रविवार, 21 जून 2009

मेवाड़ में प्रचलित प्रमुख लोक-संस्कार (Mewar in the current public key - values )







शुरु से ही मेवाड़ सामाजिक-धार्मिक रुढियों में जकड़ा रहा। इन रुढियों ने कई सामाजिक-धार्मिक संस्कारों को जन्म दिया तथा उन्हें समाज में एक स्थान दिया। १६ संस्कारों में कुछ प्रचलित संस्कार थे: -

- विवाह
- मृतक संस्कार
- पुंसवन
- सीमान्तोन्नयन
- जातकर्म
- नामकरण
- अन्नप्राशन
- चूड़ाकर्म

उपरोक्त संस्कारों में विवाह तथा मृतक संस्कार सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग थे। अन्य संस्कारों का समाज पर उतना प्रभाव नहीं था। परन्तु १९ वीं सदी के उपरान्त धीरे-धीरे संस्कारों का वैदिक स्वरुप लोक संस्कारों में परिवर्कित्तत होने लगा था तथा लम्बे समय तक व्यवहार में आते-आते धार्मिक प्रथाओं का रुप ग्रहण कर चुके

थे।

मेवाड़ में विवाह-संस्कार का प्रचलन

Mewar in marriage - the values of the trend





संयुक्त परिवार व्यवस्था में विवाह-संस्कार एक धार्मिक तथा सामाजिक दायित्व समझा जाता था। प्रायः परिवार के मुखिया ही वैवाहिक संबंध तय करते थे। कन्या के परिवार वाले अपनी स्थिति से उच्च तथा प्रतिष्ठित परिवार में संबंध करने की लालसा रखते थे। साधारणतया अपनी जाति के अन्दर ही विवाह करने की प्रथा प्रचलित थी, किन्तु निम्न जातियों में इस प्रकार का कोई कठोर प्रतिबंध नहीं था। सगाई के समय ही दहेज देने का प्रचलन था। यह प्रथा पहले शासक एवं कुलीन वर्ग तक ही सीमित थी, किन्तु १९ वीं सदी में इसका प्रभाव समूचे मेवाड़ी जन-जीवन पर दृष्टिगत होता है। इसी प्रथा का परिणाम था कि परिवार में लड़की का जन्म अभिशाप समझा जाने लगा तथा कन्या-वध की अमानवीय परम्परा का प्रचलन हुआ। भील, ग्रासिया तथा मीणा जैसी जनजातियों में जीवन साथी चुनने की स्वच्छन्द परम्परा थी, अतः उनमें सगाई प्रथा का अधिक प्रचलन नहीं था।

सगाई के बाद ज्योतिष अथवा पंडित से विवाह का शुभ मुहूर्त निश्चित किया जाता था। वर्षा ॠतु में विवाह नहीं किये जाते थे। जन्माष्टमी, बसंतपंचमी और अक्षयतृतीया के लिए मुहूर्त पूछने की आवश्यकता नहीं थी। विवाह का दिन निश्चित हो जाने से लेकर बारात की विदाई तक अलग-अलग जातियों में विविध रीति-रिवाजों का पालन किया जाता था। बारात की विदाई के पूर्व दहेज दिया जाता था, जिसका सामाजिक

प्रदर्शन किया जाता था। इसके साथ ही जाति पंचायत के सामाजिक नेग व दस्तूर का लेन देन होता था और अमल-पानी का पान किया जाता था। विवाह की क्रिया में दोनों विवाही परिवारों द्वारा ज्योतिष, नाई, ढोली, सुथार, सोनी, चारण-भाट आदि को नेग दिया जाता था। सम्पूर्ण क्रिया से प्रतीत होता है कि १९ वीं सदी में विवाह जैसे पवित्र संस्कार में धन सम्बन्धी लेन-देन ने अत्यधिक महत्व प्राप्त कर लिया था। कभी-कभी सगाई तय कर देने के बाद भी अधिक धन मिलने की संभावना होने पर लोग सगाई संबंध तोड़कर लड़की का विवाह दूसरी जगह कर देते थे।

द्विज जातियों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में विधवा-विवाह धर्म-विरुद्ध समझा जाता था, किंतु विधुर पुरुष पुनर्विवाह कर सकते थे। दूसरी तरफ निम्न जातियों में दापा प्रथा प्रचलित थी, जिसमें पति के मृत्युपरांत या जीवित अवस्था में भी स्री पुनर्विवाह कर सकती थी। दापा प्रथा के अन्तर्गत घुमक्कड़ तथा आदिवासी जातियाँ वधु मूल्य चुकाती थी। दहेज अथवा दापा नहीं जुटा पाने की स्थिति में आटा - साटा प्रथा द्वारा विवाह सम्पन्न होते थे।

समाज में बाल-विवाह का प्रचलन भी था। यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने बाल-विवाह तथा अनमेल-विवाह को रोकने का प्रयत्न किया था, किन्तु अंधविश्वास व सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों ने इस प्रथा को लंबे समय तक बनाये रखा।

कुलीन और अभिजात वर्ग में बहुविवाह तथा उपपत्नी (रखैल) रखने की प्रथा का भी प्रचलन था। यद्यपि समाज के अन्य वर्गों में रखैल स्री रखने पर कोई प्रतिबंध नहीं था, तथापि इसका अधिक प्रचलन संपन्न लोगों के बीच ही था।

