शारीरिक पुष्टता कम थी, प्रवास का कार्य कठिन था। कोई दूसरा विकल्प न होने के कारण गोपीनाथ को यह कार्य न चाहते हुए भी करना पड़ा। निरीक्षण का क्षेत्र विस्तृत था- भीलवाड़ा, चित्तौड़ व उदयपुर। इस प्रवास में उन्हें ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल देखने का अवसर प्राप्त हुआ। यहां के जनजीवन, यहां की प्रकृति, लोगों की आर्थिक स्थिति, तीज त्योहार, खेती आदि को नजदीक से उन्होंने देखा। अब उन्हें इनके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की इच्छा हुई। जिस प्रवास पर प्रारम्भ में जाने से भय लगता था वह अब उनके जिज्ञासा का कारण बन गया। उनकी यह इच्छा तीव्रतर होती गई। बाद में उन्होंने यह निश्चय किया कि वे एम.ए. की परीक्षा इतिहास में देंगे। उस समय आगरा विश्वविद्यालय से स्वयंपाठी के रूप में परीक्षा देने की व्यवस्था थी। इतिहास की पुस्तकें उन्होंने ``इम्पीरियल लाइब्रेरी कलकत्ता'' के सदस्य बनकर प्राप्त कर लीं। ये पुस्तकें उन्हें एक माह के लिये ही मिलती थी। सन् 1937 में उन्होंने एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। दण्ड स्वरूप दी गई नियुक्ति गोपीनाथ के लिये वरदान सिद्ध हुई। एम.ए. करते ही उन्हें लम्बरदार हाई स्कूल, जो उस समय कृषि महाविद्यालय के पुराने भवन में था, के उप प्रधानाध्यापक पद पर नियुक्ति मिल गई। यहां उन्होंने दो वर्ष काम किया। उस समय मेवाड़ राज्य के शिक्षामंत्री रतिलाल अंतानी का पुत्र विनोद अंतानी एम.बी. कॉलेज में अध्यापन कार्य कर रहा था। उसके विदेश चले जाने पर उस रिक्त पद पर 40 रू. मूल वेतन व 35 रू. भत्ते के मासिक वेतन पर उनकी एम.बी. कॉलेज में नियुक्ति हो गई।
उस समय एक रोचक घटना घटी । उत्तरप्रदेश के राज्यपाल की सिफारिश पर श्री चण्डीप्रसाद को इतिहास के प्राध्यापक के रूप में चयनित किया गया। परिणामस्वरूप गोपीनाथ को लिपिक का कार्य करना पड़ा। उन्हें केवल एक कालांश इतिहास पढ़ाने का अवसर मिलता था। समय बीता। निदेशक महोदय ने चण्डी प्रसाद से उनके प्रमाणपत्र मांगे। पहले तो उसने आनाकानी की, बाद में दबाव डालने पर उसने स्पष्ट बताया कि उसने इतिहास संबंधित कोई परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की है। यह पूछे जाने पर कि ``वह इतिहास का अध्यापन कैसे करता था'' उसने बताया कि ``वह गोपीनाथ से पढ़कर पढ़ाता था। वे यह जानते थे कि मेरे (चण्डीप्रसाद के) यहां रहने पर वे (गोपीनाथ) कभी प्राध्यापक नहीं बन सकते फिर भी उन्होंने मुझे पढ़ाया। वे भले और उदार प्राणी है और वे ही इस पद के लिये योग्य व्यक्ति है।'' बाद में गोपीनाथ को प्राध्यापक के पद पर स्थायी तौर पर 100 रू. के मासिक वेतन पर नियुक्ति मिल गई।
