ताल पत्रों पर मिलते हैं।





मेवाड़ी चित्रकला के तकनीक प्रेरक तत्व

Mewadi painting techniques of motivational factors

मेवाड़ में प्रारंभिक गुर्जर प्रभाव काल से ही चित्रों में नाक, आँख, ठुड्डी एवं पहनावे का साल अंकन जैन चित्रों एवं गुर्जर कला में विकसित पाते हैं। पशु, पक्षी, पेड़ पत्तियाँ, फल- फूल आदि का कलात्मक सरलीकरण, नारी चित्रों के पहनावे में चित्रण में सादगी एवं अन्य सरलीकृत आकृतियाँ तत्कालीन चित्रण परंपरा में आधुनिक रुपों एवं विरुपण को व्यक्त करती है।

रंगों में भी भिन्न- भिन्न प्रकार की रंग- श्रेणियाँ एवं झाइयों का प्रयोग है। रेखा, रंग, रुप एवं संयोजन का विश्लेषणात्मक प्रयोग मेवाड़ चित्र- शैली में संतुलित ढ़ंग से किया गया है। यही मेवाड़ के परंपरागत चित्रकारों की कुशल सुझ- बुझ का प्रतीक है। चित्र- संयोजन के साथ आत्मिक सात्विकता के आधार पर श्रृंगारिक एवं रीतिकालीन राग- रागिनियों का चित्रण हुआ है, उनमें भी वही सात्विक कौमार्य भाव है, जिन्हें दर्शक- ईश्वरीय गुणों के अनुरुप मान लेता है। यह इस चित्रशैली के चित्रों की मनोवैज्ञानिक संयोजन प्रणाली की विशेषता है। परंपरागत मेवाड़ चित्रशैली में सभी प्रेरक तत्व इस चित्रशैली के कलावादी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं।



मेवाड़ी चित्रों के प्रमुख विषय

Mewadi pictures of the major subject

मेवाड़ी चित्र शैली के चित्रण के प्रमुख विषय निम्न रहें हैं-

क. धार्मिक एवं पौराणिक काव्य विषयक चित्र
ख. पशु- पक्षियों का भावात्मक अंकन
ग. विज्ञप्ति पत्र
घ. व्यक्ति चित्र
ड़. सामाजिक रीति रिवाज एवं विभिन्न पर्वों� का चित्रण
च. राग- रागनियाँ संबंधी चित्र
छ. बारहमासा का चित्रण
ज. आखेट एवं युद्ध चित्र
झ. तत्कालीन सामाजिक जीवन का चित्रण

क. धार्मिक एवं पौराणिक काव्य विषयक चित्र

धार्मिक विषय वस्तु का चित्रण मेवाड़ के प्रारंभिक चित्रों में अधिक हुआ है। इन चित्रों पर जैन तथा हिंदू धर्म का विशेष प्रभाव रहा है। सचित्र ग्रंथों में, जो चित्रण सामग्री है, वह श्वेताम्बर संप्रदाय से संबंधित जैन ग्रंथों में पश्चिमी भारतीय चित्रकला के रुप में मेवाड़ में विकसित हुई पाई जाती है। प्रारंभिक से ही श्वेताम्बर जैनों में कल्पसूत्र एवं दिगम्बर जैनों में यशोधरा चरित को चित्रित करने की सुदृढ़ परंपरा रही है। आहड़ में श्वेताम्बर जैन सचित्र ग्रंथ श्रावक प्रतिक्रमण सुत्तचूर्णि का चित्रण हुआ। देलवाड़ा के श्वेतांबर जैनियों के द्वारा सुपासनाह चरियम तथा वही नेमीनाथ मंदिर में ज्ञानार्णव नाम दिगम्बर जैन ग्रंथ सचित्र रचा गया। ये तिथियुक्त चित्र मेवाड़ की चित्रकला के प्रारंभिक पुष्ट प्रमाण हैं।

मेवाड़ के शासक शिव के उपासक व एकलिंग जी को आराध्य देव मानते रहे हैं। साथ ही वहाँ वैष्णव धर्म का भी प्रचार- प्रसार होता रहा है। अतः यहाँ कई हिंदू धार्मिक ग्रंथों, जैसे भागवत, गीत- गोविंद, सूर सागर, रामायण, महाभारत आदि के विषयवस्तु पर चित्र संपुटों को चित्रित किया गया। उदयपुर, नाथद्वारा तथा काँकरोली केंद्रों में वैष्णव धर्म संबंधित भगवान कृष्ण की लीलाओं के चित्र बनवाये जाते रहे। मेवाड़ नरेशों ने सूर्यवंशी होने के कारण अपने आप को मर्यादा पुरुषोत्तम राम के पंथ का माना तथा चित्रकारों ने रावण को आक्रामण अमानुषी जाति के रुप में चित्रित किया।

महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी थे। उनके काल में ही धार्मिक चित्रों की रचनाएँ सबसे अधिक हुई। इनके वंशजों ने वल्लभ संप्रदाय को उच्च स्थान दिया तथा सभी आनंददायक स्वरुपों को सूर और बिहारी के काव्यानुरुप मुखरित एवं चित्रित कराया। कृष्ण चरित्र, कवि प्रिया, रसिक प्रिया, गीत- गोविंद आदि ग्रंथों को नए अंदाज में चित्रित किया गया। सन् १७४० ई. में चित्रित दुर्गा- सप्तशती में देवी- देवताओं के साथ राक्षसों का मानवीय कुरुप चेहरों में चित्रण हुआ, जो धर्म एवं अधर्म के बदलते रुप- सौदर्य को दर्शाते हैं।

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ख. पशु - पक्षियों का भावात्मक अंकन

मेवाड़ के चित्रकारों ने पशु- पक्षियों के चित्रण को भी अपना मौलिक मनोविज्ञानिक रुप प्रदान किया है। उन्होंने पशुओं को कहीं देवता मानकर चित्रित किया, तो कहीं उन्हीं के व्यक्तिगत दु:ख- सुख की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया है। उन्हें भी मानवोचित गुणों, करुणा, सहानुभूति, प्रेम आदि से विभूषित करने की कोशिश की गई है। धार्मिक चित्रों में जहाँ कहीं पशुओं का चित्रण है, व चित्र के वातावरण के अनुरुप अपनी मूक भावना, करुणा, स्नेह तथा सात्विक से ओत- प्रोत दिखते हैं। गाय व मयूर के चित्रण में सर्वत्र गति व सजीवता अंकित हुई है। हाथियों का चित्र भी बड़ा रोचक है। उसमें जोश, पागलपन, कोमल स्वभाव, करुणा, सात्विकता आदि का लयबद्ध चित्रण हुआ है।

जानवरों को ज्यादातर प्रतीकात्मक रुपों में चित्रित किया गया है। हरिण, गति एवं रति का प्रतीक है, तो हंस यौवन। ऐसे ही गधा मूर्खता का प्रतीक है, तो आर्ष रामायण में रावण के सर पर गधे का मुख अंकित करना, उसे विद्वान होते हुए भी गधे की भांति मूर्ख होना बताता है।

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ग. विज्ञप्ति पत्र

ग्रंथ चित्रों एवं लघु चित्रों के अतिरिक्त लपेटफलक के रुप में जिन चित्रों का निर्माण हुआ है उन्हें विज्ञप्ति पत्र कहते हैं। ये लम्बे कागज पर चित्रित होते थे तथा दो गोल लकड़ी के डण्डों के सहारे फिल्म-स्ट्रिप की भांति देखने का प्रावधान होता था। ऐसे विज्ञप्तिपत्रों का प्रचलन मेवाड़ मे विभिन्न राज्यकाल में होता रहा है जो वहाँ की उत्कृष्ट परम्परा को दर्शाती है। प्रत्येक राजा-महाराजा युद्ध या शान्ति के काल में स्थान परिचय हेतु चाहते रहे है। विषय-वस्तु के साथ-साथ स्थान विशेष की ऐतिहासिक गतिविधियों का भी गहराई से चित्रण किया जाता था। इन चित्रों में तत्कालीन राज-प्रसादों, सड़कों तथा उनके आस-पास की दुकानों गणगौर की सवारी व पीछोला-झील में नाव की सवारी आदि में मेवाड़ नरेश तत्कालीन वेशभूषा के साथ चित्रित है। इस प्रकार इससे समाज की तत्कालीन व्यस्था का उचित परिचय हो जाता है।

