विद्याभवन की स्थापना से पूर्व डा. मेहता जब स्काउट में कार्यरत थे तभी उन्हें यह विश्वास हो गया था कि 16 साल की उम्र से पहले की शिक्षा पर कुछ ठोस काम करने की जरूरत है क्योंकि यही वह उम्र है जहां चरित्र निर्माण होता है। स्थापना के साथ साथ उन्होंने दो काम किये- एक तो भावी विस्तार के लिये जमीन खरीदना और विद्यालय संचालन के लिये अच्छे लोगों का चयन करना। इस संदर्भ में इस संस्था के साथ डॉ. कालूलाल श्रीमाली, दादाभाई केसरीलाल जी बोर्दिया, पन्नालाल श्रीमाली, केशव जी शर्मा, दयाल जी सोनी, जनार्दनराय नागर, देवीलाल सामर, दयाशंकर श्रोत्रिय आदि जुड़े और तन्मय होकर उन्होंने कार्य किया। भूमि कितनी जोड़ी यह तो आज उसके विस्तार को देखकर हम सोच सकते हैं। इतनी लम्बी सोच शायद ही किसी व्यक्ति में रही हो। (डॉ. मोहनसिंह मेहता-अब्दुल अहद-पृ. 73)
वास्तव में विद्याभवन एक इन्कलाब था जिसका विचार डा. मेहता के दिमाग की उपज थी और इस विचार को अमली जामा पहनाया उन शिक्षा प्रेमियों और साधकों ने जिनका लक्ष्य था सेवा और केवल सेवा। उन्हीं के अथक प्रयत्नों से थोड़े ही दिनों में विद्याभवन सारे देश में प्रसिद्ध हो गया (वही-पृ. 74)
सभी का एक वेश, शनिवार को सफेद गणवेश, विशेष प्रार्थना सभा यहां की विशेष पहचान थी। प्रार्थना सभा के कार्यक्रमों में शनिवारीय कार्यक्रम विशेष होते थे। मास के अन्तिम दिन प्रार्थना सभा में किसी विद्वान को आमंत्रित किया जाता था जिसका संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित प्रवचन होता था। इसके अतिरिक्त ग्रुप सिस्टम, पंचायत, वनशाला तथा वार्षिक उत्सव प्रमुख थे। इन कार्यक्रमों के मूल में एक ही उद्देश्य रहता था कि बालक का सर्वांगीण विकास हो। पाठ्यक्रम के साथ ही शारीरिक शिक्षा पर पूरा ध्यान रहे अतः यहां खेल भी अनिवार्य होता था। बालकों में पढ़ाई के साथ-साथ उनके हाथों को भी तराशा जाय और स्वयं में अपने हाथ से काम करने की आदत पड़े इसी क्रम में हस्तकला को आरम्भ से ही महत्त्व दिया गया। इस प्रकार छात्र को हर दृष्टि से तैयार करने का कार्य विद्याभवन में किया गया। (वही-पृ.78)
विद्याभवन धीरे-धीरे अपना विस्तार करता गया। समय-समय पर इसमें कई विभाग, कई विषय और कई नयी संस्थाएं जुड़ती गई और इसका विस्तार बढ़ता गया। इस क्रम में सन 1941 के 23 अप्रेल को बुनियादी स्कूल की स्थापना, सन 1943 में विद्याभवन सेक्सरिया टी.टी. कालेज, सन् 1944 में हैण्डीक्राफ्ट इन्स्टीट्यूट की कला संस्था के नाम से स्थापना, सन् 1956 में विद्याभवन रूरल इन्स्टीट्यूट व पॉलीटेकनीक की स्थापना की गई। (वही-पृ. 225)
आपकी प्रशासनिक योग्यता का मेवाड़ सरकार ने भरपूर लाभ उठाया था। डा. मेहता ने सर्वप्रथम सुखदेव प्रसाद, फिर उन्हीं के पुत्र धर्मनारायण तथा अन्त में सर टी.वी. राजगोपालाचार्य के साथ रहकर मेवाड़ सरकार में कार्य किया। मेवाड़ सरकार में रेवन्यु विभाग के मंत्री रहकर आपने नौ वर्ष तक कार्य कर उस विभाग के कार्य में कई सुधार किये। उनकी प्रशासनिक प्रतिभा को देखकर बांसवाड़ा के महारावल पृथ्वीसिंह ने उन्हें अपने राज्य का प्रधानमंत्री बनाया। यहां भी वित्तीय व्यवस्था सुधारने के लिए आपने कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये। व्यक्तिगत खर्च के लिये कर्मचारियों के वेतन की कटौती व बेगार उन्हें ठीक न लगी। अतः 1940 में त्यागपत्र देकर वे उदयपुर आ गये। महारावल के पुत्र चन्द्रसिंह जब बांसवाड़ा के महारावल बने तो उनके काल में भी दो वर्ष तक वे इस राज्य के प्रधानमंत्री रहे। 1944 से 1946 तक दो वर्षों में आपने शिक्षा का प्रसार, प्रशासनिक सुधार तथा नवयुवकों में उच्च शिक्षा के लिये प्रेरणा आदि कार्य कर पुनः उदयपुर आ गये जहां मेवाड़ सरकार में रेवेन्यु तथा शिक्षा मंत्री का कार्य संभाला। (वही-124)। (वही-124)
सन् 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ। देश को तुरन्त कुशल राजदूतों की आवश्यकता हुई। सर्वप्रथम 1949 में डा. मेहता को हालैण्ड का राजदूत बनाया गया। आपके ही प्रयत्नों से इन्डोनेशिया होलैण्ड (डच) के नियंत्रण से मुक्त हुआ। इसके पश्चात् वे पाकिस्तान और बाद में स्विट्जरलैण्ड के राजदूत नियुक्त किये गये। सन् 1949 से लेकर सन् 1958 तक वे राजदूत रहे। इन प्रशासनिक पदों पर कार्य करते हुए उन्हें जब भी समय मिलता वे उदयपुर आकर विद्याभवन को अवश्य संभाल लेते थे। प्रत्यक्ष रूप से तो वे काम नहीं कर पाते थे पर अपने कार्यकर्ताओं की मण्डली के माध्यम से वे विद्याभवन का विस्तार भी करते जा रहे थे। उन्हें विद्याभवन के प्रगति पर संतोष भी था।
सन् 1958 से 1960 तक डा. मेहता सं. रा. संघ के भारतीय प्रतिनिधि रहे। भारत में लौट आने पर उन्हें राजस्थान विश्वविद्यालय का उपकुलपति नियुक्त किया गया, जहां वे सन् 1966 तक रहे। आपके ही अथक प्रयत्नों से यह विश्वविद्यालय भारत के पटल पर छा गया। उसके शैक्षिक उन्नयन के साथ-साथ उन्होंने यहां के भौतिक पर्यावरण में भी निखार ला दिया। उनके यहां के कार्यकाल के छः वर्ष हमेशा याद किये जायेंगे।
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