रविवार, 21 जून 2009

उदयपुर में भगवान का भव्य स्वागत God's grand reception in Udaipur


वि. सं. १८५८ माघ कृष्ण १० को भगवान श्री नाथजी उदयपुर पहुँचे जहाँ बालक भीमसिंहजी ने उनका भव्य स्वागत किया।

उन दिनों उदयपुर भारत के सम्पन्नत्तम राजधानियों में से एक था। जैसे ही भगवान श्री नाथजी के आगमन की चर्चा नगर में फैली पूरे नगर को दूल्हन की तरह सजा दिया गया। लोगों ने अपने घर-वार की सफाई की तथा गृहद्वारों को सजा दिया। नगर में बड़े-बड़े दरवाजे बनाये गये तथा रंगबिरंगी पताकाओं की सैकड़ों वन्दनवारों से प्रधान मार्गों को सुशोभित कर दिया गया। राजपथ, गलियाँ और चौराहे साफ कर दिये गये।

अनेक नर-नारी नये नये वस्र व आभूषणों से सजधज कर राजमार्ग में एकत्र होकर श्री नाथजी की बाट निहारने लगे। भगवान के दर्शनार्थ अपार जनसमूह लालायित था। महोत्सव में सम्मिलित होने वाले अनेक रावराणा शोभायात्रा में यथावत अपने स्थान पर खड़े थे। स्वयं महाराणा भीमसिंह जी पहले से ही श्री नाथ-प्रभु के स्वागतार्थ नगर के प्रमुख द्वार पर खड़े थे। बाजा की मधुर आवाज सभी दर्शकों को आत्मविभोर कर रही थी।

शोभायात्रा में गोस्वामी बालकों के साथ ही सच्चिदानन्दधन श्री नाथजी का भव्य रथ चल रहा था जिसपर कई सेवक चँवर डूला रहे थे। जब महाराणा को श्री नाथ प्रभु का रथ दिखलाई पड़ा तो वे नतमस्तक हो गये। "गिरिराज-धरण की जै की तुमुल हर्ष घ्वनि से सारा नगर आह्मलादित हो गया। श्री नाथजी के रथ के पीछे श्री नवनीत प्रिय तथा श्री विट्ठलेशराय के रथ चल रहे थे। रथों के पीछे नाथद्वारा नगर की असंख्य महिलाएँ चल रहीं थीं। सबसे पीछे महाराजश्री के नगर-रक्षक मौजूद थे।

ज्योंही श्री गोवर्धन नाथजी का रथ राजप्रासाद के समीप पहुँचा। मेवाड़ की महारानियों ने भगवान श्री नाथजी का स्वागत किया। भक्तों के आँखों से आँसू बहने लगे। लोग आनन्दोन्मत्त होकर नाचने लगे। इस प्रकार करीब सात घंटो तक शोभायात्रा श्री नाथजी के मंदिर तक पहुँची। बड़ी धुमधाम के साथ रथ की आरती उतारी गई।

भागवान को सर्वप्रथम एक लघु मंदिर में बिराजा गया। उसके बाद नाथद्वारा के समान ही मंदिर का निर्माण कार्य तेजी से होने लगा। श्री नवनीतप्रिय जी श्री नाथ-प्रभु के साथ ही प्रतिष्ठित किये गये जबकि श्री विट्ठलेशराय के लिए अलग मंदिर बनाया गया। फिर समयानुक्रम में फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ट, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन एवं कार्तिक के दीपावली तथा अन्नकूट आदि के उत्सव सम्पन्न हुए।

सिन्धियाँ की सेना धीरे-धीरे बढ़ती हुई यहाँ भी आ पहुँची। महाराणा ने नगर की क्षति को ध्यान में रखकर राजरानियों तक के बहुमूल्य आभूषण उसे कर स्वरुप सौंप दिया और वापस लौट जाने को कहा। फिर भी सिन्धिया सेना की अर्थ-पिपासा शान्त नहीं हुई तथा उसने यहाँ की प्रजा को जमकर लूटा तथा जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया।

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