रविवार, 21 जून 2009

Mewadi social problems of life

मेवाड़ी जीवन की सामाजिक समस्याएँ

सती प्रथा

Mewadi social problems of life

Sati practice








मेवाड़ में सती प्रथा के प्रचलन की शुरुआत के बारे में तो कोई पर्याप्त प्रमाण नहीं है, किंतु दीर्घकाल से चली आने के कारण यह एक अत्यन्त ही पवित्र धार्मिक कृत्य समझा जाने लगा था तथा पूरे राजस्थानी संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चुका था। मेवाड़ तो सती प्रथा का गढ़ माना जाता था। कुछ विद्वान तो इसे राजपूत जाति के आचरणों का अंग मानते हुए एक जातिगत प्रथा के रुप में मान्यता दी है, लेकिन अन्य जातियों में भी सती होने के कई प्रमाण मिलते हैं। दूसरी ओर यह बात ध्यानव्य है कि मेवाड़ में ऐसा एक भी

उदाहरण नहीं मिलता जब किसी महाराणा की मृत्यु पर उनकी समस्त जीवित पत्नियाँ व उप-पत्नियाँ सती हुई हों।

ब्रिटिश सरकार ने सती प्रथा क कुकृत्य को समाप्त करने के अनेक राजनीतिक तथा प्रशासनिक प्रयास किये। गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक के समय पहली बार इसे सरकारी तौर पर गैर-कानूनी घोषित किया गया था तथा समकालीन महाराणा जवानसिंह को इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने का परामर्श दिया गया था। लेकिन यह प्रथा समाज में पूरी तरह हावी हो चुका था। खुद महाराणा भीमसिंह व जवानसिंह की मृत्यु पर उनकी रानियों व पासवानें सती हो गयी थी। पॉलिटिकल एजेन्ट कर्नल राबिन्सन ने महाराणा सरदार सिंह पर इस प्रथा को बन्द करने हेतु दबाव डाला। यद्यपि महाराणा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, तथापि यह प्रथा अब कुछ सीमित हो गई। बाद में महाराणा स्वरुपसिंह को इस प्रथा के पूर्णतः बन्द करने हेतु आदेश जारी करने को कहा गया। लेकिन खुद महाराणा अपने आप को परम्परागत संस्कृति का पोषण मानते थे तथा इसे बन्द करने के पक्ष में नहीं थे।

१८४६ ई. में ब्रिटिश सरकार ने कुछ रियायत बरतते हुए मेवाड़ के वार्षिक खिराज में इस उम्मीद के साथ दो लाख रुपयों की कमी कर दी कि इससे सती प्रथा को बन्द करने में मदद मिलेगी। इसके बावजूद भी महाराणा ने सती प्रथा बन्द करने के कोई आदेश जारी नहीं किये। सती प्रथा की समाप्ति का पक्ष लेते हुए ब्रिटिश सरकार ने कई पत्र व्यवहार भी किये। तत्पश्चात् एन. जी. जी. की महाराणा से शिष्टाचारी मुलाकात भी बन्द करा दी गई। तब कहीं जाकर महाराणा ने अगस्त १८६० ई. में सती प्रथा को अवैध घोषित कर दिया तथा इसके विरुद्ध दण्ड का प्रावधान किया गया।

कानूनी रुप से अवैध घोषित हो जाने के बावजूद भी सती प्रथा की छिट पुट घटनाओं को रोका नहीं जा सका। यह बात और थी कि इसे प्रोत्साहन देने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था थी। घोषणा पत्र में यह भी कहा गया कि किसी गाँव या जागी में सती की घटना होने पर गाँव के पटेल तथा जागीरदारों पर भी जुर्माना किया जाएगा। इस प्रकार शनै:-शनै: यह प्रथा राज्याश्रय से पूरी तरह वंचित हो गया।

डाकन प्रथा

Dakn practice






मेवाड़ी दलित समाज में, विशेषकर भील, मीणा आदि रुढिवादी जातियों में डाकन प्रथा की कुप्रथा प्रचलित थी। आदिवासी जातियों में यह अंध विश्वास व्याप्त था कि मृत व्यक्ति की अतृप्त आत्मा जीवित व्यक्तियों को कष्ट पहुंचाती है। ऐसी आत्मा यदि पुरुष के शरीर में प्रवेश करती है, तो उसे भूत लगना तथा स्री शरीर में प्रवेश करने पर उसे चुड़ैल लगना कहा जाता था। चुड़ैल-प्रभावित स्री को डाकन कहा जाता था। डाकन घोषित स्री समाज के लिए अभिशाप समझी जाती थी। अतः उस स्री को जीवित जलाकर या सिर काटकर या पीट-पीटकर मार दिया जाता था। राज्य द्वारा भी डाकन घाषित स्री को मृत्यु दण्ड दिया जाता था।

१८५२ ई. में मेवाड़ भी कोर के कमाण्डर जे.सी.ब्रुक ने मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट जार्ज पैट्रिक लारेन्स का ध्यान इस कृत्य की ओर आकर्षित किया। मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट ने कप्तान ब्रुक के पत्र को महाराणा के पास प्रेषित करते हुए इस प्रथा को तत्काल बन्द करने को कहा। किन्तु महाराणा स्वरुपसिंह ने इस पत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया। १८५६ ई. में मेवाड़ भील कोर के एक सिपाही द्वारा डाकन घोषित स्री की हत्या कर दी। इस पर तत्कालीन ए.जी.जी. ने पॉलिटिकल एजेन्ट जार्ज पैट्रिक लॉरेन्स को लिखा कि राज्य में इस प्रकार की घटनाएं घटित होने पर अपराधी को कठोरतम दण्ड दिया जाय।

ए. जी. जी. के निरन्तर दबाव के परिणामस्वरुप बड़ी अनिच्छा से महाराणा स्वरुप सिंह ने यह घोषित किया कि यदि कोई व्यक्ति डाकन होने के संदेह होने पर किसी स्री को यातना देगा, तो उसे ६ माह कारावास की सजा दी जाएगी। हत्या करने पर उसे हत्यारे के रुप में सजा दी जाएगी।

लेकिन महाराणा के इस घोषणा के उपरान्त भी इस तरह की घटनाएँ समय-समय पर होती ही रही। यद्यपि ब्रिटिश अधिकारियों और महाराणा द्वारा की गई कार्यवाहियों में समाज में इस कुप्रथा को पूर्णतः समाप्त तो नहीं किया जा सका, लेकिन १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में डाकनों के प्रति अत्याचारों में कमी अवश्य आ गयी थी। लेकिन अब धूर्त स्रियाँ डाकन होने का स्वांग करने लगी तथा रुढिवादी समाज, जो अब भी डाकन-भय से ग्रस्त था, ऐसी औरतों से बचने के लिए उनके द्वारा मुंह मांगी वस्तुएं देने लगा। महाराणा सज्जनसिंह ने ऐसी धूर्त औरतों का देश से निष्कासन करना आरम्भ कर दिया, फिर भी समाज में डाकन-भय समाप्त नहीं हुआ।


कन्या वध

Girl slaughter





१८ वीं और १९ वीं शताब्दी के मध्य तक मेवाड़ में कन्या वध की प्रथा सीमित मात्रा में प्रचलित थी, लेकिन धीरे-धीरे इस घृणित कृत्य ने गंभीर रुप धारण कर लिया तथा कुछ हद तक परम्परा का हिस्सा बनता गया।

कन्या वध की परम्परा की उत्पत्ति का सर्वप्रमुख कारण था, विवाह की समस्या। किसी भी कन्या का विवाह अपने से उच्च कुल अथवा खांप में किया जाना उचित माना जाता था। कोई भी राजपूत अपने सम्पूर्ण कुल के सदस्यों को भाई-बहन के रुप में मानते थे, अतः अपने कुल में शादी नहीं कर सकते थे। अपने से निम्न कुल में कन्या विवाह समाज में प्रतिष्ठा के खिलाफ माना जाता था।

उच्चोच्च वंश विवाह की परम्परा के कारण वैवाहिक सम्बन्धों का क्षेत्र काफी सीमित हो गया। उच्च घराने में विवाह करना खर्चीला था। उनक अनुरुप दहेज तथा त्याग के खर्चे जुटाने में लोग आर्थिक रुप से पंगु हो जाते थे। मेवाड़ पर मराठों के अतिक्रमण व लूटमार के कारण जनता की आर्थिक स्थिति पहले से ही दयनीय थी। इस प्रकार परिस्थितिवश राजपूतों ने कन्या वध का विकल्प चुना। ज्ञातव्य है कि खुद महाराणा व सामन्तों में यह प्रथा नहीं अपनाया गया।

शुरु में कन्या वध की प्रथा के विरुद्ध कोई ध्यान नहीं दिया गया। वैसे तो अधिकांश राजपूत कन्या वध क विरोधी थे, लेकिन इस परम्परागत प्रथा को समाप्त करने के लिए कोई भी व्यक्ति पहल करने को तैयार नहीं था।

