शनिवार, 20 जून 2009

सन्त सूरमाल दास ( sant surmal das )


सन्त सूरमाल दास का नाम बहुत कम लोगों ने सुना होगा। ये प्रथम भील सन्त थे जिन्होंने गुजरात के वनवासी क्षेत्र, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, दक्षिणी मेवाड़ और भोमट के भील समाज में धार्मिक एवं सामाजिक आंदोलन का सूत्रपात किया। भीलों में प्रचलित अंधविश्वासों, रूढ़ियों, बुराइयों, आदि से उन्हें मुक्ति दिलाई। उन्हें पीत सूत्र (यज्ञोपवीत) धारण करवा कर उन्हें भगत बना दिया। भील उन्हें आदर से `सूरजी' कहा करते थे। (वागड़ के प्रमुख सन्त- रमेशचंद्र वडेरा - पृ. १२८ अप्रकाशित)
सूरजी का जन्म गुजरात के बनासकांठा जिले के लसुड़िया नामक ग्राम में खराड़ी गोत्र में हुआ था। अनुमान है कि उनका जन्म चैत्र सुदी नवमी (रामनवमी) संवत १८६३ (सन् १८०३ ई.) में हुआ होगा। साधारण परिवार में जन्म होने के कारण बाल्यकाल में ही परिवार चलाने की जिम्मेदारी आ पड़ी। एक बार वे जंगल में लकड़ी काटने गये अचानक नील गायों का समूह वहां आया। क्रूर सूरजी ने एक नील गाय पर कुल्हाड़ी का वार करना चाहा पर वार करने से पहले वह अदृश्य हो गई। यह देख कर वे अवाक रह गये। उसी समय एक साधु वहां प्रकट हुए जिन्होंने उन्हें श्यामला के आश्रम में लकड़ियां लाने को कहा। वे कह कर अदृश्य हो गये। सूरजी को यह देखकर आश्चर्य तो हुआ पर उनके आदेशों से वे लकड़ी का गट्ठर लेकर श्यामला जी गये जहां उन्हें वही बाबा मिले। बाबा ने उन लकड़ियों के बदले उन्हें एक रूपया देते हुए कहा `इस रूपये से तेरा सारा जीवन सफल होगा, तू सुखी रहेगा लेकिन राम नाम का जाप जरूर करते रहना।
साधु बाबा के पवित्र उपदेश सुन कर उनके विचारों में परिवर्तन आया। वहां से लौटते समय श्यामलाजी के समीप रेजुड़ी नाका में उन्हें पुन: वही बाबा मिले। उनके दर्शन मात्र से उनमें नोड़ा (वैराग्य) उत्पन्न हो गया। उन्होंने पास ही के कर्म तालाब में स्थित मंदिर में रात्रि विश्राम किया किन्तु उसी समय वे लंगड़े हो गये अत: लड़खड़ाते हुए वे अपने गांव लसुड़िया पहुंचे। लसुड़िया में उन्होंने तेरह दिन तक उस स्थान पर अंगीठी जला कर विश्राम किया जहां आज मन्दिर बना हुआ है। (वही पृ. - १२९)
इसी दौरान `सूरजी' ने अन्न ग्रहण करना त्याग दिया केवल गाय के गोबर का सेवन कर जीवन यापन करने लगे। एक दिन देवगामड़ा के ठाकुर ने उन्हें गाय का दूध भेजा। उसे गर्म करने के लिये अंगीठी पर रखा गया पर शाम तक भी वह गर्म न हो सका। अन्त में सूरजी ने कुछ भभूती (राख) मंतर कर उसमें डाली तो दूध तीका गति से उबलने लगा। उस उबलते दूध को वे आसानी से पी गये। तब से उन्होंने गोबर खाना छोड़ कर गाय का दूध पीना प्रारंभ किया। इस घटना के बाद उनकी ख्याति चमत्कारी पुरूष के रूप में दूर-दूर तक फैली। (वही- पृ. १३०)
