रविवार, 21 जून 2009

श्रीनाथजी: नामाकरण Srinathji: Namakrn

श्रीनाथजी: नामाकरण


श्रीनाथजी: स्वरुप
श्रीनाथःस्वरुप चिन्हों की भावनाएँ
स्वरुप

जिस दिन श्रीमद्व्ल्लभाचार्य ने गोवर्धनधरण का प्रथम श्रृंगार किया, उनका नाम "गोपालजी' रखा। उसी के अनुसार गोवर्धन की तलहटी स्थित वर्त्तमान जतीपुरे का प्राचीन नाम "गोपालपुर' है। बाद में विट्ठलनाथजी ने इनका नाम "श्रीगोवर्धननाथजी' रख दिया। इसके अनन्तर श्रीगोकुलनाथजी के समय में प्रेमीभक्त श्रीगोवर्धननाथजी न कहकर इन्हें "श्रीनाथजी' कहने लगे। गर्गाचार्य लिखित गर्मसंहिता गिरिराज खण्ड में भी इनका उल्लेख निम्नांकित रुप में मिलता है -

श्रीनाथं दवदमनं त वदिष्यति सज्जना:
गोवर्धन गिरों राजन् सदा लीलां करोति यः।।

"श्रीनाथ' शब्द प्राचीन होते हुए भी नित्य नूतन और अनुपम प्रतीत होता है। इसमें दो शब्द है- "श्री' और "नाथ'। "श्री' शब्द लक्ष्मी वाचक राधापरक है जो भगवान की आनन्ददायिनी आह्मलादिनी शाक्ति है। "नाथ' शब्द स्वामी वाचक है तथा श्रीकृष्ण का सम्बोधन हैं। ये दोनों ही अभिन्न रुप हैं। देवदमन, इन्द्रमन और नागदमन आदि लीलापरक नाम भी श्रीनाथजी के ही हैं।

श्रीनाथजी: स्वरुप

श्रीनाथजी का वर्ण श्याम है और गिरिराज जी के समान ही उनमें रक्त आभा है। उर्ध्वभुजा गिरिराज गोवर्धन के धारण की भावना से है। कटिप्रदेश पर स्थित दूसरी भुजा भक्तो को शरण में आने का संकेत देती है। जहाँ प्रभु खड़े हैं वहाँ की पीठिका गोल तथा ऊपर की चौकोर है। उनमें सर्वप्रथम उर्ध्वभुजा की तरफ दो मुनि बैठे हैं। उनके नीचे एक सपं फिर नृसिंह तथा उसके बाद दो मयूर है। दूसरी तरफ ऊपर एक मुनि, उससके बाद मेष, सपं तथा दो गौऐं हैं। श्रीमस्तक पर पीठिका में फल लिए हुए एक शुक (तोता) है।

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श्रीनाथःस्वरुप चिन्हों की भावनाएँ

श्रीनाथ के स्वरुप की भावना में मतान्तर है। प्रत्येक पीठिका का भाव अलग-अलग दृष्टिकोण से देखने पर अलग-अलग है। कुछ मुख्य भावनाएँ इस प्रकार हैं:-

चतुर्व्यूह रुप

इस भावना के अनुसार श्रीनाथजी का प्राकट्य गोवर्धन की कंदरा में चतुर्व्यूहात्मक हुआ है। पीठिका में तीनों मुनि संकर्षण, अनिरुद्ध और प्रद्युम्न हैं। चतुर्थ, वासुदेव रुप में कंदरा के द्वार पर स्वयं श्रीनाथजी खड़े हैं। पीठिका के अन्य जीव प्रभु दर्शन का लाभ उठा रहे हैं।

वेदों के अनुरुप भावना

पीठिका में बने तीन मुनि वेदोक्त तीन मार्गो कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग के प्रवर्तक क्रमशः वशिष्ट, सनकादि और उद्धव है। मध्य में यज्ञस्वरुप गोवर्धनधरण श्रीनाथ जी स्वयं प्रजापति के रुप में स्थित हैं। श्रीमस्तक पर बना शुक-चिन्ह वेदमाता गायत्री का रुप है। सवंत् का प्रारम्भ मेष से होता है तथा अन्त मीन राशि से। मेष सृष्टि के उद्भव का प्रतीक है जहाँ मीन संहार का। भगवान नृसिंह कर्म, ज्ञान और भक्ति के संयुक्त स्वरुप है। सपंकाल का द्योतक है और वैराग्य की सूचना देता है वहीं मयूर प्रेम का सूचक है। दूसरा नाग पृथ्वी का भार उठाये शेष का प्रतीक है। दोनों गायें सबके मनोरथ को पूर्ण करनेवाली कामधेनु की सूचिका है। श्रीनाथजी स्वयं प्रजापति रुप में विद्यमान हैं।

चतुर्धा सृष्टि में जरायुज के प्रतिनिधि मुनि, मेष तथा गौ हैं वहीं नाग, सपं, पक्षी तथा मयूर अण्डज का प्रतिनिधित्व करते हैं। उभ्दिज की प्रतिनिधि वनमाला है तो स्वेदज की वनमाला के कीटादि है।

श्रीमद्भागवत की भावना

इस भावना के अनुसार मुनिद्वय नर-नारायण अथवा राम-लक्ष्मण है अथवा उनमें से एक सांख्याचार्य कपिल तथा दूसरे वामन है। शुक पुराण वक्ता श्रीशुकदेव है। गाय पृथ्वीरुप है तथा सुरभि का भी रुप है। वहीं सपं तक्षक को सूचित करता है। दूसरा सपं शेषावतार है। मयूर निश्च्छल प्रेम का प्रतीक है। मेषआदि व्रजभूमि के पशु हैं। नृसिंह अवतारस्वरुप है। मध्य में श्रीनाथ जी स्वयं भागवत स्वरुप है। भगवान के दोनों चरण प्रथम स्कन्ध है। तृतीय तथा चतुर्थ उरु हैं, पंचम तथा षष्ठ जंघाएँ, सप्तम दक्षिण-श्रीहस्त, अष्टम तथा नवम वक्ष, दशम ह्मदय, एकादश मस्तक सहित मुखारविन्द तथा द्वादश उर्ध्वपाम भुजा है। वनमाला के रुप में इन्होने कालरुपी सपं को अपने अधीन रखा है।

वृन्दावन की भावना

इस भावना से विचार करने पर चौकोर पीठिका वृंदावन की भूमि है। दोनों तरफ चार-चार गोपियाँ तथा गोपों के प्रच्छन्न यूथ हैं। दृष्टिगत जीव वृन्दावन के निवासी है। ईश सामीप्य से उनका परस्पर वैरभाव छूट गया है। श्रीकृष्ण स्वरुप श्रीनाथजी स्वयं निकुंज द्वार पर खड़े हैं। इससे वृन्दावन प्रवेश तथा वृन्दावन निवास भी प्रकट होता है।

तवघा भक्ति के अनुसार

पीठिका में बना नाग श्रवण भक्ति, शुक कीर्तन भक्ति, मुनित्रय से स्मरण भक्ति, मेष से पाद-सेवन, मयूर से अर्चन भक्ति, दूसरे नाग से वंदन भक्ति, दोनों गायो से दास्य तथा आत्मनिवेदन तथा नृसिंह सख्य भक्ति का बोध होता है।

श्रीगोपश्वरजी महाराज के अनुसार

इसकी भावना से चुकि विहग (तोता) तथा मूनि भक्ति का अनुभव करता है अतः दोनों अनुभाव का प्रतीक है। उद्दीपन चेष्टा रुप होने से मेष लीलानुकूल समय का प्रतीक है। व्यूह रुप होने से शय्यादि रुप शेष संकर्षण आलम्बन विभाग के अन्तर्गत है। आकार्य (बुलाया जाने वाला) भक्त शेष है। द्वितीय शेष पत्नी रुप है। गोवर्धन में स्थित तीन भक्त धर्म, अर्थ और काम हैं। गाएँ गोकुल लोक की बोधिका हैं। ये उद्दीपन विभाव हैं। श्रीनृसिंह अक्षरब्रम्ह है तथा उत्तम पुरुष हैं। नीचे श्रीयमुनाजी हैं। गिरिराज श्रीगोवर्धन हरिदास वर्य हैं। प्रभु स्वयं निकुंज द्वार पर खड़े होकर भक्तों को बुलाते हैं तथा दूसरे हाथ की मुट्ठी बाँधकर हमारे मन को मुट्ठी में कर लेते हैं।

