संयुक्त परिवार व्यवस्था में विवाह-संस्कार एक धार्मिक तथा सामाजिक दायित्व समझा जाता था। प्रायः परिवार के मुखिया ही वैवाहिक संबंध तय करते थे। कन्या के परिवार वाले अपनी स्थिति से उच्च तथा प्रतिष्ठित परिवार में संबंध करने की लालसा रखते थे। साधारणतया अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करने की प्रथा प्रचलित थी, किन्तु निम्न जातियों में इस प्रकार का कोई कठोर प्रतिबंध नहीं था। सगाई के समय ही दहेज देने का प्रचलन था। यह प्रथा पहले शासक एवं कुलीन वर्ग तक ही सीमित थी, किन्तु १९ वीं सदी में इसका प्रभाव समूचे मेवाड़ी जन-जीवन पर दृष्टिगत होता है। इसी प्रथा का परिणाम था कि परिवार में लड़की का जन्म अभिशाप समझा जाने लगा तथा कन्या-वध की अमानवीय परम्परा का प्रचलन हुआ। भील, ग्रासिया तथा मीणा जैसी जनजातियों में जीवन साथी चुनने की स्वच्छन्द परम्परा थी, अतः उनमें सगाई प्रथा का अधिक प्रचलन नहीं था। सगाई के बाद ज्योतिष अथवा पंडित से विवाह का शुभ मुहूर्त निश्चित किया जाता था। वर्षा ॠतु में विवाह नहीं किये जाते थे। जन्माष्टमी, बसंतपंचमी और अक्षयतृतीया के लिए मुहूर्त पूछने की आवश्यकता नहीं थी। विवाह का दिन निश्चित हो जाने से लेकर बारात की विदाई तक अलग-अलग जातियों में विविध रीति-रिवाजों का पालन किया जाता था। बारात की विदाई के पूर्व दहेज दिया जाता था, जिसका सामाजिक प्रदर्शन किया जाता था। इसके साथ ही जाति पंचायत के सामाजिक नेग व दस्तूर का लेन देन होता था और अमल-पानी का पान किया जाता था। विवाह की क्रिया में दोनों विवाही परिवारों द्वारा ज्योतिष, नाई, ढोली, सुथार, सोनी, चारण-भाट आदि को नेग दिया जाता था। सम्पूर्ण क्रिया से प्रतीत होता है कि १९ वीं सदी में विवाह जैसे पवित्र संस्कार में धन सम्बन्धी लेन-देन ने अत्यधिक महत्व प्राप्त कर लिया था। कभी-कभी सगाई तय कर देने के बाद भी अधिक धन मिलने की संभावना होने पर लोग सगाई संबंध तोड़कर लड़की का विवाह दूसरी जगह कर देते थे। द्विज जातियों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में विधवा-विवाह धर्म-विरुद्ध समझा जाता था, किंतु विधुर पुरुष पुनर्विवाह कर सकते थे। दूसरी तरफ निम्न जातियों में दापा प्रथा प्रचलित थी, जिसमें पति के मृत्युपरांत या जीवित अवस्था में भी स्री पुनर्विवाह कर सकती थी। दापा प्रथा के अन्तर्गत घुमक्कड़ तथा आदिवासी जातियाँ वधु मूल्य चुकाती थी। दहेज अथवा दापा नहीं जुटा पाने की स्थिति में आटा - साटा प्रथा द्वारा विवाह सम्पन्न होते थे। समाज में बाल-विवाह का प्रचलन भी था। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने बाल-विवाह तथा अनमेल-विवाह को रोकने का प्रयत्न किया था, किन्तु अंधविश्वास व सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों ने इस प्रथा को लंबे समय तक बनाये रखा। कुलीन और अभिजात वर्ग में बहुविवाह तथा उपपत्नी (रखैल) रखने की प्रथा का भी प्रचलन था। यद्यपि समाज के अन्य वर्गों में रखैल स्री रखने पर कोई प्रतिबंध नहीं था, तथापि इसका अधिक प्रचलन संपन्न लोगों के बीच ही था। विवाह का मुख्य सामाजिक-धार्मिक लक्ष्य संतानोत्पत्ति करना था। वयस्क विवाहिता के विवाहोपरांत दो-तीन वर्ष में यदि संतानोत्पत्ति के चिन्ह दिखाई नहीं देते तो उसे बांझ स्री की संज्ञा दे दी जाती थी और बांझ स्री का सामाजिक सम्मान कम हो जाता था। ऐसी स्रियों को परिवार में प्रताड़नाओं का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। पुत्र प्राप्ति की उत्कट लालसा के कारण स्रियाँ जादू-टोनों, तंत्र-मंत्र, अंधविश्वासों तथा अनाचारों में फंस जाती थी। नातायत जातियों में तो पुत्र उत्पन्न न होने पर विवाह-विच्छेद तक हो जाते हैं। इस विवाह-विच्छेद को लुंगड़ा-फाड़ना कहा जाता था। लेकिन पुत्र होने पर स्री की सामाजिक प्रतिष्ठा का स्तर बढ़ जाता था। परिवार में हर्ष और उल्लास फैल जाता था। संपन्न परिवार इस अवसर पर प्रीति भोज का आयोजन कर दान-पुण्य करते थे और आर्थिक दृष्टि से कमजोर परिवारों में कांसे की थाली बजाकर तथा गुड़ बांटकर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते थे। शिशु के जन्मोत्सव के बाद अन्य लोक संस्कारों का पालन किया जाता था।
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