शनिवार, 20 जून 2009

पं. जनार्दन राय नागर ( Pandit Janarthan Rai nagar )

पं. जनार्दन राय नागर के पूर्वज गुजरात के लीम्बड़ी गांव के थे। उनके नाना श्री फूलशंकर जी मेहता मेवाड़ के राजवैद्य थे। उन्होंने महाराणा सज्जनसिंह का उपचार किया था। महाराणा फतहसिंह के आग्रह पर नानाजी उदयपुर में ही बस गये। पं. जनार्दन राय नागर (जन्नुभाई) का जन्म उदयपुर में ही सन 1911 की 16 जून को हुआ। उस समय उनकी माता विजय लक्ष्मी नागर अपने पिता के घर पर ही थी। उनके पिता प्राणलाल जी अपने गांव लीम्बड़ी में ही रहते थे। बाद में उनके नाना के प्रयत्नों से उनके पिता प्राणलाल को मेवाड़ राज्य में राजगोदाम में नियुक्ति मिल गई। तब से यह परिवार भी स्थायी रूप से उदयपुर में बस गया।
जन्नूभाई बचपन से ही कुशाग्र व साहित्य में रूचि रखने वाले थे। छठी कक्षा में ही उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया था। उनका यह लेखन विद्यालय की भित्ति पत्रिकाओं में निरन्तर चलता रहा। जब वे इन्टर मीडियेट में अध्ययन कर रहे थे तो उन्होंने `मातृभूमि और स्वदेश' नामक पुस्तक लिखी जिसमें भारत में चल रहे ब्रिटिश शासन का विरोध था जिसकी शिकायत लोगों ने महाराणा से की। महाराणा ने जब वह पुस्तक मंगवाई और उसका अध्ययन किया तो उन्हें उनकी प्रतिभा पर गर्व हुआ और उच्च शिक्षा के लिये उन्हें बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में सरकारी खर्च पर भेज दिया। (पं. जनार्दन राय नागर स्मृति ग्रंथ- पृ. 220)
बनारस में उनका सम्पर्क भारत के मूर्धन्य साहित्यकारों से हुआ। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल व हरिऔध जैसे उन्हें शिक्षक मिले। मुंशी प्रेमचन्द्र, पं. जयशंकर प्रसाद, जिनेन्द्र कुमार, अज्ञेय आदि से सम्पर्क होने से और उनका समय-समय पर सान्निध्य प्राप्त होने से जन्नुभाई की साहित्य रचना में गति आयी। अध्ययन के साथ-साथ साहित्य सृजन भी चलता रहा। इस काल में उन्होंने समाज सुधार व भारत की लड़ाई से संबंधित विषयों पर एक सौ से अधिक कहानियां लिखी। उस समय नाट्य लेखन प्रतियोगिता में इनके द्वारा लिखित `पतित का स्वर्ग' नामक नाटक को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। बीए करने के पश्चात् पिताजी के बीमारी के कारण एम.ए. दर्शनशात्र की पढ़ाई बीच में छोड़कर उन्हें उदयपुर आना पड़ा। उदयपुर आकर एक वर्ष तक आपने महाराणा भूपाल कालेज में शिक्षक के रूप में कार्य किया पर बाद में स्कूल में स्थानान्तरित करने के कारण उसे छोड़ कर विद्याभवन में वे हिन्दी के अध्यापक बन गये। (वही-पृ. 23) सन् 1936 में उनका विवाह श्रीमती मंजुला देवी के साथ हुआ।
बनारस में अध्ययन के काल में उनका यह संकल्प था कि पं. मदन मोहन मालवीय की तरह उदयपुर में भी एक संस्था खड़ी की जाय। विद्याभवन में रहकर भी वे इस बात को भूले नहीं थे। वहां कार्यरत रहते हुए 21 अगस्त सन् 1937 में उन्होंने हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना की। स्थापना के पश्चात् भी वे 1940 तक विद्याभवन में ही कार्य करते रहे। बाद में वे पूर्ण रूप से अपने संस्थान में लग गये। (वहीं. पृ. 223)
प्रारम्भ में तो वे हिन्दी साहित्य सम्मेलन की परीक्षाओं का केन्द्र चलाते थे। बाद में उन्होंने पं. उमाशंकर शुक्ल के परामर्श से प्रथमा और मध्यमा दो रात्रिशालाएं प्रारम्भ कर दी। धानमण्डी के मन्दिर के छोटे से प्रांगण में राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रेम की ज्योति वे अपने अन्यान्य साथियों के साथ लोगों के दिलों में जलाने का प्रयत्न करते थे। धीरे-धीरे हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग की सारी परीक्षाओं का यहां अध्ययन प्रारम्भ हो गया। उसी की पुख्ता जमीन पर हिन्दी विद्यापीठ की स्थापना हो पाई थी जो आगे चलकर राजस्थान विद्यापीठ में बदल गई। (वही पृ. 47)
जन्नुभाई की दृष्टि यह थी जो लोग निर्धन, सीधे सादे व परिश्रमी हैं उनको शिक्षा द्वारा न केवल जगाया जाए बल्कि इतना सशक्त व समर्थ बनाया जाय कि वे संकटों से संघर्ष कर सकें। इसी कारण विद्यापीठ ने सामान्य प्रजा की उन्नति का बीड़ा उठाया था। यहां कार्यकर्ताओं का ऐसा समूह तैयार हुआ जो स्थानीय मिट्टी से पैदा हुआ था। (वही- पृ- 44)
स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले मेवाड़ दरबार में यह गुप्त रिपोर्ट थी कि जन्नुभाई स्वतंत्रता आन्दोलन में संलग्न है। यह सच था कि वे अध्ययन में भी राष्ट्रीय चरित्र का चिन्तन कराते थे अतः उन छात्रों के विचारों के माध्यम से यह बात दरबार तक पहुंची भी थी और इसके लिये उन्हें तलब भी किया गया था। उन पर भड़कीले भाषण के आरोप में उत्तर में जन्नुभाई ने यही कहा कि मैं भाषण नहीं अध्ययन पर प्रवचन देता हूं ताकि उनके नैतिक चरित्र का निर्माण हो। इस प्रकार जन्नुभाई के किसी काम में सरकार का सहयोग नहीं मिला। यह दमनचक्र सन् 1951 तक चलता रहा। लोकतंत्रीय शासन आने पर भी यह दमनचक्र समाप्त नहीं हुआ उल्टा उन्हें उससे भी अधिक घातक संघर्ष करना पड़ा। यह एक प्रकार से विद्यापीठ को बन्द कराने का ही षड़यंत्र था। (वही- पृ. 224)
जन्नुभाई इस कारण हमेशा इस मत के रहे कि शिक्षा सरकारी बंधनों से सदा मुक्त रहनी चाहिये। शिक्षा की उत्पादिता के लिये स्वायत्तता का उर्वरक अनिवार्य है। इसी कारण वे शिक्षा में सार्वजनिक प्रयासों के पक्षधर थे। सार्वजनिक संस्थाओं की अस्मिता उन्हें बहुत प्रिय थी और उनका निरादर उनके लिये असह्य।(वही- पृ. 224))

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