इस चमत्कारी घटना के पश्चात कुछ शासकों ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। वे उक्त चमत्कार पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे। फलत: ईडर के रावल केसर सिंह ने उन्हें एक सेर (लगभग ५०० ग्राम) उबलता हुआ शीशा पीने को कहा। सूरजी उसे आसानी से पी गये और तत्क्षण उल्टी कर उसी मात्रा में उन्हें वापस कर दिया। इस घटना के बाद तो लोग सूरजी को देवपुरूष (अवतारी पुरूष) के रूप में मानने लग गये।
सूरजी को बाबा जी के शब्द याद थे। उन्होंने राम नाम के जाप को निरन्तर करना प्रारम्भ कर दिया था। उनमें इससे आध्यात्मिक शक्ति का विकास होने लगा था लोग उन्हें विष्णु का अवतार मानने लगे थे। सूरजी ने अपने गांव में ही धूणी स्थापित कर दी थी। यहीं से उनकी भक्ति रस धारा प्रवाहित होने लगी। यहां गुजरात, वागड़ और मेवाड़ के भील आने लगे और `रामा दल' के रूप में संगठित होने लगे। उनका विश्वास एकेश्वरवाद में था। शरीर की शुद्धता के साथ उन्होंने भक्ति पर जोर दिया। उनकी भक्ति से प्रभावित होकर ब्रिटिश अधिकारी भी फरवरी १८७४ को उनसे मिले जिसकी चर्चा उन्होंने अपनी रिपोर्ट में की। ( वही पृ.- १३०)
इस रामादल में गुरू का शिष्य बनने के लिये तीन स्तर की परीक्षा से गुजरना पड़ता था। सबसे पहले गुरू उसके घर जाकर भजन मंडली के साथ भजन करते फिर कंकू, गऊ मूत्र और भभूति मिले द्रव्य शिष्य को पिलाकर उसके कान में मंत्र सुनाया जाता था फिर लाल और पीले रंग का पवित्र धागा (यज्ञोपवीत) शिष्य के गले में पहनाया जाता था और शुद्ध आचरण के लिये कहा जाता था। एक महीने से ढाई महीने की अवधि के पश्चात गुरू अपने अन्य शिष्यों के साथ नव शिष्य के घर जाकर `सल्पाहार' (चिलम पीने को देना) कराया जाता था। इन दो चरणों के पार लेने के पश्चात गुरू को जब विश्वास हो जाता था कि वह उनका भक्त बनने लायक है, तो उसे अन्तिम रूप से अपने पंथ में शामिल कर उसे भगत बनाया जाता था। शिष्य बनने के बाद किसी समय अमावस्या या पूनम के दिन `पाट' पूरा किया जाता इसके पूरे विधि विधान को `पाट पूरना' कहते है। इस विधि विधान के बाद गुरू शिष्य के गले में जनेऊ पहना कर उसे `सीताराम' कहलवाता था। उस दिन चावल लापसी का भोजन होता था और अपने शिष्यों के झूठे बरतन को गुरू स्वयं धोता था। (वही पृ.- १३२) यह परम्परा आज इस पंथ मे ंनिभाई जाती है। (क्रमश:)