एक बार एम.बी. कॉलेज में एक अंग्रेज निरीक्षक निरीक्षण करने आये। निरीक्षक जब गोपीनाथ जी के कक्ष में निरीक्षण करने आये तो वे नागरिक शात्र (उस समय नागरिक शात्र इतिहास का ही अंग माना जाता था।) में नागरिकों के मौलिक अधिकार पढ़ा रहे थे। वे 20 मिनट तक कक्षा में बैठे । निरीक्षण की समाप्ति पर मेवाड़ के शिक्षा मंत्री से भेंट के समय उन्होंने गोपीनाथजी के अध्यापन की तो प्रशंसा की पर इतिहास से नागरिक शात्र हटाने की बात कही। निरीक्षण के बाद गोपीनाथजी को बुलाया गया तो उनके मन में यह शंका रही कि उनके अध्यापन में कमी रह गई है। मिलने पर सारी बात जान लेने पर गोपीनाथ जी ने शिक्षा मंत्री को समझाया कि किसी विषय को हटाना या लगाना किसी प्राध्यापक का काम नहीं है यह तो बोर्ड ही कर सकता है। उनकी इस निर्भीकता से शिक्षा मंत्री बड़े प्रभावित हुए।
इतिहास में ख्याति बढ़ने के साथ ही राज्य सरकार ने उन्हें सन् 1944 में ``मेवाड़ में ऐतिहासिक दस्तावेज की संभागीय समिति'' के सचिव के पद पर नियुक्त किया। प्राध्यापक का कार्य करते हुए उन्होंने तीन वर्ष तक यह कार्य सम्भाला। समय की बचत करने के लिये इस समय गोपीनाथ जी ने साईकिल सीखी।
शिक्षा में प्रसार के कारण एम.बी. कॉलेज में छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही थी। उचित अवसर जानकर राज्य सरकार ने इस कॉलेज को क्रमोन्नत कर दिया। इस डिग्री कॉलेज के प्रथम प्राचार्य बने डा. बसु, जो एक कुशल प्रशासक थे। उन्होंने आते ही अध्यापकों की योग्यता को देखकर छंटनी की। कॉलेज के लिये 7 प्राध्यापक ही अपनी योग्यता पूर्ण करते थे, उनको इस कॉलेज के अध्यापन के लिए रखकर बाकी को फतह हाई स्कूल भेज दिया। गोपीनाथ जी पूर्व की भांति इसी कॉलेज में रहे।
स्वतंत्रता प्राप्ति तक आते-आते गोपीनाथजी की ख्याति इतिहासविद के रूप में हो चुकी थी। उनकी इस विद्वत्ता के कारण राजस्थान विश्वविद्यालय ने इन्हें सन् 1954 में ``बोर्ड ऑफ स्टडीज इन हिस्ट्री एण्ड आर्कोलोजी'' में सदस्य नियुक्त किया , उनकी इस बोर्ड में 1955 तक सदस्यता रही। सन् 1951 तक वे इस बोर्ड के संयोजक रहे। इसके अतिरिक्त वे भाषा, सामाजिक ज्ञान, अनुवाद, कला संकाय तथा एकेडेमिक कांउंसिल के भी सदस्य रहे।
अध्यापन कार्य करते हुए उन्हें इतिहास में शोध करने की इच्छा हुई। आजीविका की दृष्टि से उन्हें अब कोई चिन्ता नहीं थी। डा. आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव के मार्गदर्शन में ``मेवाड़ एण्ड मुगल एम्परर्स'' विषय पर शोध प्रारम्भ किया । इसमें उन्होंने महाराणा सांगा से लेकर राजसिंह तक के इतिहास के उन पक्षों को विद्वानों के समक्ष लाकर रखा जो पहले कभी नहीं आये थे। सन् 1951 में उन्हें डाक्टरेट की उपाधि से विभूषित किया गया। शोध अमूल्य था अत: राजस्थान विश्वविद्यालय ने इसके प्रकाशन के लिये 1500 रू. का अनुदान देकर इसे प्रकाशित करवाया। पुस्तक के प्रकाशन के पश्चात् इस शोधग्रंथ की न केवल इतिहासविदों, समालोचकों और विद्वानों ने प्रशंसा की अपितु उस समय की पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस ग्रंथ की भूरि-भूरि प्रशंसा की
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें