रविवार, 21 जून 2009

Spectacular site of Mewar Jhajpur

मेवाड़ के दर्शनीय स्थल

जहाजपुर



जहाजपुर के आसपास के प्राचीन गाँव
बीजोल्यां के आस-पास के प्राचीन गाँव


मेवाड़ के पुराने स्थलों में से एक जहाजपुर, उक्त नाम के जिले का मुख्य स्थान है। लोगों की मान्यता है कि राजा जनमेजय ने नागों को होमने का यज्ञ यहीं किया था, जिससे इसका नाम यज्ञपुर हुआ। उसी का अपभ्रंश जाजपुर (जहाजपुर) है। इस कस्बे के अग्निकोण में करीब डेढ़ मील की दूरी पर नागेला तालाब है। जिसके बाँध पर जनमेजय के यज्ञ का होना माना जाता है। नागेला तालाब से नागढ़ी नाम की एक छोटी नदी निकलकर जहाजपुर के कस्बे के पास बहती है।

नागदी नदी के पूर्वी किनारे पर एक ही स्थान पर १२ मंदिर बने हैं, जिसे बारा देवलां कहते हैं। वहाँ एक गुहिल नामक पुरुष का वि. सं. १०८५ का बना स्मारक-स्तंभ है, जो इस मंदिर की प्राचीनता का प्रमाण है। एक दंतकथा के अनुसार राजा जनमेजय ने स्वयं यहाँ सोमनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा की।

जहाजपुर के आसपास के प्राचीन गाँव

धौड़ गाँव

यह गाँव जहाजपुर से ७ मील दूर अग्निकोण में स्थित है। यहाँ रुठी राणी का मंदिर है, जिसके स्तंभ पर अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज द्वितीय (पृथ्वीभट) का वि.सं. १२२५ में लिखा अभिलेख है। इस अभिलेख के अनुसार उनकी रानी का नाम सुहवदेवी था। जो लोगों में रुठी राणी के नाम से प्रसिद्ध है। दूसरे स्तंभ पर वि. सं. १२२८ तथा वि. सं. १२२९ में लिखे दो अन्य शिलालेख हैं, जिसपर चौहान राजा सामेश्वर के लेख खुदे हैं।

लोहारी गाँव

जहाज पुर से करीब ८ मील की दूरी पर लोहारी गाँव है, जिसके बाहर भूतेश्वर का शिवालय है। इस शिवालय के स्तम्भ पर चौहान राजा वीसलदेव (विग्रहराज चौथे) के समय का वि. सं. १२११ का लेख खुदा है। मंदिर के बाहर सती का स्तम्भ है, जिस पर लिखे अभिलेखों से पता चलता है कि पृथ्वीराज चौहान (पृथ्वीराज तीसरे) के समय वागड़ी सलखण के पुत्र जलसल का यह स्मारक वि.सं. १२३६ में उसकी माता काल्ही ने स्थापना किया था। वर्त्तमान में यह स्तम्भ उदयपुर के विक्टोरिया हॉल में सुरक्षित है।

आंवलदा गाँव

यह गाँव जहाजपुर से १२ मील दक्षिण पश्चिम में स्थित है। गाँव के बाहर एक कुंड के पास सती के स्तम्भ पर दो खुदे हुए है, जिसमें से एक महाराजाधिराज श्री सोमेश्वर के राज्य समय वि.सं. १२३४ में लिखा गया है तथा दूसरा महाराजाधिराज पृथ्वीराज (पृथ्वीराज तृतीय) के समय वि. सं. १२४५ का है।

बीजोल्यां

बीजाल्यां परमार सरदारों की जागीर का मुख्य स्थान है। अभिलेखों के अनुसार इसका पुराना नाम विंध्यवल्ली था तथा इसी शब्द का अपभ्रंश बीजोल्यां हुआ है। यहाँ के चपटे कुदरती चट्टानों पर मिले कुछ अभिलेख ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वि.सं. १२२६ में चौहान राजा सोमेश्वर के समय खुदे शिलालेख में सांभर और अजमेर के चौहान राजाओं की वंशावली है, जो अन्य साक्ष्यों से मेल हो जाने के कारण बहुत हद तक शुद्ध मानी जाती है। इसमें कुछ राजाओं का विवरण भी मिलता है।