विवाह का मुख्य सामाजिक-धार्मिक लक्ष्य संतानोत्पत्ति करना था। वयस्क विवाहिता के विवाहोपरांत दो-तीन वर्ष में यदि संतानोत्पत्ति के चिन्ह दिखाई नहीं देते तो उसे बांझ स्री की संज्ञा दे दी जाती थी और बांझ स्री का सामाजिक सम्मान कम हो जाता था। ऐसी स्रियों को परिवार में प्रताड़नाओं का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। पुत्र प्राप्ति की उत्कट लालसा के कारण स्रियाँ जादू-टोनों, तंत्र-मंत्र, अंधविश्वासों तथा अनाचारों में फंस जाती थी। नातायत जातियों में तो पुत्र उत्पन्न न होने पर विवाह-विच्छेद तक हो जाते हैं। इस विवाह-विच्छेद को लुंगड़ा-फाड़ना कहा जाता था। लेकिन पुत्र होने पर स्री की सामाजिक प्रतिष्ठा का स्तर बढ़ जाता था। परिवार में हर्ष और उल्लास फैल जाता था। संपन्न परिवार इस अवसर पर प्रीति भोज का आयोजन कर दान-पुण्य करते थे और आर्थिक दृष्टि से कमजोर परिवारों में कांसे की थाली बजाकर तथा गुड़ बांटकर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते थे। शिशु के जन्मोत्सव के बाद अन्य लोक संस्कारों का पालन किया जाता था।



मेवाड़ में मृतक संस्कार

Mewar values in the deceased






समाज में मृतक संस्कार भी एक महत्वपूर्ण सामाजिक क्रिया थी। हिन्दुओं की मान्यतानुसार मनुष्य

परलोक में मृतक संस्कार की शुद्धता द्वारा ही सुख भोगता है और जब तक उसका मोक्ष नहीं हो जाता, उसकी आत्मा भटकती रहती है तथा जीवित प्राणियों को कष्ट देती है। भील, मीणा व ग्रामिया जाति में भी यह मान्यता थी कि अच्छी और बुरी आत्मा द्वारा जीवित व्यक्तियों को लाभ और हानि दी जा सकती है। अतः अलग-अलग जातियों में मृतक संस्कार के पृथक-पृथक रिवाजों की परम्परा होते हुए भी संस्कार की शुद्धता, सभी जातियों में महत्वपूर्ण मानी जाती थी। मेवाड़ी समाज में इस संस्कार का पालन करना अनिवार्य था, अन्यथा समाज इसके लिए व्यक्ति अथवा परिवार को बाध्य करता था।

किसी व्यक्ति की मृत्यु निकट प्रतीत होने पर उसे खाट या पलंग से उतार कर गोबर पुते फर्श पर सुलाया जाता था। उसके संबंधी गीता अथवा रामायण का पाठ सुनाते हुए मुंह में गंगा जल या तुलसी पत्ता डालते थे। साथ ही शास्रानुसार दस दान - गौ, भूमि, तिल, स्वर्ण, घृत, वस्र, धान, गुड़, रजत व नमक का आर्थिक स्थिति के अनुसार संकल्प कराते थे। मृत्यु के पश्चात् समृद्ध मृतक को अर्थी के साथ-साथ उसके सम्बन्धी रुपया, पैसा, मोती, कौडिया तथा अन्न उछालते थे और आर्थिक दृष्टि से कमजोर परिवार वाले नारियल के टुकड़े (गिरी) साथ कौडिया उछालते थे। श्मशान घाट में मान्यतानुसार मृतक को जलाया अथवा गाड़ा जाता था। मेवाड़ में अभिजात वर्ग का श्मशान घाट महासत्या कहलाता था। मेवाड़ में यह परम्परा रही है कि किसी महाराणा की मृत्यु हो जाने पर उसके उत्तराधिकारी स्वर्गीय महाराणा की दाह क्रिया में सम्मिलित नहीं होता था। जन साधारण में १२ दिन का अशौच रखा जाता था।

द्विज जातियों में १० वें दिन मृतक के ज्येष्ठ पुत्र द्वारा पिण्ड दान किया जाता था और मृतक के पुरुष रिश्तेदार, जो उम्र में मृतक से छोटे होते थे, सिर क बाल, दाढ़ी और मूंछ मुण्डवाकर भदर होते थे। १२ वें दिन मृतक भोज का आयोजन किया जाता था तथा पगड़ी की र अदा की जाती थी। समाज में मृतक भोज का आयोजन महारोग के समान व्यापक था। सामाजिक दबाव और लोक भय के कारण निर्धन लोगों को कर्ज लेकर भी मृतक भोज का आयोजन करना पड़ता था और वे जीवन भर ॠण नहीं चुका पाते थे। राज्य के उच्चाधिकारी अथवा कृपा पात्रों को मृतक भोज के लिए राज्य की ओर से द्रव्य एवं नकद सहायतार्थ दिया जाता था। मृत्यु के एक वर्ष बाद श्राद्ध कर्म किया जाता था। अभिजात एवं संपन्न वर्ग द्वारा यह श्राद्ध कर्म हरिद्वार, गया अथवा बनारस में किया जाता था अथवा फिर कभी तीर्थ यात्रा के अवसर पर इसे पूर्ण किया जाता था। श्राद्ध कर्म के अवसर पर दान-पुण्य का प्रचलन था। आदिवासी जातियों में श्राद्ध कर्म की परंपरा नहीं थी।

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