मेवाड़ के महाराणा ने सर्वप्रथम, १८३४ ई. में मीणा जाति के लिए कन्या वध को गैर कानूनी घोषित कर दिया। समस्या की जटिलता को देखते हुए पुनः २४ मई १८४४ ई. को सभी जातियों के लिए इस प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। लेकिन चूंकि कन्या वध की परम्परा लोगों के मनःस्थिति से जुड़ी थी, अतः शिशु वध की घटनाओं में शनै: शनै: कमी तो आई लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया।

त्याग प्रथा

Ritual sacrifice




राजपूत जाति में विवाह के अवसर पर राज्य के तथा राज्य के बाहर से चारण-भट, ढोली आ जाते थे तथा मुंह-मांगी दान-दक्षिणा प्राप्त करने का हठ करते थे। चाराणों, भाटों व ढोलियों को दी जाने वाली यह दान दक्षिणा त्याग कहलाती थी। इसी प्रकार अन्य द्विज जातियों से कुम्हार, माली नाई आदि नेग लिया करते थे। मुंहमांगी दान दक्षिणा नहीं मिलने पर उस परिवार का सामाजिक उपहास किया जाता था। चारणो की माँग पूर्ति के लिए व्यक्ति को असह्य व्यय-भार उठाना पड़ता था। लड़की के पिता के लिए तो यह व्यय-भार और भी अधिक हो जाता था। एक तरफ जब कन्या-वध की प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया था, तब उसे सफल बनाने के लिए इस त्याग समस्या का हल करना आवश्यक हो गया था।

त्याग प्रथा के अन्र्तगत अधिकतम त्याग की राशि देकर लोग अपने प्रतिष्ठा व आर्थिक स्थिति को ऊपर दिखाने की कोशिश करते थे। और इसी तरह के अहं प्रदर्शन की प्रतिस्पर्द्धा के कारण यह प्रथा अत्यन्त ही विकृत रुप धारण करने लगी थी।

सर्वप्रथम १८४१ ई. में जब जोधपुर राज्य ने त्याग के सम्बन्ध में नियम बनाये, तब ब्रिटिश सरकार ने राजपूताना के अन्य शासकों को भी इस प्रकार के नियम जारी करने के सम्बन्ध में विशेष खरीते भेजे। फलस्वरुप महाराणा सरदार सिंह ने १८४४ ई. में तथा महाराणा स्वरुपसिंह ने १८५५ ई. व १८६० ई. में त्याग करने तथा सामाजिक-आर्थिक प्रदर्शनों की प्रतिस्पर्द्धा रोकने के लिए राजकीय आदेश जारी किये। इन आदेशों के अंतर्गत दूसरे राज्यों के चारण-भाटों को उदयपुर आने से रोक लगा दिया गया और उदयपुर के चारण-भाटों का अन्य राज्यों में त्याग मांगने के लिए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। इन आदेशों से त्याग की समस्या काफी अंशों तक हल हो गयी।

१८८८ ई. में राजपूताने के ए.जी.जी. कर्नल वाज्टर ने राजपूतों व चारणों में प्रचलित सामाजिक- आर्थिक प्रतिस्पर्धा को रोकने, शादी और गर्मी में होने वाले खर्चे में कमी करने, लड़के-लड़कियों की विवाह योग्य आयु का नियमन कर अनमेल विवाह की भावना जागृत करने आदि के लिये वाल्टर कृत राजपुत्र हितकारिणी सभा की स्थापना की गई। इस सभा की प्रथम बैठक अजमेर में १८८८ ई. में हुई, जिसमें प्रस्ताव पारित किया कि चारण- भाटों व ढ़ोलियों को त्याग केवल लड़के के पिता द्वारा किया जायेगा तथा प्रत्येक राजपुत्र जागीरदार व शासक अपने ज्येष्ठ पुत्र के प्रथम विवाह पर, अपनी वार्षिक आय के ९ प्रतिशत से अधिक त्याग नहीं देगा और दूसरे पुत्रों व भाइयों के विवाह पर १ प्रतिशत से अधिक त्याग नहीं देगा। इस सभा की बैठक प्रति वर्ष अजमेर में होने लगी, जिसमें प्रत्येक राज्य में गठित स्थानीय समितियों की रिपोर्टों� पर विचार किया जाता। यह स्थानीय समितियाँ अपने-आप राज्यों में सभा के निर्णय लागू करवाती थीं तथा निर्णयों की अवहेलना करने वालों को चेतावनी अथवा दण्ड देती थीं। सभा की कार्यवाहियों का लाभ राजपूत जाति के साथ अन्य जातियाँ भी उठाने लगीं तथा उन जातियों के सामाजिक-आर्थिक व्यय पर नियंत्रण करने के लिये नियमों का निर्माण किया। १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और २० वीं शताब्दी के आते- आते सुधारों के परिणाम दृष्टिगत होने लग गये थे।

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