बीजोल्यां के मंदिर

बीजोल्यां में पहले कई मंदिर थे, जिनके जीर्ण होकर गिर जाने के कारण उनमें प्रयुक्त पत्थरों को बीजोल्यां के कस्बे का कोट बनाने में लगा दिया गया। फिर भी अभी कई मंदिर वहाँ विद्यमान है, जो अपनी प्राचीनता के दृष्टिकोण से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।

ंडेश्वर

बीजोल्यां के पूर्व में कोट के निकट तीन शिवमंदिर है, जिनमें से एक हजारेश्वर महादेव का मंदिर है। इसके शिवलिंग के ऊपर छोटे-छोटे सैकड़ों लिंग खुदे हुए हैं। अतः इसे सहस्रलिंग का मंदिर भी कहते हैं। इसके निजमंदिर के द्वार पर लकुलीश की मूर्ति बनी हुई है। दूसरा महाकाल का मंदिर है, जिसके द्वार पर भी लकुलीश की मूर्ति है। तीसरे, वैजनाथ के मंदिर में नक्काशी का काम बड़ा ही सुंदर है। इसके अतिरिक्त महादेव का भी एक मंदिर है, जो वि.सं. १२३ज्र (इकाई का अंक नष्ट हो गया) का है। उपरोक्त अन्य मंदिर भी करीब-करीब इसी के समकालीन हैं। यहाँ एक मंदाकिनी नामक कुड भी है जो धार्मिक महत्व का माना जाता है।

बीजोल्या के कस्बे से अग्निकोण में करीब एक मील की दूरी पर एक जैन मंदिर है, जिसके चारों कोनों पर एक-एक छोटा मंदिर और बना हुआ है। इन मंदिरों को पंचायतन कहते हैं। ये पाँचों मंदिर कोट से घिरे हुए हैं। इन मंदिरों में मध्य वाला मंदिर, जो मुख्य मंदिर है, पार्श्वनाथ जी का है। मंदिर के बाहर दो चतुरस्र स्तंभ बने हुए हैं, जो भट्टारकों की निषेधिकाएँ हैं। इन देवालयों से थोड़ी दूरी पर जीर्ण-शीर्ण अवस्था में रेवती कुंड है। पहले दिगम्बर सम्प्रदाय के पोखाड़ महाजन लौलाक ने यहाँ पार्श्वनाथ का तथा सात अन्य मंदिर बनवाये थे, जिसके टूट जाने पर ये पाँच नये मंदिर बनाये गये। यहाँ लोलाक का खुदवाया हुआ, अपने निर्माण कराये हुए देवालयों के सम्बन्ध में एक शिलालेख है। लोलाक का ही दूसरा शिलालेख उन्नत शिखर पुराण नामक दिगम्बर जैन-ग्रंथ है। इस समय इस पुराण की कोई लिखित प्रति विद्यमान नहीं है। बीजोल्या के राव कृष्णसिंह ने इन पर पक्के मकान बनाकर इसे संरक्षित कर दिया है।

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बीजोल्यां के आस-पास के प्राचीन गाँव

जाड़ोली गाँव

यह गाँव बीजोल्या से लगभग पाँच मील की दूरी पर स्थित है। यहाँ थोड़ी दूर पर कई टूटे-फूटे मंदिर हैं। सबसे बड़ा मंदिर वैजनाथ का शिवालय है, जिसके भीतर शिवलिंग तथा द्वार पर लकुलीश की मूर्ति बनी हुई है। शिवलिंग के पीछे शिव की प्रतिमा और ऊपरी भाग में नवग्रहों की मूर्तियाँ खुदी हुई हैं। एक ताख में दशभुजा देवी की मूर्ति है, जो संभवतः सप्तमातृकाओं में से एक है। इसके नीचे तीन-तीन मूर्कित्तयाँ दोनों ओर खुदी हैं।

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नोटः - वैसे शिवालय, जिसमें शिवलिंग मंडप की सतह से नीचा ( होता है, ऐसे मंदिरों को कहते हैं। वास्तव में मंदिर का नाम नहीं है, केवल लोगों ने इस प्रकार के शिवालय का नाम रख दिया है।