इस प्रकार भावुक भक्त भगवान् श्रीनाथजी में ही अपना संपूर्ण अभीष्ट देखते हैं। पुष्टि सम्प्रदाय के सभी निधियों (रुपों) के दर्शन भी भक्तों को श्रीनाथजी में ही हो जाते हैं। इनमें से कुछ का भाव के साथ उल्लेख किया जा रहा है:-

भाव नाम
मुख दघि लेपन श्रीनवनीतप्रियजी
चिबुक पर लगा प्रकाशमय हीरा श्रीमथुराधीशजी
कटिप्रदेश पर लगा श्रीहस्त श्रीविट्ठलनाथजी
चौकोर पीठिका तथा दोनो ओर श्रीद्वारिकानाथजी

छिपे सखागण
उर्ध्व

श्रीगोकुलनाथजी
मयूरपक्षादि धारक श्रीगोकुलचन्द्रामाजी
मोहक मुखकमल मदनमोहनजी
आड़ और अलकावली श्रीमुकुंदरायजी

श्रीनवनीतप्रियजी

महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्य जब पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए महावन (गोकुल) में पधारे तब वहाँ की एक क्षत्राणी ने अपने चार स्वरुप श्रीनवनीतप्रियजी, श्रीगोकुलचन्दमाजी, श्रीललितत्रिभंगीजी और श्रीलाड़िलेशजी आचार्यश्री को सौप दिये। आचार्यश्री ने चारो स्वरुप स्वीकार कर अपने सेवकों के माथे इन्हें पधरा दिया। श्रीनवनीतप्रियजी का सानुभाव करने वाले भक्त श्रीगज्जनधावनजी थे।

श्रीनवनीतप्रियजी आचार्य श्रीमद्वल्लभ के परमाराध्य स्वरुप रहे हैं और आज भी तिलकायतश्री के घर के ठाकुर माने जाते हैं। तिलकायतों द्वारा अन्य स्वरुपों को जब भी एकत्र किया जाता है तो सब अतिथिस्वरुप में इनके ही मेहमान होते हैं। ऐसे अवसरों पर ये निज मंदिर के बाहर बने चबूतरे पर बिराजते हैं।

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स्वरुप

श्रीनवनीतप्रियजी श्रीकृष्ण के बाल-भाव स्वरुप हैं। इनकी आयु सदैव २ १/२ वर्ष मानी जाती है। इनके दाएँ श्रीहस्त में मक्खन तथा बाँया पृथ्वी पर टिका हुआ है। दायँ चरण पृथ्वी पर है तथा बाँया चरण घुटनों के बल पृथ्वी से सटा है। एक भावना के अनुसार मक्खन वाले श्रीहस्त से आप नवनीत ह्मदय भक्तों का मन अपने हाथ में लिए हुए हैं तथा जमीन पर रखे श्रीहस्त से मिट्टी भक्षण करने को उद्यत हैं अथवा पृथ्वी को दुष्टों का दमन कर भारभूत नहीं होने देते। पुष्टि सम्प्रदाय में यह प्रथम स्वरुप है जिसके नेत्रों में कभी अंजन नहीं लगाया जाता क्योंकि इनके नयन सदा सांजन रहते हैं।

श्रृँगारः-

श्रीनाथजी के जो श्रृँगार होते हैं, उसी के अनुसार समयानुसार इनका भी श्रृँगार किया जाता है। वैसे ये सर्वदा तनिया धारण करते हैं। श्रृँगार में टोपियों को श्रृंगार प्रमुखता से की जाती है।

श्रृंगार पश्चात् गोपीवल्लभ अरोगते हुए नित्य पलना झुलते हैं। श्रीनाथजी की प्रत्येक सामग्री इनको तथा इनकी प्रत्येक सामग्री श्रीनाथजी को अरोगाई जाती है। राग सेवा में अधिकांश बाललीला के ही पद गाये जाते हैं।

दर्शन

बालभाव होने के कारण प्रातःकाल मंगला और राजभोग दो ही दर्शन होते हैं। पवित्रा एकादशी, प्रबोधिनी, राखी और जब पलना बाहर हो तो दर्शन बाहर भर करने का प्रावधान रखा गया है। संध्या को उत्थापन, भोग और आरती तीनों ही दर्शन होते हैं। शयन वर्ष में सिर्फ ६० दिन खुलते है। उनमें बसंत पंचमी से डोल तक चालीस दिन और दशहरे से दिपावली तक बीस दिन तक यदा कदा उत्सव मनोरथादि पर निजमंदिर के बाहर बगीचे में पधारते हैं।

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