सन् १८७४ तक संत सूर जी का भगत आन्दोलन दक्षिणी राजस्थान के डूंगरपुर, बांसवाड़ा, दक्षिणी मेवाड़, भोमट के क्षेत्र व गुजरात के मही काण्ठा व उसके समीपवर्ती स्थानों के भीलों में स्थान प्राप्त कर चुका था। इस क्षेत्र को चुन कर गांव-गांव जाकर अपने वाणी से उन्हें प्रभावित किया। अपने पंथ के विस्तार के लिये वे व्यक्तिगत रूप से बातचीत करते थे, जो उनके शिष्य बनने योग्य होता उसे चुनते तथा तीन चरणों में उसका परीक्षण कर उसे शिष्य बनाते थे। इस प्रकार से जो उनके शिष्य बनते थे वे फिर उस पंथ को छोड़ कर नहीं जाते थे। सन् १८७४ में उनके लगभग १००० शिष्य बन चुके थे जो १८७७ ई. में बढ़ कर तीन हजार हो गये थे। इस भगत आन्दोलन के कारण भीलों के जीवन में काफी अन्तर आ रहा था।
सूर जी के उपदेश ही कुछ ऐसे थे जो व्यक्ति को नैतिक जीवन व्यतीत करने को प्रेरित करते थे। उनके अनुसार ईश्वर एक है जो सभी जीवों में समान रूप से व्याप्त हैं अत: हिंसा करना ईश्वर का ही हनन है। उन्होंने मांस भक्षण को महापाप माना। हर जीव के प्रति दया और सभी के प्रति प्रेम और सद्भावना रखने का उनका हमेशा आग्रह रखता था। मद्यपान, चोरी, व्यभिचार, झूठ बोलने आदि का उन्होंने सदा निषेध किया। उनका विश्वास था कि घर की स्वच्छता, शरीर की स्वच्छता और सात्विक आहार व्यक्ति को ईश्वर के समीप ले जाता है। ईश्वर की आराधना के लिये वे हमेशा `रामनाम' के जाप के लिये ही कहा करते थे। इसीलिये इस पंथ के अनुयायी आज भी जब आपस में मिलते है तो `जय सीताराम' कह कर ही एक दूसरे का अभिवादन करते हैं। (वागड़ के संत- पृ.- १३३)
इस प्रकार के उदार और सुधारात्मक उपदेशों के कारण इस आन्दोलन को सामाजिक आधार मिल चुका था। अपने पंथ के विस्तार के लिये संत सूर जी व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित कर व्यक्ति का चयन कर जहां अपने अनुयायी बनाते थे वही अपने तीन प्रमुख सहयोगियों (शिष्यों) के माध्यम से भी अपने अनुयायियों में वे वृद्धि कर रहे थे। ये तीनों उनके पदचिह्नों पर चलते हुए इस पंथ में परिवर्तन करवाने में सहयोग कर रहे थे।
संत सूर जी के पंथ का प्रमुख केन्द्र उनका गांव लसोड़िया ही था जहां उन्होंने प्रथम घूणी स्थापित की थी। इसके अतिरिक्त बांसवाड़ा में अर्थूणा, कोना, डूंगरपुर में बीजा, माथुगामड़ा, हीराता, माल चौकी, सीमलवाड़ा व उदयपुर राज्य में केसरियाजी, पोगरा, निम्बोद व सराड़ा आदि जगहों पर संत सूरमाल दास की धूणिया है। इन धूणियों की जीवन्तता और वहां पर आने वाले अनुयायियों को देख कर कहा जा सकता है कि उनका यह पंथ आज भी इस क्षेत्र के भीलों में उनके उपदेशों और सिद्धांतों की छाप छोड़ रहा है। (वही पृ.- १३५)
उनके देवलोकगमन के बाद भी उनके उत्तराधिकारियों तथा शिष्यों द्वारा यह पंथ विकास के मार्ग पर अग्रसर होता रहा। इस पंथ के प्रथम उत्तराधिकारी हुए उनके एक मात्र पुत्र जलदास। जलदास के दो पुत्र कानदास और धनदास हुए। कानदास के पांच पुत्र हुए उनमें से एक श्री रणछोड़ दास डूंगरपुर की लासोड़िया गांव में धूणी के प्रधान थे। (वही. पृ.-१३४)
आज उनके पंथ के प्रभाव का यदि हम मूल्यांकन करे तो हम पायेंगे कि संत सूर जी के पंथ के विस्तार के कारण ही भीलों में नैतिकता का विकास हुआ। आगे चल कर गोविन्द गुरू और मोतीलाल तेजावत के भील आन्दोलन के सफलता के पीछे इनका ही भगत आन्दोलन था। यह आन्दोलन यदि पूर्व में न हुआ होता तो भील इतनी जल्दी उनके नेतृत्व में संगठित न हो पाते। गोविन्द गुरू का भगत आन्दोलन तो संत सूरी जी के कारण व्यापक रूप ले सका।
सन्त सूरमालदास के पंथ का भीलों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे नैतिक जीवन जीने लगे। पूर्व में भील चोरी करते थे, डाका डालते थे, लूट खसोट करते थे, संत जी के प्रभाव के कारण बहुत सारे भील खेती की ओर उन्मुख हुए और किसानों की भूमि पर व्यवस्थित हो कृषि कार्य करने लगे और विशेष रूप से पोल पट्टा के भीलों ने मेवाड़ भील कोर्पस तथा मही काण्ठा एजेंसी फोर्ट पुलिस में भाग लिया और अपने व्यवहार से सभी को प्रभावित किया। इस संदर्भ में `द इम्पीरियल गजेटियर ऑफ मही काण्ठा' ने १८८० ई. में यह तथ्य दिया है कि इस क्षेत्र का एक भी भील ऐसा नहीं था जो किसी अपराध में दोषी पाया गया हो। (वही-पृ. १३६)
वास्तव में संत सूरमालदास का एक ही उद्देश्य था कि समस्त भील समाज विकास की ओर हो, अपना जीवन उन्नत बनाते हुए देवत्व की ओर अग्रसर हो। उनका कार्य भील समाज में सुधारवादी कार्य था। उन्होंने कभी भीलों को शासकों व जागीरदारों के विरूद्ध विद्रोह करने का सुझाव नहीं दिया। उनके अनुयायियों ने धार्मिक व सामाजिक आधार पर ही अपने व्यक्तिगत जीवन का विकास किया। निश्चित ही संत सूरमालदास ने संत मावजी द्वारा प्रज्वलित समाज सुधार की ज्वाला को जलाए रखा।

8 टिप्‍पणियां:

  1. ईसमे हकीकत का इतिहास कुछ छोड दिया गया है उनकी भविष्यवाणी भी नहीं लिखी गई है राम नही रामा शब्द होना चाहिए था

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  2. मिथ्यक सा लग रहा है ब्राम्हणवाद की झलक

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