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घ. व्यक्ति चित्र

मेवाड़ में व्यक्ति चित्रण की परम्परा उतनी ही प्राचीन है जितनी चित्रों की परम्परा। "समराइच्चकहा' में शंखपुर के राजा की पुत्री रत्नावली को वर ढूँढ़ने व उसका चित्र बना लाने का आदेश कुवलयमालाकहा में उज्जयिनी की राजकुमारी का चित्रण (चित्र पुत्रलिया), "नागकुमारी चरित्र में राजकुमार का हूबहू व्यक्ति चित्र बनाने का वर्णन आदि इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं। वीर विनोद में सांगा, मीरा व प्रताप के शब्द युक्त व्यक्ति चित्र योजनाएँ १६ वीं एवं १७ वीं सदी के चित्रों में मिलती है। इस परम्परा में श्रेष्ठ व्यक्ति चित्र महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय (१७२० ई.) का है।

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ड़. सामाजिक रीति-रिवाज एवं विभिन्न पर्वो का चित्रण

मेवाड़ चित्र शैली में धार्मिक चित्रण के साथ ही सामाजिक एवं व्यक्तिवादी चित्रण अधिक हुआ है जिनमें धार्मिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र के अनुकूल मानवीय गुणों का विशेष प्रभाव है। प्रारम्भ से अन्त तक समाज की मनोदशाओं के आधार पर शान्त एवं स्वर्गिक सुखों की भावनाओं का चित्रण हुआ है। यही कारण है कि धार्मिक एवं श्रृंगारिक, सभी चित्रों में समान सात्विक भाव झलकते हैं जो तत्कालीन सरल सामाजिक व्यवस्था का सही प्रतिबिम्ब है। गोगुन्दा शादी में पधारे (१७५३ ई.), दशहरे पर खेजड़ी पूजन (१७१० ई.), नवरात्रि में खड़कजी की सवारी (१७११ ई.) आदि चित्र सामाजिक पर्वों� की प्राचीन परम्परा को स्पष्ट करता है। यही नहीं महाराणा भीम सिंह के राज्यकाल में "कृष्ण विलास' के भित्ति-चित्रों में मेवाड़ के सभी सामाजिक पर्वों�, उत्सवों एवं सामाजिक रीति-रिवाजों का चित्रण है।

इस प्रकार मेवाड़ी चित्रकला में मानव जीवन के सभी सामाजिक पर्वों�, उत्सवों में बालक के जन्म, बाल्यावस्था, युवावस्था, विवाह-संस्कार, गृहस्थ जीवन, वृद्धावस्था, श्मशान-संस्कार, पैतृक-क्रियाओं, साधु-सन्तों, पुजारी, ज्योतिषी, गुरुजनों का सामाजिक सम्मान, चित्रकार, शिल्पियों श्रेष्ठी जनों तथा हाजिन एवं भिखारियों आदि सामाजिक वर्गों का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रुप से चित्रण अवश्य हूआ है। इस चित्रशैली में समाज की हिन्दू परम्परा का उचित निर्वाह हुआ है।

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च. राग-रागनिया ें संबंधित चित्र

राग-रागनियों के चित्रों का प्रारम्भिक स्वरुप १५ वीं सदी से दृष्टिगत होता है। देवशानो-पाड़ो-ज्ञान भण्डार पाटन अहमदाबाद के कल्पसूत्र की सचित्र प्रति (१५५० ई.) में राग व रागनियों के चित्र अपभ्रंश शैली में बताये गये हैं पर ये पश्चिमी भारत शैली में चित्रित कल्पसूत्र (१५७५ ई.) के चित्र मेवाड़ के प्रारंभिक चित्रों के अनुकूल है। यही गुजरात अपभ्रंश एवं मेवाड़ चित्र-शैली का पूर्व रुप है। कालान्तर में इन चित्रों के चित्रण में दक्षता एवं विविधता बढ़ती गई। महाराणा कुम्भा द्वारा लिखित "संगीत राज' में राग-रागनियों का विस्तृत विवेचन मिलता है।

राग-माला के चित्रों को समझने के लिए रागों का समझना आवश्यक है। राग में स्वर आरोह प्रधान एवं रागिनी में अवरोह प्रधान होता है। पुर्जिंल्लग रागों में आश्चर्य, साहस व क्रोध की अभिव्यक्ति होती है, स्रिलिंग रागों में प्रेम, ह्रास और दु:ख तथा नपुंसक रागों में भय का चित्रण होता है।

रागमाला के एक राग के साथ पाँच रागिनियां (पत्नियाँ) मानी जाती है जिसमें ३६ या ४२ चित्र बनते हैं। चाण्डव के चित्रों में एक राग की छः पत्नियाँ मानकर ४२ चित्रों का चित्र-सम्पुट निशरदी ने तैयार किया। इसमें राग के पुत्र व पुत्रवधुओं तक को जोड़कर ७२, ७६, ८०, ८४ तथा १०८ तक के चित्र-सम्पुट बने हैं। प्रत्येक रागिनी भी प्रायः राग शब्द से ही संबंधित होती है। जिसका चित्रण मेवाड़ चित्र शैली में सफलता से वर्गीकृत किया है।

मेवाड़ के सभी चित्र निम्न सारणी के अनुरुप चित्रित हुए हैं। इनमें ७ रागों के साथ ३५ रागिनियाँ न होकर ३४ ही उपलब्ध हुई हैं-

राग

रागनियाँ

भैरव

भैरवी, सिन्दूरी, मालीसरी, ललित, पटमंजरी

मालकोश

खम्भावती, मालीगोड़, गोड़ी, रामगिरी, गुंनकली

हिण्डोल

विलावल, टौडी, देशाख, देवगंधार,मधुमाधयी

दीपक

धनासरी, वसन्त, कानाड़ो वराड़ी, देसवरती, मैद्यबेराड़ी

पंचम

दक्षिणगूर्जरी, काफीगोड मल्हार, ककुभ, विमास, अडानो

श्री

मलाहार, कामोद, असावरी, केदार

नटनारायण

सारंग, सोरठ, कल्याण, मेघ मल्हार, मारु

रागमाला चित्रों की शैलीगत मौलिकता को रंग, पहनावे, स्थापतय, संयोजन एवं अंकन में वर्गीकृत प्रमुख नायक-नायिकाओं का चित्रण चित्रकार के लिए महत्वपूर्ण विषय रहा है।

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छ. बारहमासा का चित्रण

वर्ष भर के बारह मास में नायक-नायिका की श्रृंगारिक विरह एवं मिलन की क्रियाओं के चित्रण को बारहमासा नाम से सम्बोधित किया जाता है। श्रावण मास में हरे-भरे वातावरण में नायक-नायिका के काम-भावों को वर्षा के भींगते हुए रुपों में, ग्रीष्म के वैशाख एवं जयेष्ठ मास की गर्मी में पंखों से नायिका को हवा करते हुए नायक-नायिकाओं के स्वरुप आदि उल्लेखनीय है। मेवाड़ के चित्रकारों ने समय के महत्व एवं मनोवैज्ञानिक पक्ष का सूक्ष्म अध्ययन कर बारहमासा के विभिन्न चित्रों में साकार रुप दिया है। महाराणा कुम्भा कालीन सचित्र ग्रंथ "रसिकोष्टक' (१४३५ ई.) में भीखम के विभिन्न ॠतुओं का चित्रण इसी क्रम में किया गया है। चोरपंचाशिका, गीतगोविन्द, कविप्रिया आदि चित्र सम्पुटों में श्रृंगारी रतिभाव प्रेमी और प्रेमास्पद नायिका के पारस्परिक संबंधों की पुष्टि होती है जिन्हें श्रृंगार वियोग और संयोग में वर्गीकृत किया जाता है। मेवाड़ के चित्रों में संयोग अनेक प्रकार का बताया गया है। श्रृंगारिक चित्रों की दृष्टि से संयोग (संभोग) श्रृंगार के ही भेद है। आदर्श नायक-नायिका में सामान्य सम्भोग तथा पशु-पक्षियों के सम्भोग को विशेष सम्भोग के रुप में देखा जाता है। विशेष सम्भोग को पुनः बारह भेदों में बाँटा जाता है जिनमें प्रत्येक की चार अवस्थाएँ हाती है।

मेवाड़ के श्रृंगारिक चित्र प्रायः सात्विक वृत्ति से रतिक्रिया का आभाष देते हैं। प्रारंभ में कृष्ण एवं गोपियों की क्रियाओं को रतिक्रिया का आधार बनाया गया। गीत-गोविन्द के चित्रों में कृष्ण को विभिन्न प्रकार की प्रेम लीलाओं में दर्शाकर, मानव-मन की सहज प्रक्रिया के रुप में दर्शक को श्रृंगारिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर किया है। इस प्रकार रति एवं प्रेम की भावनाओं को समरुप दर्शाने का प्रयास किया गया है। स्थान-स्थान पर कामदेव को प्रतीक रुप में उनके धनुष वाण को उग्र या शान्त रुप में अंकित करते हुए काम-भाव की दशा और वातावरण के प्रभाव को चित्रित करने की सफल अभिव्यक्ति की गई है। पूर्ण रतिभाव की सम्पुष्टि कलात्मक पक्ष में अन्तर्हित हुई है जो मनोवैज्ञानिक एवं तांत्रिक दोनों संदर्भो से जुड़ी है।

बारहमासा पर आधारित चित्र भित्ति चित्रों के रुप में भी प्रचलित रहे हैं। उदयपुर के कृष्ण निवास, नाथूलालजी जड़िया, बापना हवेली एवं सुलम्बर, देवगढ़, केवला, बदनोर, गंगापुर एवं अन्य कई ठिकानों के श्रृंगारिक चित्र इस प्रभाव की स्पष्ट प्रतिक्रियाएँ दर्शाते हैं।

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ज. आखेट एवं युद्ध चित्र

मेवाड़ के महाराणा व सामन्तों के बीच आखेट का महत्व एक प्रकार से क्रीड़ा के रुप में था जिसे वे शिकर की संज्ञा देते थे। यह उनके दैनिक कार्यक्रम का हिस्सा हुआ करता था जिससे उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण भी मिलता रहता था।

मेवाड़ के चित्रकारों ने पहाड़ों व झाड़ियों के मध्य सभी जंगली जानवरों का चित्रण बहुत सुहावने ढंग से किया है। इन चित्रों में एक ही फलक पर जानवर के गोली लगने से लेकर अन्त तक की अवस्थाओं में दर्शाने का प्रयास किया है। युद्ध चित्रों में भी मेवाड़ नरेशों की रण-नीति का स्पष्ट परिचय मिल जाता है। साथ-साथ ही इन चित्रों में वहाँ की भौगोलिक एवं ऐतिहासिक स्थिति का भी परिचय मिलता है। महाराणा अरिसिंह के राज्यकाल में शिकार से संबंधित चित्रों को सबसे अधिक बनाया गया। ऐसे चित्रों में विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित सूअर व शेर का शिकार (महाराणा अगतसिंह कालीन), हाथी का बध (जगतसिंह कालीन), बाघ का शिकार (महाराणा भीम सिंह कालीन), बाघ का शिकार (महाराणा अरिसिंह कालीन), भालू का शिकार (महाराणा फतह सिंह कालीन) आदि उल्लेखनीय हैं।

आर्ष रामायण (१६५१ ई.) के चित्रों में राम-रावण युद्ध के चित्र, महाभारत में चक्रव्यूह रचना के युद्ध दृश्य में मानवीय हलचल, बचाव एवं आक्रमण की स्थितियों को विशेष रुप से दर्शाया गया है। सन् १९३५ ई. में भूपालसिंह जी के राज्यकाल के प्रमुख चित्रकार चतुरभुजजी हल्दीघाटी नामक तैल चित्र बनाया था जो विभिन्न प्रकार की युद्ध क्रियाओं व युद्ध स्थल के दृश्य को दर्शाने का एक सफल प्रयास है।

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झ. तत्कालीन सामाजिक-जीवन का चित्रण

मेवाड़ चित्रशैली में समाजिक जीवन का चित्रण यहाँ की पुष्ट परम्पराओं के साथ लघुचित्रों में व्यक्त किया गया है। इन चित्रों में मुख्य रुप से सामाजिक प्रक्रियाओं एवं व्यक्तिवादी भावनाओं की अभिव्यक्ति रही है।

इन चित्रों में समयानुसार पहनावों का ध्यान रखा गया है। उत्सवों पर पहने जाने वाले वस्रों व परिधानों में निश्चित रंगों का संयोजन मिलता है। बसन्त ॠतु के दृश्यों में पीले वस्र धारण किये हुए लोग, बालक के जन्म उपलक्ष में पीली साड़ी व पीलिये का प्रयोग सौभाग्यवती स्रियों के लिए लाल व गुलाबी कपड़े इस चित्रण की विशेषता है। इसके अलग विधवाओं को श्वेत या पक्के रंग के वस्रों में, धर्माचार्य व उपदेशकों को श्वेत वस्र तथा साधु संन्यासियों को भगवा वस्र में दिखाया गया है।

मनोवैज्ञानिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए चित्रकारों ने सामाजिक परिस्थितियों का पुष्ट अंकन सिन्दूर, काजल, मेंहदी, महावर आदि के रुप में भी किया है।


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