`बाबूजी' के नाम से पहिचाने जाने वाले अर्जुनसिंह जी भाटी का जन्म अश्विन शुक्ला तृतीया सवत 1951 में एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता श्री शिवसिंह जी उस समय की सामाजिक मान्यताओं से अलग विचार रखते थे। अतः उनके विचारों का प्रभाव बालक अर्जुन पर भी पड़ा। पर जब वे 12 वर्ष ही थे कि उनके पिता का देहावसान हो गया। अतः जो सामाजिक समानता और निस्पृहता के संस्कार उन्हें बीज रूप में बाल्यकाल में मिले थे उन्हें विकसित होने में समय लग गया।
पिता के अभाव में वे क्या करे उन्हें समझ में नहीं आ रहा था `िशक्षा के लिये उदयपुर इतना अधिक सम्पन्न नहीं है' इस विचार को ध्यान में रख कर वे मुम्बई चले गये जहां उन्होंने मारवाड़ी विद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उन्हें उन्मुक्त वातावरण मिला। वहां वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से बहुत अधिक प्रभावित हुए। उस समय के युवकों में लोकमान्य तिलक ने विदेश छाप वाले स्कूलों के `बहिष्कार' के निर्देश दिये थे। अतः अध्ययन समाप्ति के पश्चात उन राष्ट्रीय विचारों को लेकर अर्जुनसिंह जी उदयपुर लौट आये। (श्री दयाशंकर श्रोत्रिय अभिनन्दन ग्रंथ-पृ.-81)
उनकी यह धारणा थी कि अशिक्षा ही आर्थिक जड़ता, सामाजिक असमानता तथा सामाजिक चेतना के अभाव का मूल कारण है अतः उन्होंने यह तय कर लिया कि वे समाज के जागरण के लिये शिक्षा का ही कार्य करेंगे ऐसी शिक्षा जो विदेश की छाप से मुक्त हो, जिसकी जड़ें इस माटी से जुड़ी हुई हो। इस संकल्प के साथ उन्होंने 1 जनवरी 1922 ई. में बेदला गांव में एक शिक्षण संस्था व एक रात्रि शाला का शुभारम्भ किया और निरन्तर 11 वर्षों तक एकाग्रचित्त हो उसकी सेवा करते रहे। ( वही-पृ. 81)
महामना मदनमोहन मालवीय जी द्वारा प्रसारित `सेवा समिति बॉय स्काऊट' अभियान को युवकों के राष्ट्रीय भावना पूर्ण चारित्रिक विकास का सम्बल मान कर सन् 1926 में इन्होंने सेवा समिति की स्थापना में योग दिया और 33 वर्ष तक व्यवस्थापक के रूप में वे अनवरत कार्य में लगे रहे। अंग्रेजों के `वेडन स्काऊ टिंग' की रूपरेखा से हट कर जो `सेवा समिति' द्वारा स्काऊटिंग की व्यवस्था की गई थी यह उस समय मानो सत्ता के विरोध का एक स्वरूप था। अतः स्वाभाविक था कि अधिकारियों का वे कोपभाजन बनते। सत्ता द्वारा प्रबल विरोध एवं अधिकारियों द्वारा तिरस्कार के झंझावत में भी अर्जुनसिंह जी के प्रयासों से `सेवा समिति' निरन्तर प्रगति करती रही और सेवा को व्यापक रूप देने की दिशा में सेवा समिति के साथियों द्वारा विद्याभवन की स्थापना में श्री अर्जुनसिंह जी का महत्वपूर्ण योग रहा। डा. मोहनसिंह मेहता इसी कार्यकाल में उनकी प्रतिभा से प्रभावित हुए बिना न रह सके। (वही-पृ.-82)
डा. मोहनसिंह मेहता विख्यात शिक्षाविद्, समाजसेवी, प्रमुख बालचर और कुशल प्रशासक थे। उन्हें अर्जुनसिंह जी की प्रतिभा और कार्यकुशलता समझने में देर न लगी। डा. मेहता उनके लगन और निष्ठा से अत्यधिक प्रभावित थे। उन्हीं के ही उत्साहवर्धन से `योगः कर्मसु कौशलम्' के मूल मंत्र को लेकर अर्जुनसिंह ने सन् 1931 में `बालाश्रम स्कूल' की स्थापना की। उस समय किंडर गार्डन और मोन्टीसरी पद्धतियों और सांस्कृतिक कार्यों को शिक्षा का माध्यम बनाना कुछ कठिन था। श्री अर्जुनसिंह जी ने साहस के साथ शिक्षा को इस रूप में विकसित करने का प्रयास किया जो उस समय कौतुहल जनित संदेश और ईर्ष्या का विषय रहा था पर `बाबूजी' ने इसकी परवाह न की और सूरजपोल खटीकवाड़ा में बालाश्रम की शुरूआत कर ली।
बालाश्रम और स्काऊ ट आश्रम दोनों सूरजपोल में पास-पास में थे। इन दोनों का काम `बाबूजी' स्वयं देखा करते थे। उस युग में बालाश्रम में शिक्षा के साथ-साथ समाज जागरण का कार्य भी चल रहा था। इसक ðपरिणाम स्वरूप यहां के बालकों में राजनैतिक जागृति का भी शुभारम्भ हो गया। बालाश्रम भी अब इस दिशा में अग्रणी हो चला था। मेवाड़ के उस समय के लगभग सभी निष्ठावान, जागरूक, कर्मठ मध्यमवर्गीय सामाजिक कार्यकर्ता इसी विद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। उनमें से अधिकांश आज राजनीति के व प्रशासन के क्षेत्र में राजस्थान के शीर्षस्थ स्थान पर विराजमान है अथवा सेवा कार्य से मुक्त हो चुके है।
बालाश्रम के साथ-साथ सेवा समिति के माध्यम से आपका सम्पर्क श्री दयाशंकर जी श्रोत्रिय से आया। उनके मध्य स्नेह सम्बन्ध प्रगाढ़ हो गया था। अतः महिला मण्डल की स्थापना के साथ ही वे श्रोत्रिय जी के साथ जुड़ गये और यह सम्बन्ध उनका आजीवन रहा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् उनकी सेवाओं को देखते हुए सरकार ने उदयपोल के अन्दर `बालाश्रम' के लिये उन्हें भूभाग दिया। पर अपनी आकांक्षाओं के अनुकूल वहां वे संस्था के लिये भवन बनाते वे इस संसार को छोड़ कर चल दिये। उनके चले जाने के बाद व्यवस्था के अभाव में `बालाश्रम' का वह स्वरूप न रह सका। उनके कार्यों का अवशेष रहे या न रहे पर उदयपुर का शिक्षा जगत उन्हें हमेशा याद करता रहेगा।
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