वृंदावन गाँव

बीजोल्या से करीब ४ मील पश्चिम में वृन्दावन नाम का गाँव है। गाँव के पास स्थित एक प्राचीन जीर्णावस्था में एक शिवालय है, जिसे लोग कशोरी की पूतली कहते हैं। इसके द्वार पर लकुलीश की मूर्ति बनी है।

तिलस्मा गाँव

जाड़ोली गाँव से करीब ६ मील पूर्व की तरफ तिलस्मा गाँव है। यहाँ कई प्राचीन इमारतें हैं, जिसमें से मुख्य भवेश्वर (तलेश्वर) नामक शिवालय है, जो संभवतः वि.सं. ११ वीं शताब्दी का माना जाता है। इस मंदिर के द्वार पर भी लकुलीश की प्रतिमा विराजमान है तथा ऊपर नवग्रह बने हुए हैं।

मैनाल

मैनाल बेगूं के सरदार की जागीर का गाँव है, जो करीब- करीब उजाड़ पड़ा हुआ है। यहाँ पहले अच्छी आबादी होने के चिह्म दृष्टिगोचर होने हैं। यहाँ श्वेत पाषाण का बना हुआ महानालदेव का विशाल शिवालय मुख्य है और इसी के नाम से इस गाँव का नाम मैनाल पड़ा है। मंदिर के द्वार पर लकुलीश की मूर्ति बनी है। इस मंदिर के पीछे एक सुंदर कुआ है, जहाँ से ऊँचे- ऊँचे स्तंभों पर बनी हुई पत्थर की नाली के द्वारा मंदिर में जल पहुँचता था। मंदिर के आगे सुंदर खुदाईवाला तोरण बना हुआ है। इस मंदिर के साथ दुमंजिला मठ भी है, जिसकी दूसरी मंजिल के एक स्तंभ पर अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज दूसरे (पृथ्वीभट) के समयर का वि.सं. १२२६ का लेख खुदा है, जिससे पाया जाता है कि यह मठ उक्त राजा के राज्यसमय भावब्रह्म मुनि (साधु) ने बनवाया था।

महानाल के मंदिर के आगे कई शिवमंदिर भग्नावस्था में पड़े हुए हैं, जो वहाँ के महंतों की समाधियों पर बने हुए प्रतीत होते हैं। यहाँ से कुछ अंतर पर पृथ्वीराज दूसरे की राणी सुहवदेवी (रुठी राणी) के महल और उसी का बनाया हुआ सुहवेश्वर नामक शिवालय है, जो वि.सं. १२२४ में बना था, ऐसा वहाँ के लेख से ज्ञात होता है।

मैनाल में एक सुंदर विशाल कुंड भी इस समय गिरी हुई दशा में है। कर्नल टॉल को यहाँ से एक शिलालेख वि.सं. १४४६ का मिला, जो हाड़ा शाखावाले चौहानों के प्राचीन इतिहास के लिये बड़ा उपयोगी है, परंतु अब वहाँ पर उसका पता नहीं लगता। शायद कर्नल टॉड अन्य शिलालेखों के साथ उसे भी इंग्लैंड ले गये हों।

बाड़ोली

भैंसरोडगढ़ से चंबल के जंगलों को पार कर तीन मील की दूरी पर बाड़ोली के प्रसिद्ध मंदिर आते हैं। ये मंदिर २५० गज लंबे तथा उतने ही चौड़े अहाते के भीतर बने हैं। कारीगरी के दृष्टिकोण से यह मंदिर मेवाड़ में ही नहीं, पूरे देश में एक स्थान रखता है। कुछ विद्वानों ने तो इन देवालयों को अद्वितीय मानते हुए मुक्तकंठ से इसकी प्रशंसा की है। मंदिरों के निर्माण काल के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिल पायी है। वहाँ खुदे कुछ छोटे- छोटे अभिलेखों में एक वि.सं. ९८३ का है, जिससे सिर्फ यह अनुमान लगाया जा सका है कि मंदिर- निर्माण संभवतः इससे पहले ही हो गया होगा।

इन मंदिरों में मुख्य मंदिर घटेश्वर का शिवालय है, जिसके आगे तोरण के दो स्तंभ खड़े थे, जिसमें से अब एक टूट गया है। मंदिर के सामने, उससे अलग एक सुंदर मंडप बनाहुआ है, जिसे लोग राजा हूण की चौरी कहते हैं। घटेश्वर के मंदिर के अलावा यहाँ गणेश, नारद, सप्तमातृका, त्रिमूर्ति तथा शेषशाभी नारायण के मंदिर भी हैं और अहाते के बाहर एक कुंड है।।

देलवाड़ा

एकलिंगजी से चार मील उत्तर में देलवाड़ा (देवकुल पाटक) गाँव स्थित है, जो वहाँ के झाला सरदार की जागीर का मुख्य स्थान है। यहाँ पहले धनाढ़य जैनों की अच्छी आबादी थी। प्रसिद्ध वाचक सोम सुंदर सूरि के कई बार यहाँ आने का प्रमाण मिलता है। पहले यहाँ बहुत से श्वेतांबर मंदिर थे, उनमें से तीन अब तक विद्यमान है। इन्हें बसी (वसही,वसति) कहते हैं। इनमें से एक मंदिर आदिनाथ का तथा दूसरा पार्श्वनाथ का है। इन मंदिरों तथा इनके तहखानों में रखी गई भिन्न-भिन्न तीथर्ंकर,आचार्यों एवं उपाध्यायों की मूर्तियों के आसनों एवं पत्थर के भिन्न-भिन्न पट्टों पर खुदे लेख वि.सं. १४६४ से १६८९ तक के हैं। कुछ वर्ष पूर्व यहाँ के एक मंदिर का जीर्णोंधार करते समय मंदिर के कोट के पीछे के खेत में से १२२ जिन प्रतिमाएँ तथा दो पाषाणपट्ट मिले थे। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये प्रतिमाएँ मुसलमानों की चढ़ाईयों के समय मंदिरों से उठाकर यहाँ गाड़ दी गई हो। कई मूर्तियों से साथ उपलब्ध अभिलेखों से पता चलता है कि महाराणा मोकल तथा कुंभा के समय यह स्थान संपन्नता के उत्कर्ष पर होगा। वैसे महाराणा लाखा से पूर्व का कोई शिलालेख यहाँ नहीं मिलता।

केरड़ा

उदयपुर-चित्तौड़गढ़ रेलवे मार्ग में केरड़ा स्टेशन पड़ता है। इसके पास ही सफेद पत्थर का बना पार्श्वनाथ का विशाल मंदिर है। मंदिर के मण्डप के दोनों तरफ छोटे- छोटे मंडपवाले दो और मंदिर बने हुए हैं। उनमें से एक के मंडप में अरबी में लिखा एक अभिलेख है, जो संभवतः मरम्मत करते समय वहाँ लगा दिये गये होंगे। मंडप में जंजीर से लटकती हुई घंटियों की आकृतियाँ बनी है। एक जनश्रुति के मुताबिक इस मंदिर को बनाने में एक बनजारे ने सहायता दी थी, जिससे उसके बैलों के गले में बाँधी जानेवाली जंजीर सहित घंटियों की आकृतियाँ यहाँ अंकित की गई, लेकिन इस तरफ की आकृतियों का प्राचीन जैन, शैव एवं वैष्णव मंदिरों में होना असामान्य नहीं। मंडप के उत्तर के भाग में एक मस्जिद की आकृति उकेड़ी गई है। कुछ लोगों का विचार है कि मंदिर के मुस्लिम आक्रमनकारियों द्वारा तोड़े जाने के भय से अकबर ने ऐसा करवाया। इसी उद्देश्य से इस तरह की आकृतियाँ बनाने की परंपरा मंदिर के निर्माणकर्त्ताओं के बीच पहले से प्रचलित थी।

मंदिर में काले रंग के पत्थर से बनी वि.सं. १६५६ की पार्श्वनाथ की एक मूर्ति है। लोग कहते हैं कि पहले मूर्ति के ठीक सामने के भाग में एक छिद्र था, जिससे होकर पौष शुक्ला १० को सूर्य की किरणें सीधा इसके प्रतिमा पर पड़ती थी। उस समय वहाँ एक बड़ा मेला लगता था। परंतु बाद में जीर्णोंद्धार कराते समय उस तरफ की दीवार ऊँची कर दी गई, जिससे अब सूर्य की किरणें मूर्ति पर नहीं पड़ती। देश- विदेश से जैन तीर्थयात्री यहाँ अभी भी आते हैं।

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